अंग्रेजी की जगह स्थानीय भाषाओं में विज्ञान पढ़ाना कितना तार्किक और यथार्थवादी है?
इस साल जनवरी में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने स्थानीय भाषा में विज्ञान पढ़ाने और विज्ञान का संचार करने की मजबूत वकालत की। कुछ लोग इस बयान को संघ की विचारधारात्मक परियोजना के अनुरूप देख सकते हैं, जिसके तहत भारतीय दिमाग को औपनिवेशिक गुलामी से मुक्त कराने (हिंदुत्व को बढ़ावा देना) की बात की जाती है। इसे एक तरीके की बौद्धिक घर वापसी भी कह सकते हैं। लेकिन, सवाल ये है कि क्या औपनिवेशिक भाषा (अंग्रेजी) में विज्ञान सीखना राजनीतिक और सांस्कृतिक समस्या है, जबकि सभी उत्तर-औपैवेशिक समाज अभी भी इसी भाषा में विज्ञान सीख रहे हैं।
मोदी ने विस्तार से यह नहीं बताया कि क्यों स्थानीय भाषा में विज्ञान पढ़ाने का विचार एक अच्छा विचार है। लेकिन दो महीने पहले मोदी सरकार के प्रमुख वैज्ञानिक सलाहकार के. विजय राघवन ने हिंदुस्तान टाइम्स में इसके समर्थन में एक लेख लिखा। उन्होंने लिखा, “भारत में विज्ञान और प्रौद्योगिकी पर होने वाली बौद्धिक बहस के लिए एकमात्र भाषा अंग्रेजी बनाने से हम कई मोर्चों पर हार गए। सबसे पहले अपवाद को छोड़ दें, तो एक समुदाय के रूप में हमारे सर्वोत्तम संस्थान भी विश्व स्तर पर कभी नेतृत्व नहीं कर सकते हैं, यदि अंग्रेजी उच्च स्तरीय बौद्धिक बहस की एकमात्र भाषा रहती है। हमारे सर्वोत्तम दिमाग भी सिर्फ दूसरे विचारों को व्यक्त करने वाले वाकपटु ही होंगे।”
वैज्ञानिक से टेक्नोक्रेट बने राघवन की बातें विज्ञान, भाषा और किसी विशेष वैश्विक दृष्टिकोण द्वारा दिए जाने वाले तर्क के तरीकों के बीच संबंधों को लेकर एक विचार है। हम पूछ सकते हैं, जैसा कि अन्य लोग काफी समय से पूछ रहे हैं कि क्या वाकई पश्चिमी विज्ञान की तरह ही एक एलियन वैश्विक दृष्टिकोण को स्थानीय भाषा में पढ़ाया जा सकता है या इसे उसी संस्कृति की भाषाओं में सबसे अच्छा बताया जा सकता है, जिसने इसका निर्माण किया है?
अन्य विषय के मुकाबले, विज्ञान पढ़ाने के लिए आवश्यक भाषा के रूप में अंग्रेजी के प्रभुत्व की आलोचना अधिक होती है। लाखों भारतीय अंग्रेजी की कम जानकारी के कारण ग्लानि भाव में जीते हैं। निश्चित रूप से अधिकांश भाग के लिए, अंग्रेजी कुलीन बुर्जुआ की भाषा है, जो इसके साथ आने वाले सभी लाभों और शक्ति को कायम रखने का काम करती है। इस बहस की शुरुआत 19वीं शताब्दी से होती है। एंगलिसिस्ट्स चाहते थे कि अंग्रेजी शिक्षा का माध्यम हो, जबकि ओरिएंटलिस्ट स्थानीय भाषाओं को शिक्षा का माध्यम बनाना चाहते थे। इसमें जीत एंगलिसिस्ट्स की हुई।
ऐतिहासिक रूप से हमारे संस्थापक औपनिवेशिक भाषा को त्यागने में असमर्थ थे। इसकी वजह ये थी कि भारत में कई भाषाएं थीं। सवाल ये था कि कौन-सी एक भाषा आधिकारिक भाषा के रूप में अंग्रेजी को प्रतिस्थापित कर सकती है। इस पर उपजे मतभेदों की वजह से यह तय नहीं हो सका। राष्ट्र भाषा के तौर पर हिंदी को स्थापित करने के प्रयासों का गैर-हिंदी भाषियों द्वारा भयंकर रूप से विरोध हुआ और ये प्रयास विफल हो गया।
1957 में भाषाई आधार पर राज्यों के बंटवारे से ये उलझन और जटिल बन गई। आखिरकार, 1968 में केंद्र और राज्य तीन-भाषा फॉर्मूले पर सहमत हुए, जो अभी भी आधिकारिक नीति है। इसमें भी तमिलनाडु शामिल नहीं है, जो हमेशा हिंदी विरोधी रहा है। हालांकि, जैसा कि कई विद्वानों ने बताया है, इस फॉर्मूले का कई बार उल्लंघन हुआ है। कुल मिलाकर ये हुआ कि अंग्रेजी और अधिक ताकतवर होती गई।
1991 के बाद, जब भारत ने अपनी अर्थव्यवस्था का द्वार खोला, अंग्रेजी ने खुद को एक हथियार के रूप में पेश करना शुरू कर दिया। अंग्रेजी का आकर्षण ये है कि रिक्शावाला और घरेलू काम करने वाली नौकरानी, जैसा वर्ग भी अपने बच्चों को अंग्रेजी माध्यम के विद्यालयों में पढ़ाना चाहते हैं। जाहिर है, ज्यादातर के लिए अंग्रेजी एक बेहतर जीवन के लिए आवश्यक है। उदाहरण के लिए अपेक्षाकृत एक गरीब राज्य उत्तर प्रदेश की स्थिति को ही देखिए। 2002 से 2015 के बीच, राज्य में, 1.7 मिलियन छात्रों ने सरकारी प्राथमिक स्कूलों में दाखिला लिया। इसी दौरान ग्रामीण प्राइवेट स्कूल जो खुद को अंग्रेजी-माध्यम होने का दावा करते हैं, में 11 मिलियन से अधिक बच्चे आए। यह एक राष्ट्रीय रुझान भी है।
ऐसे स्कूलों की अंग्रेजी और स्थानीय भाषा की खिचड़ी तब और खराब हो जाती है जब विज्ञान और गणित पढ़ाने की बात आती है। अधिकांश सरकारी प्राथमिक विद्यालय, यहां तक कि शहरों में भी, अभी भी स्थानीय भाषा में ही विज्ञान और गणित पढ़ाते हैं। उनमें से आगे कुछ अंग्रेजी माध्यमिक विद्यालय में जाते हैं, जबकि कुछ अन्य 12वीं कक्षा तक स्थानीय भाषा में ही पढ़ाई करते हैं। दूसरी ओर सभी केंद्रीय कॉलेज और विश्वविद्यालय अंग्रेजी में विज्ञान पढ़ाते हैं, जबकि कुछ राज्य के कॉलेजों में स्थानीय भाषा में अध्ययन करने का विकल्प होता है।
इस वजह से छात्रों के दिमाग में एक खास शब्दावली का निर्माण होता है और जैसे ही वे स्थानीय भाषा से अंग्रेजी की ओर जाते है, दिक्कत शुरू हो जाती है। मिसाल के तौर पर, हिंदी में मोमेंटम गति है, मॉलिक्यूल अणु है, फोटोसिंथेसिस प्रकाश संश्लेषण है और थ्योरम प्रमेय है। जब वे माध्यमिक विद्यालय और कॉलेज में प्रवेश करते हैं, तो उन्हें अंग्रेजी शब्दों में सबकुछ पढ़ना होता है।
यह अंग्रेजी भाषा में पढ़े और स्थानीय भाषा में पढ़े छात्रों के बीच एक वर्ग का विभाजन करता है। यह सब विरोध करने के लिए काफी हो सकता है। लेकिन ब्रिटिश भाषाविद डेविड गद्डोल जैसे विद्वानों के लिए, प्राथमिक छात्रों को अंग्रेजी में विज्ञान और गणित पढ़ाना एक बुरा विचार है। अपनी पुस्तक इंग्लिश नेक्स्ट इंडिया में उन्होंने तर्क दिया है कि इससे कम शिक्षित छात्रों की संख्या बढ़ेगी, जो न तो अंग्रेजी में और न ही विज्ञान में अच्छे होंगे। उनका मानना है कि अंग्रेजी में निर्देश देने का काम केवल माध्यमिक स्तर पर ही शुरू होना चाहिए।
यूनेस्को और विश्व बैंक के अध्ययनों से उत्साहित, नाइजीरिया और दक्षिण अफ्रीका जैसे बहुभाषी देश मातृभाषा में ही प्राथमिक स्कूल के छात्रों को विज्ञान और गणित की शिक्षा देने का प्रयोग कर रहे हैं। हालांकि, संदेहवादी मानते हैं कि ये विचार भले ही प्रशंसनीय है, लेकिन भाषाओं की विविधता (भारत में 1500 से अधिक भाषाएं है जबकि नाइजीरिया में 500 से अधिक) की चुनौती बनी रहेगी। स्थानीय भाषाओं में वैज्ञानिक शब्दों का अनुवाद करना सबसे कठिन कार्य है। फिर शिक्षकों की एक पूरी नई फौज को प्रशिक्षण देना और सिर्फ एक स्थानीय भाषा में विज्ञान पढ़ाना असंभव है। पलायन के कारण जनसांख्यिकी बदलाव इस समस्या को और भी बढ़ा देता है। ये सब आलोचना के बिंदु हो सकते हैं, क्योंकि स्थानीय भाषा में विज्ञान और गणित पढ़ाने का काम ज्यादातर उन देशों में सफल रहा है, जहां एक भाषा बोली जाती है, जैसे, चीन, जापान और कोरिया।
सच्चाई यह है कि अंग्रेजी, समकालीन विज्ञान पर हावी है। कोरियाई, पुर्तगाली और जापानी जैसे कुछ अपवादों को छोड़कर, वैज्ञानिक साहित्य का 80 प्रतिशत से अधिक काम अंग्रेजी में ही है। हालांकि, ये हालात एक सदी पहले तक नहीं थे। तब पश्चिम में विज्ञान केवल अंग्रेजी में नहीं, बल्कि फ्रेंच, जर्मन, इतालवी और रूसी जैसी अन्य भाषाओं में भी पढ़ाया जाता था। और यदि हम दो शताब्दी और पीछे जाएं, तो लैटिन विज्ञान की पसंदीदा भाषा थी। लेकिन वैज्ञानिकों ने अपनी मातृभाषा में भी किताबें प्रकाशित की। न्यूटन ने लैटिन में प्रिंसिपिया प्रकाशित किया, जबकि अंग्रेजी में ऑप्टिक्स प्रकाशित किया।
द्वितीय विश्व युद्ध के बाद जर्मन विज्ञान का क्षरण, वैज्ञानिक अनुसंधानकर्ता के रूप में अमेरिका का उदय और शीतयुद्ध की लंबी छाया, इन सबने विज्ञान की प्रतिष्ठित भाषा के रूप में अंग्रेजी को स्थापित किया। चीन ने भी अपने स्कूलों में अंग्रेजी अनिवार्य बना दिया है, जो इसकी निर्विवाद सर्वोच्चता का सबूत है। तो कोई कैसे इस जटिलता से बाहर निकल सकता है?
विजय राघवन एक संभावित तरीका बताते हैं। उनके मुताबिक, किंडरगार्टेन (केजी) से ही बच्चों को स्थानीय भाषा में पढ़ाया जाए, लेकिन अंग्रेजी को भी अस्वीकार न किया जाए। उनका दावा है कि इस तरह, हम बच्चों को द्विभाषी बनाएंगे, जो न केवल अपनी मातृभाषा में विज्ञान के बारे में सीखेंगे और सोचेंगे, बल्कि अंग्रेजी शब्दों से भी परिचित होंगे। यह तरीका काम कर सकता है। लेकिन बड़ा सवाल यह है कि क्या सरकारें इसे व्यवहारिक बनाने के लिए राजनीतिक इच्छाशक्ति दिखा पाएंगी? सिर्फ एक अच्छी सोच से क्या ये सब संभव हो सकेगा?
(इस कॉलम में विज्ञान और पर्यावरण की आधुनिक गुत्थियों को सुलझाने का प्रयास है)
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