कभी राष्ट्रीय पक्षी बनने की होड़ में शामिल सोन चिरैया की संख्या पूरी दुनिया में मात्र 150 है और ये राजस्थान में ही सिमटकर रह गई हैं
घास के मैदानों से गुजरती और हमारी किस्से-कहानियों-गीतों में शामिल सोन चिरैया (ग्रेट इंडियन बस्टर्ड) पिछले कुछ दशकों में विलुप्ति की कगार पर पहुंच गई। राजस्थान में बचे इनके आखिरी कुनबे को संभालने के लिए देहरादून के वाइल्ड लाइफ इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया के वैज्ञानिक भी काम कर रहे हैं। वैज्ञानिकों की मदद से प्रयोगशाला में रखे गए सोन चिरैया के आठ अंडों से चूजे निकल आए हैं और अब तीन महीने के हो चुके हैं।
बिजली के तार सोन चिरैया के जीवन का सबसे बड़ा संकट हैं। इस मुश्किल से निपटने के लिए भी डब्ल्यूआईआई के वैज्ञानिकों ने एक प्रयोग शुरू किया है। जैसलमेर में बिजली के तारों पर प्रयोग के तौर पर बर्ड डायवर्टर लगाए गए हैं। डब्ल्यूआईआई के वैज्ञानिक डॉ वाईवी झाला बताते हैं कि सोलर ऊर्जा से चलने वाले बर्ड डायवर्टर को बिजली के तारों पर टांग दिया जाता है। रात में ये डायवर्टर फ्लैश करते हैं। उनसे रोशनी निकलती है, जिससे बिजली के तार दूर से दिखायी दे जाते हैं और दुर्घटना की आशंका टल जाती है। रात के अंधेरे में बिजली के तारों को देखना मुमकिन नहीं होता। सोन चिरैया की मौत की सबसे बड़ी वजह बिजली के तार ही हैं।
बर्ड डायवर्टर एक तरह से रात को सड़कों के डिवाइडर पर लगी फ्लैश लाइट की तरह काम करते हैं। ये पक्षियों को चेतावनी दे देता है कि आसमान में यहां पर बाधा है। डॉ झाला बताते हैं कि विदेशों में पक्षियों को बचाने के लिए इस तकनीक का इस्तेमाल होता आया है लेकिन हमारे देश में ये पहली बार लगाए जा रहे हैं।
डॉ झाला कहते हैं कि सोन चिरैया की मौजूदगी के लिहाज से जो बेहद संवेदनशील क्षेत्र हैं, वहां बिजली के तारों को अंडर ग्राउंड करना पड़ेगा। लेकिन इसमें सरकार जितना समय लेगी, पक्षियों के लिए खतरा बढ़ता रहेगा। वह बताते हैं कि करीब 10-15 किलो तक वज़नी और करीब एक मीटर ऊंची सोन चिरैया सीधे आगे की तरफ देख नहीं पाती, बल्कि किनारों से देखती है। जब तक उसे बिजली के तार महसूस होते हैं वो खुद को दूसरी तरफ मोड़ नहीं पाती और तार की चपेट में आ जाती है। जबकि दूसरी छोटी चिड़िया तारों से बचकर निकल सकती हैं। डॉ झाला कहते हैं कि बर्ड डायवर्टर से 50 से 80 प्रतिशत तक सोन चिरैया की बिजली की तारों में उलझकर होने वाली मौत रोकी जा सकती है। हालांकि पूरी तरह नहीं।
कभी राष्ट्रीय पक्षी बनने की होड़ में शामिल सोन चिरैया की संख्या पूरी दुनिया में मात्र 150 है और ये राजस्थान में ही सिमटकर रह गई हैं। सोन चिरैया की संख्या कम होने की वजह ये भी है कि ये पक्षी एक साल में सिर्फ एक ही अंडा देती है। जिसमें 50 फीसदी अंडे समय से पहले ही खत्म हो जाते हैं। डॉ झाला बताते हैं कि रेगिस्तान में पानी आने के साथ ही कुत्ते, सूअर जैसे जानवर भी आ गए हैं। जानवर उनके अंडे और चूजे खा जाते हैं। वाइल्ड लाइफ इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया के वैज्ञानिकों ने जंगल से सोन चिरैया के आठ अंडे लिए और उन्हें इन्क्यूबेटर में संरक्षित किया। सभी अंडों से चूजे निकल आए और अब वे तीन महीने के हो चुके हैं। यानी ये प्रयोग सौ प्रतिशत सफल रहा।
सोन चिरैया के संरक्षण के लिए इन चूजों को वैज्ञानिकों की देखरेख में ही रहना होगा। बड़े होने पर इनकी ब्रीडिंग करायी जाएगी और उससे निकले चूजों को जंगल में छोड़ा जाएगा। डॉ झाला के मुताबिक ये करीब 20-25 वर्ष तक चलने वाली प्रक्रिया है। ताकि सोन चिरैया को विलुप्त होने से बचाया जा सके।
अस्सी के दशक तक देश के 11 राज्यों में करीब 1500-2000 तक सोन चिरैया मौजूद थीं। अवैध शिकार, घास के मैदान कम होना और बिजली के तारों का विस्तार, इन चिड़ियों को खतरे की जद में ले आया। जुलाई 2011 में इंटरनेशनल यूनियन फॉर कंजर्वेशन ऑफ नेचर संस्था ने इन्हें क्रिटिकली एनडेंजर्ड प्राणियों की सूची में शामिल किया। अगर सोन चिरैया को बचाने के प्रयास तेज़ नहीं किए गए तो चीता के बाद देश से विलुप्त होने वाली ये दूसरी बड़ी जीव होगी।
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