Climate Change

एक बार फिर, अमेरिका वैश्विक जलवायु समझौते से दूर

अमेरिका ने क्योटो प्रोटोकॉल की तरह पेरिस समझौते साथ भी सलूक किया 

 
By Chandra Bhushan
Published: Friday 02 June 2017

जलवायु वार्ता के इतिहास में दूसरी बार अमेरिका वैश्विक समझौते से दूर चला गया है। पहले उसने क्योटो प्रोटोकॉल के साथ ऐसा किया और अब पेरिस समझौते के साथ। आज जब डोनल्ड ट्रंप ने पेरिस समझौते से हटने का निर्णय करने की घोषणा की तो वास्तव में उन्होंने जलवायु परिवर्तन विरोधी नीतियों को औपचारिक रूप से कुछ भी नहीं किया क्योंकि इसका पिछले कुछ महीनों से प्रचार कर रहे थे। इस साल मार्च में ट्रंप ने 'ऊर्जा स्वतंत्रता और आर्थिक विकास को बढ़ावा देने' पर एक व्यापक कार्यकारी आदेश पर हस्ताक्षर किए। यह आदेश संघीय भूमि पर कोयला खनन को बढ़ावा देता है, किसी भी नियम या कार्रवाई रद्द करने, उसमें संशोधन करने या रद्द करने, घरेलू जीवाश्म ईंधन संसाधनों के विकास पर बोझ डाल सकता है, बिजली क्षेत्र से कार्बन प्रदूषण मानकों को रद्द कर सकता है और स्वच्छ ऊर्जा योजना के कार्यान्वयन को रोक देता है।

आज की घोषणा से पहले ट्रंप ने अमेरिका में जीवाश्म ईंधन की खपत और ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को कम करने के लिए ओबामा प्रशासन द्वारा शुरू की गई नीतियों अनिवार्य रूप से पहले ही खत्म कर दिया था।   

आदेश से पहले अपने पहले संघीय बजट में ही ट्रंप प्रशासन ने घरेलू जीएचजी उत्सर्जन को कम करने और जलवायु का अध्ययन करने के लिए वैज्ञानिक मिशन से संबंधित अधिकांश कार्यक्रमों को रद्द कर दिया था। सबसे महत्वपूर्ण बात ट्रंप ने ग्रीन क्लाइमेट फंड (जीसीएफ) समेत ग्लोबल क्लाइमेट चेंज इनिशिएटिव को निधि देने से इनकार कर दिया। जीसीएफ को विकासशील देशों को जलवायु परिवर्तन के अनुकूल बनाने और कम कार्बन प्रौद्योगिकियों में जाने में मदद करने के लिए  स्थापित किया गया है। पेरिस समझौते की प्रमुख विशेषताओं में से एक विकासशील देशों को वित्तीय सहायता प्रदान करने के लिए अमेरिका जैसे देशों की प्रतिबद्धता। जीसीएफ और अन्य अंतर्राष्ट्रीय जलवायु परिवर्तन से संबंधित पहलुओं को रद्द करने के साथ ट्रंप यूएनएफसीसीसी और पेरिस समझौते के प्रति अपनी प्रतिबद्धताओं से मुकर गए थे।

कायदे से देखा जाए तो ट्रंप के आज के निर्णय से पेरिस समझौते की औपचारिक रूप से मौत हो गई है। इस फैसले से ट्रंप ने मूल रूप से पेरिस समझौते को कमजोर कर दिया और साथ ही समझौते के चरित्र को बदल दिया। वास्तव में पेरिस समझौते अमेरिका द्वारा डिज़ाइन और पुश किया गया था। इस संबंध में अमेरिका पूरी जिम्मेदारी नहीं लेना चाहता था और न ही  उसकी जलवायु समस्या को सुलझाने में किसी प्रकार की रुचि थी।

अमेरिका क्योटो से दूर चला गया था, क्योंकि उसने कहा है कि चीन और भारत जैसे देशों उत्सर्जन को कम नहीं कर रहे हैं और इसलिए वह दोषपूर्ण प्रोटोकॉल में शामिल नहीं हुआ। इसीलिए पेरिस समझौते में अमेरिका की भागीदारी को सुनिश्चित करने के लिए पहली बार सभी 194 देशों ने उत्सर्जन में कमी का वादा किया, भले ही इन देशों के अधिकांश ने जलवायु परिवर्तन में योगदान नहीं दिया।

जैसा कि ओबामा प्रशासन नहीं चाहता था कि अमेरिकी सीनेट को पेरिस समझौते को मंजूरी मिल सके, इस समझौते को स्वैच्छिक, गैर-कानूनी रूप से बाध्यकारी और गैर-दंडात्मक बनाया गया था।

वास्तव में पेरिस समझौते अमेरिका द्वारा, अमेरिका के लिए था।  फिर भी अमेरिका इस समझौते से दूर चला गया। अमेरिका यह कदम  शेष 194 देशों के चेहरे पर एक जोरदार तमाचा है।

आगे क्या

जलवायु परिवर्तन के लिए अमेरिका ऐतिहासिक रूप से सबसे बड़ा योगदानकर्ता है, उसका वातावरण में कार्बन स्टॉक का 21 प्रतिशत हिस्सा है। यह वर्तमान में दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा प्रदूषण फैलाने वाला देश है और सबसे ज्यादा प्रति व्यक्ति उत्सर्जन में से एक है। यूएस के बिजली क्षेत्र अकेले 2015 में दो बिलियन टन से अधिक कार्बन डाई आक्साइड उत्सर्जन करने के लिए जिम्मेदार था, यह भारत के कुल उत्सर्जन के बराबर है। अर्थव्यवस्था को कार्बन बजट ने जीवाश्म ईंधन आधारित होने की संभावना को पहले ही समाप्त कर दिया है। अमेरिकी उत्सर्जन के अपने हिस्से को कम करने की ज़िम्मेदारी लेने के कारण दुनिया 2 डिग्री सेल्सियस से नीचे ताममान को नहीं रख सकती है, ध्यान रहे कि यह पेरिस समझौते का प्रमुख उद्देश्य है।

कई टिप्पणीकारों ने विशेष रूप से अमेरिकी टिप्पणीकारों ने यह संकेत दिया है कि अन्य देशों को आगे बढ़ना चाहिए और अमेरिका द्वारा छोड़े गए बोझ को मिलकर साझा करना चाहिए। यह न केवल अनुचित है बल्कि नैतिक रूप से प्रतिकूल है। ऐसा करने से  विश्व में अमेरिका अपना गलत व्यवहार जारी रखेगा।

यह स्पष्ट है कि अब नई परिस्थितियों में यूरोपीय संघ के राष्ट्र और चीन व भारत जैसे विकासशील देशों द्वारा पेरिस समझौते के तहत किए गए अपनी प्रितबद्धताओं के लिए बहुत कुछ करना होगा। लेकिन फिर भी यह ग्लोबल वार्मिंग को नियंत्रण में रखने के लिए पर्याप्त नहीं होगा। दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था अमेरिका में उत्सर्जन कटौती के बिना- हम जलवायु परिवर्तन से निपटने में सक्षम नहीं हैं। इसलिए पेरिस समझौते के लिए शेष 194 हस्ताक्षरकर्ताओं को अपने स्वामित्व के लिए अमेरिका को जवाबदेह रखने के तरीके ढूंढना होगा।

एक समय था जब दुनिया भर में जलवायु से संबंधित प्रभावों की आवृत्ति और परिणाम दोनों में एक चौंकाने वाली वृद्धि हुई है, जलवायु परिवर्तन के लिए अब अधिक ठोस प्रयासों की आवश्यकता है। इसलिए अब सभी देशों को एक साथ बैठना होगा।  

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