पार्बती-II परियोजना में पर्यावरणीय नियमों की अनदेखी ने भू-स्खलन की आशंका कई गुना बढ़ाई
13 अप्रैल की शाम जब पृथ्वी सिंह पहाड़ी पर बने अपने घर में सोने की कोशिश में थे तभी उन्हें एक जोरदार धमाका सुनाई दिया। उन्होंने देखा कि घर की छत में दरार पड़ गई है और छत से पानी टपक रहा है। पृथ्वी सिंह अपनी पत्नी और दोनों बच्चों के साथ भागकर घर के बाहर आ गए। उन्होंने सारी रात सड़क के किनारे गुजारी। उसी शाम हिमाचल के कुल्लू जिले के भेबल गांव के 6 अन्य घरों मे भी दरारें आई।
ये दरारें प्राकृतिक रूप से आने वाले भूकंप की वजह से नहीं थीं बल्कि इसका कारण पिछले दिनों 800 मेगावाट की पनबिजली परियोजना पार्बती -II के परीक्षण के दौरान सुरंग के हेड रेस टनल (एचआरटी) से पानी का रिसाव शुरू होना था। 30 किलोमीटर से अधिक लंबी एचआरटी सुरंग, बांध के बिजलीघर को पानी पहंुचाने वाली भारत की सबसे लंबी सुरंग है। इस एचआरटी सुरंग के जरिये बांध के पानी को बिजलीघर तक पहुंचाया जाता है। यह बिजलीघर पुल्गा और सुंड गांवों के पास स्थित है। इस सुरंग में ब्यास की सहायक नदी पार्वती और पांच अन्य बारहमासी नदियों से पानी आता है। अधिकारियों द्वारा जीवा नाला से पानी छोड़े जाने के बाद बिजलीघर के पास सुरंग के अंतिम छोड़ से पानी का रिसाव शुरू हो गया। रिसाव क्षेत्र में भेबल की पहाड़ियों पर पांच सौ मीटर की दरार से पानी की पतली धाराएं निकलती दिखाई देने लगीं। चूंकि पहाड़ से बहने वाली धाराएं निचले हिस्सों से अलग-अलग बिंदुओं से बाहर आती हैं, इसलिए भू-स्खलन को लेकर अभी भी अनिश्चितता की स्थिति बनी हुई है। रायला पंचायत के भेबल सहित 14 गांव अब भू-स्खलन के खतरे का सामना
कर रहे हैं।
धीमी प्रतिक्रिया
रायला पंचायत के ग्रामीणों की शिकायत है कि रिसाव के बावजूद 4-5 दिनों तक लगातार परीक्षण जारी रहा। लेकिन कुल्लू के अतिरिक्त उपायुक्त राकेश शर्मा के अनुसार सुरंग से हो रहे रिसाव को दो दिन बाद ही बंद कर दिया गया था। ग्रामीणों के बयानों को एक हद तक सही माना जा सकता है क्योंकि राष्ट्रीय पनबिजली निगम द्वारा मीडिया को दी गई जानकारी के अनुसार केवल 17 अप्रैल को पानी की आपूर्ति बंद की गई थी। एनएचपीसी की माने तो पानी टपकने और दरार आने की घटनाएं आम हैं, इसलिए परीक्षण जारी रहता है। एनएचपीसी के एक वरिष्ठ अधिकारी मानशी आशर ने डाउन टू अर्थ को बताया कि हिमाचल प्रदेश में अधिकांश पनबिजली परियोजनाएं सुरक्षित नहीं हैं। इस मामले में एनएचपीसी ने सिर्फ एक धारा से पानी छोड़ा था, जो कि सुरंग के अंदर जाने वाले कुल पानी का महज 20 प्रतिशत भी नहीं है।
यदि अतीत में झांका जाए तो राज्य में पनबिजली परियोजनाओं के संदर्भ में आशर का कथन इसकी पुष्टि करता है। पिछले पांच वर्षों के दौरान पनबिजली परियोजनाओं की वजह से 10 बड़ी दुर्घटनाएं हो चुकी हैं, जिससे 100 परिवार विस्थापित हुए हैं और करीब 25 लोग मारे गए हैं। यहां तक कि वर्ष 2004-05 में और 2007 में जब पार्बती-II परियोजना के तहत सुंड में बिजलीघर का निर्माण किया जा रहा था, तब भू-स्खलन के कारण पूरा निर्माण मिट्टी में दब गया था। 2008 में भी सुरंग खोदने वाली मशीन निर्माणाधीन सुरंग के गिर जाने के कारण पहाड़ों में दफन हो गई थी।
गलत आकलन
डाउन टू अर्थ से बात करते हुए एनएचपीसी के एक वरिष्ठ अधिकारी ने बताया कि पार्वती-II परियोजना क्षेत्र में आने वाले पहाड़ सुरंग खुदाई के दौरान अस्थिर हो जाते हैं। यहां तक कि एचआरटी क्षेत्र की परियोजनाओं में आ रही समस्याओं के लिए केन्द्रीय बिजली प्राधिकरण द्वारा 2005 में पेश की गई रिपोर्ट में भी खराब भू-विज्ञान को इसका दोषी माना गया है। यह प्रश्न अनुत्तरित ही है कि इस जगह का चयन क्यों किया गया। केन्द्रीय बिजली मंत्रालय के वर्ष 2012-13 की रिपोर्ट में माना गया है कि परियोजना के पूरा होने में हुई आठ साल की देरी का एक कारण परियोजना के लिए आवश्यक भूमि का गलत मूल्यांकन भी था। इस परियोजना की अनुमानित लागत 3,919 करोड़ रुपए और पूरा होने की मियाद वर्ष 2009-10 थी। सीईए के 2016 के नवीनतम रिपोर्ट के अनुसार नई मियाद 2018-19 रखी गई है और इसकी लागत को बढ़ाकर 8,398 करोड़ कर दिया गया है।
पार्बती-II के मामले में परियोजना को पर्यावरण संबंधी मंजूरी देते समय केंद्र सरकार द्वारा जारी संदर्भ या नियामक दिशानिर्देशों की अनदेखी की गई। यह भी इस क्षेत्र में भू-स्खलन के खतरे का कारण बना। उदाहरण के लिए पर्यावरण को नुकसान नहीं हो इसके लिए “क्षेत्र के उपचार” के दिशानिर्देश जारी किये गए हैं। एनएचपीसी ने डंपिंग साइट पर कुछ लापरवाही से वृक्षारोपण किया है और इसके लिए राॅबिनिया का पेड़ चुना। रायला निवासी मोतीराम कटवाल की शिकायत है कि यह प्रजाति न तो मिट्टी को पकड़ सकती है और न ही इससे चारा प्राप्त हो सकता है।
दिशानिर्देशों में पहाड़ों से होकर सुरंग निर्माण के लिए विस्फोट करने पर रोक लगाई गई है। परियोजना के निर्माण के दौरान इस नियम का भी उल्लंघन किया गया। रायला गांव के निवासी चरण सिंह ने अपने घर की दरारों की ओर इशारा करते हुए बताया कि सुरंग निर्माण के दौरान एनएचपीसी द्वारा पहाड़ों पर नियमित रूप से विस्फोट ने पूरे क्षेत्र को हिलाकर रख दिया है। इसके कारण हमारे घरों में दरारें पड़ गईं। इससे भी बदतर स्थिति सड़कों के किनारे बनाई गई नालियों की है, जो वर्षा जल को खेतों तक ले जाती हैं और गांवों के बीच से गुजरती हैं। कटवाल ने बताया कि परियोजना शुरू होने से पहले भू-स्खलन बहुत कम होते थे, लेकिन अब हर जगह पानी का वितरण करने वाली नालियों के कारण भू-स्खलन की घटनाएं कई गुणा बढ़ गई हैं।
पुनर्वास की अनिश्चितता
अब जब दरारों में पानी का प्रवाह कम हो रहा है तो भेबल गांव के छः विस्थापित परिवार अपेक्षाकृत अच्छी स्थिति में हैं। गत 15 अप्रैल को उन्हें एनएचपीसी भवन में स्थानांतरित कर दिया गया था। विस्थापित किए गए लोगों में से एक विमला देवी ने बताया, “शुरू में तो बनजार तहसील के उप-विभागीय मजिस्ट्रेट ने कहा था कि जब तक हमारे घर सुरक्षित नहीं हैं, तब तक हम यहां रह सकते हैं।” लेकिन अब उनका कहना है कि हमें वापस जाना होगा। वह कहती हैं, “इमारत में पानी के कनेक्शन और शौचालय नहीं होने के बावजूद हम वापस जाना नहीं चाहते।” विमलादेवी के अनुसार इसका एक ही समाधान है कि एनएचपीसी हमारी जमीन का अधिग्रहण करे और हमें कहीं और पुनर्वासित कर दे।
अगर ऐसा होता है तो यह पहली बार नहीं होगा। पार्बती-II के निर्माण के लिए वर्ष 2002 में भी भेबल गांव के कई परिवारों को पड़ोसी गांव में विस्थापित किया गया था। विडंबना यह है कि परियोजना की खामियों के बावजूद इस क्षेत्र के गांवों को ज्यादा फायदा नहीं हुआ है। जहां हिमाचल प्रदेश इस परियोजना से पैदा की गई कुल बिजली के मात्र एक प्रतिशत का हकदार है, वहीं यहां पैदा होने वाली बिजली दिल्ली, पंजाब, हरियाणा और उत्तर प्रदेश की बिजली की जरूरतों को पूरा करेगी। जानकर ताज्जुब होगा कि जब डाउन टू अर्थ ने रायला गांव का दौरा किया, उस समय गांव एक सप्ताह से बिजली कटौती से जूझ रहा था।
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