Wildlife & biodiversity|Tribals

जम्मू-कश्मीर:आदिवासियों में आधे खानाबदोश

90 प्रतिशत गुज्जर आबादी बस चुकी है लेकिन बकरवाल पूरी तरह खानाबदोश हैं। सामाजिक और आर्थिक पायदान पर वे सबसे नीचे हैं। 

 
By Ishan Kukreti
Published: Saturday 18 May 2019

जम्मू और कश्मीर राज्य में अनुसूचित जनजातियों के अधिकारों के लिए वनाधिकार कानून 2006 को लागू करने के लिए आंदोलन चल रहा है। राज्य के आदिवासियों में करीब आधे खानाबदोश हैं।  राज्य में 12 अनुसूचित जनजातियां हैं। इनमें से आठ लद्दाख और बाकी की चार कश्मीर और जम्मू क्षेत्र में हैं। 2011 की जनगणना के अनुसार, राज्य की आबादी में इनकी हिस्सेदारी 14 लाख यानी करीब 11 प्रतिशत है। इनकी आबादी में करीब 90 प्रतिशत गुज्जर (करीब 9 लाख) और बकरवाल (करीब दो लाख) हैं। गुज्जर और बकरवाल के विकास के लिए बने स्टेट एडवाइजरी बोर्ड के सचिव मुख्तार अहमद चौधरी बताते हैं कि 90 प्रतिशत गुज्जर आबादी बस चुकी है लेकिन बकरवाल पूरी तरह खानाबदोश हैं। सामाजिक और आर्थिक पायदान पर वे सबसे नीचे हैं

आदिवासियों की समस्याओं के मद्देनजर 2014-15 में बीजेपी-पीडीपी की सरकार ने जनजातीय विभाग बनाया था। नई सरकार के स्टेट एडवाइजरी बोर्ड ने कुछ गतिविधियां शुरू कीं। इनमें से एक थी आदिवासी आबादी को क्लस्टर गांवों में बसाना। इसे फलीभूत करने के लिए एक ड्राफ्ट पॉलिसी पर काम किया गया जो बीते दिसंबर-जनवरी में बनकर तैयार हुई। पूर्व मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती इसी सिलसिले में 12 फरवरी,2019को जनजातीय मामलों के मंत्रालय गई थीं। इसके बाद राज्य के जनजातीय विभाग ने आदेश जारी कर अधिकार प्राप्त होने तक बेदखली प्रकिया पर रोक लगा दी थी। इसके तुरंत बाद जम्मू में विरोध होने लगा और आदेश वापस लेने की मांग उठने लगी। राम माधव और बार असोसिएशन ने जनजातीय विभाग के आदेश को वापस लेने की मांग का पुरजोर समर्थन किया।  

जम्मू एवं कश्मीर में गडरिया खानाबदोशों के सामने चुनौतियों महज राजनीतिक नहीं हैं। सालों से उनके अस्तित्व के साधनों पर संकट मंडरा रहा है। राज्य में स्थायी तौर बसे लोगों से उन्हें चुनौती तो मिल ही रही है, साथ ही साथ उनके अस्तित्व के लिए जरूरी चारागाह भी साल दर साल तेजी से कम हो रहे हैं। कृषि मंत्रालय के कृषि एवं सहभागिता विभाग के आर्थिक एवं सांख्यकी निदेशालय के आंकड़ों के अनुसार, इस शताब्दी की शुरुआत से 2014-15 के बीच राज्य 11,000 हेक्टेयर चारागाह खो चुका है। 2014 में जारी भारत के महालेखा परीक्षक की रिपोर्ट के अनुसार,जम्मू एवं कश्मीर राज्य भूमि कानून 2001 अथवा रोशनी कानूनी मामूली फीस के साथ सरकारी भूमि पर स्वामित्व प्रदान करता है। 2000-01 में यह योजना शुरू होने के बाद 17,000 हेक्टेयर जमीन पर निजी स्वामित्व हो गया।

वन विभाग की कार्यप्रणालियां खानाबदोश समुदायों की उपेक्षा ही करती हैं। विभाग चरवाहों को समस्या के रूप में देखता है। उदाहरण के लिए राजौरी फॉरेस्ट डिवीजन का वर्किंग प्लान (2014-15 से 2023-24) कहता है “वन क्षेत्र के इस डिवीजन में स्थायी और प्रवासी पशुओं की चराई की समस्या चिरकाल से है। इस क्षेत्र में चराई अवैज्ञानिक, अनियंत्रित और अनियमित है। इसने चीर के पुनर्जन्म को बुरी तरह प्रभावित किया है और क्षेत्र में वनस्पतियों को नुकसान पहुंचाया है।” अन्य फॉरेस्ट डिवीजन का भी कुछ ऐसा ही मानना है।

खानाबदोशों की दिक्कतें यहीं खत्म नहीं होतीं। भूमि और जल जैसे प्राकृतिक संसाधनों पर बढ़ते दबाव के चलते भी उनका स्थायी निवासियों से संघर्ष हो रहा है। पशुओं को पानी पिलाने के लिए स्थानीय जल स्रोत पर लेकर जाने पर टकराव के हालात पैदा हो रहे हैं। अगर पशु खेत में घुस जाएं तो बवाल और बढ़ जाता है। अख्तर बताते हैं “मैंने सांबा इसलिए छोड़ दिया क्योंकि वहां स्थानीय लोग पशुओं को तालाब का पानी नहीं पीने दे रहे थे।” वह अपना दर्द बताते हुए कहते हैं “ऐसे हालात में हम क्या करें? जानवरों को तो चारा चाहिए। हम जंगलों में भी नहीं जा सकते क्योंकि वह बाड़बंदी कर दी गई है और चारागाह कम होते जा रहे हैं।” 

ऐसी हालात के मद्देनजर जम्मू एवं कश्मीर के खानाबदोश अपनी पैतृक विरासत छोड़ने को मजबूर हैं। बकरवाल समुदाय की लंबी पदयात्रा आधुनिक समय में भी खत्म होने की उम्मीद नहीं है।  एक जगह बसने के विचार से अख्तर सोच में पड़ जाते हैं। उनका कहना है “हम पशुओं पर निर्भर हैं, साथ ही साथ हम थोड़ी बहुत खेती भी करते हैं। जमीन से छोटे टुकडे से हमारा गुजारा नहीं होगा। लेकिन जब उन्हें वनाधिकार कानून के तहत 4 हेक्टेयर तक जमीन के प्रावधान के साथ स्कूल और अस्पताल जैसी सुविधाओं के बारे में पता चला तो उनकी आंखें उम्मीद से चमक उठीं। सूरी के मुताबिक, खानाबदोश समुदाय को तब तक नहीं उबारा जा सकता जब तक उन्हें बसाकर शिक्षा नहीं दी जाती। उनका कहना है“गुज्जरों ने काफी सुधार कर लिया है क्योंकि उनके पास जमीन है और वे स्थायी रूप से बसकर शिक्षा प्राप्त कर रहे हैं। राज्य की प्रशासनिक सेवाओं में गुज्जर मिल जाएंगे लेकिन बकरवाल नहीं।”

सरकार ने खानाबदोशों के लिए मोबाइल स्कूल कार्यक्रम शुरू किया था। इसके पीछे विचार था कि समुदाय से एक शिक्षक नियुक्त जाए जो उनके प्रवास के दौरान साथ रहे। सूरी के अनुसार, “आतंकवाद और भ्रष्टाचार ने इस कार्यक्रम की हत्या कर दी। इसे फिर से जीवित करने की जरूरत है।”

ऐसा नहीं है कि खानाबदोश समुदाय के युवा अपने परंपरागत व्यवसाय को छोड़ना नहीं चाहते लेकिन उनके साथ कोई दूसरा रास्ता नहीं है। अपनी100 भेड़ों के झुंड के सामने खड़े 18 वर्षीय यूसुफ चौधरी बताते हैं “मैं भेड़ों को चराना छोड़ दूं तो मुझे कौन नौकरी देगा? मैं पढ़ा-लिखा नहीं हूं और जानवरों के अलावा मुझे किसी चीज की जानकारी भी नहीं है। ऐसे में जिंदगी कैसे कटेगी?”

Subscribe to Daily Newsletter :

Comments are moderated and will be published only after the site moderator’s approval. Please use a genuine email ID and provide your name. Selected comments may also be used in the ‘Letters’ section of the Down To Earth print edition.