चश्मा पहनते ही उनके आसपास धक्का-मुक्की करती भीड़ सलीके से चलने लगी थी। सड़कों पर बेतरतीब गाड़ियों का हुजूम जाने कहां गायब हो गया था
चचा प्रिंटो गुस्से से तमतमाए थे और इसमें कोई नई बात नहीं थी। मोहल्ले के लोगो ने जब भी देखा, चचा अच्छन को किसी न किसी बात पर कुनमुनाते-भुनभुनाते या गुस्साते देखा था। ऐसे में जाने कब उनका नाम मोहल्ले के कुछ शरारती बच्चों ने अच्छन से अलबर्ट प्रिंटो रख दिया था।
अब हालात ये थे कि वह कहीं दिख जाते तो बच्चे चीखते “अलबर्ट प्रिंटो को गुस्सा क्यों आता है?”
चचा अच्छन उन बच्चों के पीछे दौड़ते, उनको बुरा-भला कहते और धीरे-धीरे उनका नाम ही अलबर्ट प्रिंटो पड़ गया।
कभी चचा अच्छन, सड़क खुदाई करते जल विभाग या बिजली विभाग के मजदूरों को कोसते पाए जाते कि “खोद डालो! खोद डालो जाहिलों। अब इस पूरे इलाके की बची-खुची एक अदद पक्की सड़क का सीना भी चीर डालो, क्या पता तुम्हें कोई अलीबाबा का खजाना ही मिल जाए। हम मोहल्लेवाले तो धूल फांकने के आदी हो ही गए हैं, बाकी कभी कोई खजाना मिल जाये तो चवन्नी-अठन्नी हमें भी टिका देना।”
हाल ही में चचा के साथ कुछ ज्यादा ही बुरा हुआ। कहते हैं कि इस पहली तारीख को चचा बाजार की ओर गए थे कि अचानक एक आदमी उनके पास आया। उसने अपने हाथों में कुछ छुपाकर रखा था। देखने में ऐसा लग रहा था कि उस आदमी ने कोई कबूतर –बटेर पकड़ा हुआ है। उसने फुसफुसा कर कहा,“चचा! जादुई चश्मा खरीदोगे?”
चचा बिफर पड़े, “अबे ओये नामाकूल, जाहिल मुझे देखकर क्या तुझे लगता है कि इस उम्र में मैं तेरे इस जादुई चश्मे को खरीदूंगा, जिसको पहनने से लोगों को बिना कपड़ों में देखा जा सकेगा? दफा हो जा”।
सकपकाए चेहेरे से उस आदमी ने कहा, “अरे चचा आप गलत समझ रहे हो। इस जादुई चश्मे से आप चीजों को वैसा देखने लगोगे जैसी कि उन्हें होनी चाहिए। मेरी बात पर भरोसा नहीं हो तो इसे एक बार पहन कर देख लो।”
चचा को यह कुछ अजीब लगा, फिर भी उन्होंने अपनी ऐनक उतारी और उस चश्मे को पहना। चश्मा लगाते ही उनके आसपास धक्का-मुक्की करती भीड़ सलीके से चलने लगी थी। सड़कों पर बेतरतीब गाड़ियों का हुजूम जाने कहां गायब हो गया था। इमारतों पर पड़े पान के पीक के दाग, सड़क पर इधर-उधर फैले कचरे और उसकी बू भी गायब थी और अलबत्ता कि बाजार के पेशाबखाने की वह बू भी हट गई थी जिसके चलते यहां पर आना दुश्वार था। चारों ओर जाने कहां से बड़े-बड़े पेड़ उग आये थे। पूरी जगह किसी चित्रकार की पेंटिंग जैसी खूबसूरत हो गई थी। उन्होंने जल्दी से अपने चश्मे को उतरा तो पूरा मंजर फिर पहले जैसा हो गया। ट्रैफिक की पों-पों, धक्का-मुक्की, सड़क की धूल और पेशाबखाने की बदबू से हवा फिर से बोझिल हो गई थी।
चचा को चश्मा पसंद आया और उन्होंने उसे खरीद लिया। अपने मोहल्ले में घुसते ही उन्होंने फिर से जादुई चश्मा पहन लिया। यह क्या उनकी गली चमचमा रही थी। गंदी बजबजाती नालियां ढक गई थीं, खुले में कूड़े का ढेर भी गायब था। मकान बेतरतीब न होकर करीने से लगे थे। मकानों के बीच खुली जगह थी, और तो और कतारों में लगे पेड़ों से सजा उनका मोहल्ला अब उनका नहीं लग रहा था। पर ज्यों ही उन्होंने चश्मा उतारा, पूरा मंजर फिर से पहले जैसा हो गया। चचा एकबार चश्मे को पहनते और दूसरी बार उतार देते।
अचानक कोई पीछे से चीखा, “अलबर्ट प्रिंटो को गुस्सा क्यों आता है?”
किसी दूसरी आवाज ने उसका जवाब दिया, “क्योंकि अलबर्ट प्रिंटो को किसी ने आज पहली अप्रैल को जादुई चश्मा बेचकर अप्रैल फूल बनाया है।”
चचा अच्छन उर्फ अलबर्ट प्रिंटो तब से तमतमाए हुए गुस्से में लाल-पीला हुए घूम रहे हैं, क्योंकि उनको बेवकूफ तो बनाया ही गया है, पर वह यह नहीं तय कर पा रहे थे कि उनको चश्मे वाले ने बेवकूफ बनाया है या इस व्यवस्था ने...
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