General Elections 2019

बुनियादी सुविधाएं नहीं, तो वोट भी नहीं

बिजली, पानी और सड़क जैसी बुनियादी सुविधाओं के अभाव के चलते 14 राज्यों के 160 गावों ने लोकसभा चुनाव के बहिष्कार का फैसला किया है

 
By Kiran Pandey
Published: Thursday 04 April 2019

अब से केवल आठ दिनों में, 17 वीं लोकसभा के लिए चुनाव शुरू हो जायेंगे, जिसको देखते हुए विभिन्न राजनैतिक पार्टियों ने जनता को लुभाने के लिए लोक लुभावन वादों के साथ अपने घोषणापत्र जारी करने शुरू कर दिए हैं। जहां इस वर्ष लोगों द्वारा अपने प्रतिनिधियों को चुनने के लिए भारी संख्या में वोट डालने की उम्मीद जताई जा रही है, लेकिन वहीं दूसरी ओर 14 राज्यों के 165 गांवों ने इस बार बुनियादी सुविधाओं के अभाव के कारण वोट नहीं डालने का फैसला किया है।

इनमें से अधिकतर गांव उत्तर प्रदेश, कर्नाटक और महाराष्ट्र में हैं। जबकि अन्य असम, छत्तीसगढ़, हिमाचल प्रदेश, ओडिशा, राजस्थान, तमिलनाडु, तेलंगाना और उत्तराखंड में हैं। इनमें से कुछ गांव तो सरकार द्वारा शुरू की गई 'संसद आदर्श ग्राम योजना' का भी हिस्सा हैं । गौरतलब है कि 'संसद आदर्श ग्राम योजना' सरकार द्वारा गांवों के विकास के लिए शुरू की गई योजना है, जिसके तहत देश के सभी सांसदों को एक साल के लिए एक गांव को गोद लेकर वहां विकास कार्य करना था ।

इस बहिष्कार के लिए काफी हद तक किसानों की बढ़ती परेशानियां, आदिवासियों के अधिकारों का हनन और आजादी के 70 साल बाद भी ग्रामीण विकास की खराब स्थिति जिम्मेदार है।  इस बहिष्कार के पीछे के कारण काफी हद तक आजादी के 70 साल बाद भी ग्रामीण विकास और किसान अधिकारों और आदिवासी अधिकारों के बावजूद ग्रामीण विकास की खराब स्थिति है।

आज भी है बुनियादी सुविधाओं का अभाव 

पानी और सड़क जैसी बुनियादी सुविधाओं का अभाव सभी गांवों में आक्रोश का सबसे आम कारण है।उत्तर प्रदेश में, मुजफ्फरनगर के भोपा क्षेत्र के लोग, जो की बिजनौर निर्वाचन क्षेत्र के अंतर्गत आते हैं, सोनाली नदी के ऊपर पुल की मांग कर रहे  थे। लेकिन चूंकि सरकार इस मांग को पूरा करने में विफल रही है, इसलिए ग्रामीणों को अपने खेतों तक जाने के लिए 5 किलोमीटर से अधिक की यात्रा करनी पड़ती है। यूपी में ही हाथरस जिले के अंतर्गत आने वाले कई गांव वर्षों से पीने के लिए साफ पानी की मांग कर रहे हैं। और सालों से खारा पानी पी रहे हैं। उन्होंने अब अपना वोट नहीं डालने का फैसला किया है। 

इसी प्रकार कर्नाटक में, शिवमोग्गा, गडग, चिक्कमगलुरु, मैसूर और मलनाड जिलों के कई गांव कई वर्षों से विकास की प्रतीक्षा कर रहे हैं। लेकिन निवासियों ने इस बार पीने के पानी और सड़क जैसी बुनियादी सुविधाओं की कमी के कारण वोट नहीं करने का फैसला किया है। ऐसे ही एक गांव -  कडाकोला - जो कि 3,500 मतदाताओं का घर है, द्वारा चुनाव के बहिष्कार का आह्वान राजनीतिक दलों को बेचैन कर सकता है।

वहीं दमबल के निकट नारायणपुर के ग्रामीण भी अच्छी सड़क की मांग कर रहे हैं और चाहते हैं कि उनके गांव को राजस्व गांव घोषित किया जाए। इसी तरह आंध्र प्रदेश में अमरावती जिले के दरियापुर तालुका के इटकी गांव ने भी लोकसभा चुनाव के बहिष्कार का फैसला किया है, उसे उम्मीद है, की इसी के चलते शायद गांव का पिछले 30 वर्षों से टूटा बस स्टैंड पुनः बन जाये जिसे किसी भी सरकार ने फिर से बनाने का प्रयास नहीं किया है। जबकि असम के दक्षिण करीमगंज में बिनोदिनी ग्राम पंचायत के निवासी पिछले 65 वर्षों से गुलचरा नदी पर एक पुल की मांग कर रहे हैं, और अब अपना धैर्य खो चुके हैं। और देश में यह तब है जब केंद्रीय मंत्री पीयूष गोयल प्रधान मंत्री ग्राम सड़क योजना के तहत ग्रामीण सड़कों के निर्माण को तीन गुना करने में गर्व महसूस करते हैं। 

उत्तर प्रदेश में, दलेलपुर गांव के 250 निवासियों ने चुनावों का बहिष्कार करने का फैसला किया है, क्योंकि उनके घरों में बिजली नहीं है । ओडिशा में बंगीरिपोसी विधानसभा क्षेत्र के एक आदिवासी गांव चौकी के लोगों ने भी इसी तरह के कारणों से आगामी चुनावों का बहिष्कार करने का फैसला किया है।

जहां सरकारी आंकड़ों के अनुसार, 26।02 मिलियन से अधिक परिवारों को सौभाग्य योजना के तहत बिजली कनेक्शन मिल चुका है, लेकिन मोरी-पुरोला क्षेत्र के 40 गांवों में लोग आज भी अंधेरे में रहने को मजबूर हैं। उन्होंने भी अपनी नाराजगी व्यक्त करने के लिए मतदान नहीं करने का फैसला किया है। दुखी किसान, व्यथित आदिवासी भारतीय किसान संघ ने  2019 के लोकसभा चुनावों में भाजपा के उम्मीदवारों को "समुदाय के साथ विश्वासघात" करने के कारण वोट नहीं देने का फैसला किया है, जबकि ओडिशा में नवनिर्माण कृषक संगठन ने ओडिशा सरकार की उदासीनता के विरोध में चुनावों का बहिष्कार करने का फैसला किया है।

वहीं ओडिशा में बालासोर जिले के खैरा ब्लॉक में यदि अधिकारी मंडियों को खोलने और धान को खरीदने में असफल रहते हैं तो वहां के किसान आगामी आम चुनाव का बहिष्कार कर सकते हैं। अपनी उपज की खरीद की सुविधा को लेकर किसान इतने अधिक नाराज हैं कि उन्होंने अपने धान को खुले में ही छोड़ दिया है ताकि उसे कीड़े-मकोड़ों और पक्षी खा सकें। वहीं कर्नाटक और उत्तर प्रदेश में किसान अपनी जमीन के कम मुआवजे के लिए चुनावों का बहिष्कार कर रहे हैं, जिनकी जमीन विभिन्न परियोजनाओं के लिए अधिग्रहित कर ली गयी है। ऐसा ही कुछ महाराष्ट्र के यवतमाल जिले के दभड़ी में ग्रामीणों के साथ हुआ है। जहां उन्हें पिछले पांच सालों से अपनी कृषि उपज की सही कीमत नहीं मिली है। 

मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार, तमिलनाडु के कोयम्बटूर जिले के अनाईकट्टी के पास दो आदिवासी बस्तियों के मतदाता मुख्यमंत्री सौर ऊर्जा संचालित ग्रीन हाउस योजना के तहत घरों के निर्माण में तीन साल की देरी के कारण मतदान नहीं करेंगे।

शहरी भारत भी कर सकता है मतदान का बहिष्कार 

भारत के शहरी क्षेत्रों के निवासियों ने भी साफ पानी और सीवरेज सिस्टम जैसी बुनियादी सुविधाओं की कमी के कारण अपना वोट नहीं डालने का फैसला किया है। उदाहरण के लिए, चेन्नई के क्रोमपेट और पल्लावरम क्षेत्र, जिन्हें स्मार्ट सिटी परियोजना के तहत चुना गया था, कथित तौर पर पानी की कमी का सामना कर रहे हैं, लेकिन सरकार उनकी समस्या का समाधान करने के लिए अब तक कोई ठोस योजना लाने में विफल रही है। चेन्नई में एक अन्य क्षेत्र - टी नगर - कथित तौर पर अतिक्रमण और बरसाती पानी के निकासी के लिए बनाई गई नालियों के खराब रखरखाव से पीड़ित है। इसके कारण जल प्रदूषण की समस्या विकराल रूप लेती जा रही है। इसके अलावा, महाराष्ट्र के चंद्रपुर जिले में रानी हेराई नगर और महाकाली नगर स्लम पिछले 30 वर्षों से अपने विकास के लिए तरस रहा है। इन सभी क्षेत्रों के निवासी अपनी मूलभूत सुविधाओं की मांग को उजागर करने के लिए इस वर्ष मतदान का बहिष्कार कर सकते हैं।

क्या चुनाव का बहिष्कार, नागरिकों की समस्याओं का समाधान कर सकता है ?

 लोगों ने अतीत में भी इस तरह के बहिष्कार के माध्यम से राजनीतिक दलों के खिलाफ अपनी नाराजगी व्यक्त करने की कोशिश की है। जहां पिछले चुनावों में इसी तरह विकास के मुद्दों को लेकर कम से कम 12 से 14 राज्यों में इस तरह के बहिष्कार की सूचना मिली थी। निश्चित रूप से इस तरह के बहिष्कार के मामलों में पिछले कुछ वर्षों में वृद्धि हुई है, फिर भी विकास की स्थिति और मुद्दे जस के तस बने हुए हैं, जो सभी राजनैतिक दलों के सामने एक बड़ी चुनौती भी है और गले के फांस भी ।

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