वैज्ञानिकों ने वर्ष 2013 की केदारनाथ आपदा के बाद वहां पाए गए वनस्पति के अवशेषों के अध्ययन से भारतीय मानसून की आठ हजार साल पुरानी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि का पता लगाया है।
सारा इकबाल
भारतीय वैज्ञानिकों ने वर्ष 2013 की केदारनाथ आपदा के बाद वहां पाए गए वनस्पति के अवशेषों के अध्ययन से भारतीय मानसून की आठ हजार साल पुरानी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि का पता लगाया है। इसकी मदद से भारतीय मानसून को नियंत्रित करने वाले कई नए तथ्य उजागर हो सकते हैं।
केदारनाथ मंदिर से कुछ दूरी पर ग्लेशियर की तलछट पर पाए गए पांच मीटर मोटाई के वनस्पति अवशेष (पांस) के टीले का अध्ययन करने के बाद शोधकर्ता इस नतीजे पर पहुंचे हैं। अध्ययन के दौरान पांस के 129 नमूने एकत्र किए गए थे और फिर उसमें मौजूद चुंबकीय खनिज पदार्थों, चौड़े पत्तों वाले पौधों के पराग और स्थायी कार्बन एवं नाइट्रोजन आइसोटोप की मात्रा का विश्लेषण किया गया है।
अध्ययनकर्ताओं में शामिल वाडिया इंस्टीट्यूट ऑफ हिमालयन जियोलॉजी से जुड़े प्रदीप श्रीवास्तव ने इंडिया साइंस वायर को बताया कि “वानस्पतिक इतिहास की पड़ताल से तत्कालीन जलवायु दशाओं का अनुमान लगाया जा सकता है। जैसे- जलवायु अत्यधिक गर्म और नमी युक्त होती है तो संबंधित क्षेत्र में चौड़े पत्तों वाले पौधे बढ़ने लगते हैं। ऐसे में प्रकाश संश्लेषण को भी बढ़ावा मिलता है और मिट्टी में रोगाणु सक्रिय हो जाते हैं। इसलिए पौधों में कार्बन स्थिरीकरण एवं मिट्टी में नाइट्रोजन स्थिरीकरण में मदद मिलती है। इसके विपरीत ठंडी एवं शुष्क जलवायु होने पर चट्टानें बर्फ के जमाव और विगलन के चक्र से गुजरती हैं और घाटियों का निर्माण करने वाली खनिज युक्त पांस की ओर खिसकने लगती हैं।”
इन मापदंडों के आधार पर किए गए इस ताजा अध्ययन में इस क्षेत्र के जलवायु चक्र से जुड़े आठ हजार साल पुराने से तथ्य सामने आए हैं। श्रीवास्तव ने वर्ष 2010 में दस हजार साल पुराने ग्लेशियर की डेटिंग की थी। उनके मुताबिक, केदारनाथ में पाए गए अवशेषों की उम्र इससे कम है। वैज्ञानिकों के अनुसार, यह कालखंड इन्सानी बस्तियों की बसावट और मानवीय गतिविधियों के विस्तार के लिहाज से काफी अहम माना जाता है।
श्रीवास्तव के अनुसार “केदारनाथ उत्तर में मानसून की परिधि के अंतिम छोर पर है और दुनिया भर में होने वाले सूक्ष्म मौसमी परिवर्तन इस क्षेत्र में वर्षा के क्रम को प्रभावित करते हैं। अध्ययन से प्राप्त आंकड़ों में मध्यकालीन जलवायु विषमता एवं लघु हिमयुग समेत उन सभी प्रमुख ऐतिहासिक घटनाओं के प्रमाण मिले हैं, जिन्हें वर्षों पहले दर्ज किया गया था।”
इन बदलावों के लिए जिम्मेदार कारणों का पता लगाने के लिए अध्ययनकर्ताओं ने अपने अध्ययन की तुलना अन्य मौसमी प्रणालियों से की है, जिससे कई अहम तथ्य सामने आए हैं। आमतौर पर माना जाता है कि अल नीनो भारतीय मानसून को प्रभावित करता है। लेकिन इस अध्ययन से पता चला है कि अल नीनो के अलावा उत्तरी अटलांटिक तंत्र भी भारतीय मानसून को प्रभावित करता है। वैज्ञानिकों के अनुसार उत्तरी अटलांटिक में तापमान बढ़ता है तो भारतीय मानसून भी तीव्र होने लगता है।
अध्ययनकर्ताओं की टीम में प्रदीप श्रीवास्तव के अलावा वाडिया इंस्टीट्यूट ऑफ हिमालयन जियोलॉजी के पी. बिष्ट, नरेंद्र मीणा, आर. जयनगोंडापेरुमल शामिल थे। चार अन्य संस्थानों के सदस्य भी अध्ययन में शामिल थे। लखनऊ स्थित बीरबल साहनी पुरा-विज्ञान संस्थान के शोधकर्ता राजेश अग्निहोत्री एवं अंजू सक्सेना, गढ़वाल स्थित हेमवती नंदन बहुगुणा विश्वविद्यालय के शोधकर्ता दीप्ति शर्मा, वाई.पी. सुंदरियाल एवं एन. राणा, अहमदाबाद स्थित फिजिकल रिसर्च लैब से जुड़े रविभूषण एवं उपासना बैनर्जी और नेशनल फिजिकल लैब-दिल्ली से जुड़े शोधकर्ता आर. सवलानी एवं सी. शर्मा भी अध्ययन में शामिल थे। यह अध्ययन हाल में साइंटिफिक रिपोर्टस जर्नल में प्रकाशित किया गया है।
(इंडिया साइंस वायर)
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