मेघालय के पर्वतीय इलाकों में झरनों के पानी का उपयोग सिंचाई के लिए किया जाता है। पानी को नीचे लाने के लिए बांस से बनी नालियों का सहारा लिया जाता है
बादलों की भूमि मेघालय को भौगोलिक रूप से तीन हिस्सों में बांटा जा सकता है- खासी पहाड़ियां, जयंतिया पहाड़ियां और गारो पहाड़ियां। इन पर्वतीय इलाकों में रहने वाली जनजातियों को इन्हीं नामों से जाना जाता है। लेकिन खासी और जयंतिया जनजातियों में बांग्लादेश से लगी दक्षिणी पहाड़ियों के लोगों को ’वार’ खासी और जयंतिया कहा जाता है। मेघालय में जल संग्रह का तरीका जयंतिया पहाड़ियों में खेतों में पानी जमाकर खेती करने का है, वहीं दूसरे इलाकों में बांस की नलियों से सिंचाई होती है।
नोंगबह गांवः नोंगबह गांव जयंतिया पहाड़ियों में जोवाई शहर से 15 किलोमीटर दूर स्थित है। यहां की लगभग 97 फीसदी आबादी खेती पर निर्भर है। यहां की भूमि पर मुख्य रूप से निजी मालिकाना है। बाकी जमीन सामुदायिक है, जिसपर गांव के पदाधिकारियों का नियंत्रण होता है। ऐसी जमीन को राजभूमि कहते हैं। राजभूमि में एक पवित्र बाग भी है, जहां कुछ धार्मिक कर्मकांड करने के अलावा कभी कोई नहीं जाता है।
स्थानीय लोगों के मुताबिक, इस क्षेत्र में सबसे पहले धान की खेती यहीं शुरू हुई और यह जयंतिया पहाड़ियों की अनाज की टोकरी है। धान की खेती सिंचित सीढ़ीदार खेतों में की जाती है और दूर-दूर तक पसरे सीढ़ीदार खेत सिर्फ इसी गांव में पाए जाते हैं। सिंचाई के लिए पानी का स्रोत प्राकृतिक झरने, सोते और वर्षा हैं। म्यांतांग, उतलारपांग, वासाखा, इयोंगशिरकियांग, म्यानत्वा और म्यानकेह नाम के छह झरनों के पानी को रोककर सिंचाई की जाती है। गांववालों के मुताबिक, झरनों से पानी लेने पर कोई पाबंदी नहीं है। नालियों की मरम्मत के लिए भी कोई सामुदायिक प्रयास नहीं किया जाता है और यह सब व्यक्तिगत आधार पर होता है। खेती का मौसम अप्रैल से अक्तूबर तक चलता है। जुताई के लिए मवेशियों का इस्तेमाल होता है। यहां धान की 12 किस्में उगाई जाती हैं। लेकिन गांव के बसावट वाले क्षेत्रों के पास माबा नाम की धान की फसल उगाई जाती है, जिसके लिए बेहद उपजाऊ जमीन जरूरी है। गांव के पास की जमीन ज्यादा उपजाऊ है, क्योंकि तमाम मानव और पशु अपशिष्ट धान के खेतों तक पहुंचा दिए जाते हैं। इस वजह से गांव के पास खेतों में पैदावार ज्यादा होती है।
बांस से सिंचाई
मेघालय में झरनों के पानी को रोकने और बांस की नलियों का इस्तेमाल कर सिंचाई करने की प्रणाली का खूब चलन है। यह प्रणाली इतनी कारगर है कि बांस की नलियों की प्रणाली में प्रति मिनट आने वाला 18 से 20 लीटर पानी सैकड़ों मीटर दूर तक ले जाया जाता है और आखिरकार पौधे के पास पहुंचकर उसमें से प्रति मिनट 20 से 80 बूंद पानी टपकता है। खासी और जयंतिया पहाड़ियों के जनजातीय किसान दो सौ साल से इस प्रणाली का इस्तेमाल कर रहे हैं।
बांस की नालियों से सिंचाई आम तौर पर पान के पत्ते या काली मिर्च उगाने के लिए किया जाता है। इनके पौधे मिलीजुली फसल वाले बगीचे में उगाए जाते हैं। पर्वतीय चोटियों पर बने बारहमासा झरनों का पानी बांस की नलियों से होता हुआ नीचे तक पहुंचता है। नालियों की जगह पानी बांस के बने जल मार्गों से होता हुआ विभिन्न खेतों तक पहुंचता है और पानी का रिसाव भी नहीं होता। समानांतर नलियों में जल के प्रवाह को नियंत्रित करने के लिए नलियों की स्थिति में तब्दीली की जाती है। इस प्रणाली में जल की मात्रा घटाने और उसकी दिशा बदलने के लिए भी यही तरीका अपनाया जाता है। इसका आखिरी सिरा ठीक पौधे की जड़ के पास तक जाता है और इस तरह पानी सही जगह तक पहुंच जाता है।
जल मार्ग बनाने के लिए विभिन्न व्यास के बांसों का इस्तेमाल किया जाता है। इस प्रणाली को बनाने से पहले बांस को छीलकर पतला किया जाता है। और उसके बीच में बनी गांठों को हटा दिया जाता है। उसके बाद स्थानीय कुल्हाड़े-दाव से उन्हें चिकना बनाया जाता है। उसके बाद मुख्य मार्ग से पानी को विभिन्न जगहों पर ले जाने और वितरित करने के लिए छोटी-छोटी नलियों का प्रयोग किया जाता है। नली में पानी के प्रवेश करने से लेकर उसके पौधों के पास पहुंचने तक कुल चार या पांच चरण होते हैं। भारतीय कृषि अनुसंधान केंन्द्र, नई दिल्ली के जल टेक्नोलाॅजी केंन्द्र के मुख्य विज्ञानी ए, सिंह ने अपनी किताब ‘बंबू ड्रिप एरिगेशन सिस्टम’ में लिखा है कि “एक जल मार्ग से दूसरे तक पानी का पहुंचना इस प्रणाली की मुख्य विशिष्टता है। पौधों की जड़ों के पास पानी बूंद-बूंद पहुंचे उसके लिए हर स्तर पर समझबूझ के साथ पानी के प्रवाह को मोड़ा जाता है।” ऐसा अनुमान है कि एक हेक्टेयर भूमि में ऐसी प्रणाली बनाने के लिए दो मजदूरों को 15 दिनों तक काम करना पड़ता है। वैसे यह श्रम पानी के स्रोत की दूरी और सिंचित होने वाले पौधों की संख्या पर निर्भर करता है। एक बार यह प्रणाली लग जाए तो उसके ज्यादातर सामान लंबे समय तक टिकते हैं।
मेघालय के ‘वार’ इलाकों में भी यह प्रणाली पाई जाती है, लेकिन वार खासी पहाड़ियों की तुलना में इसका ज्यादा चलन वार जयंतिया पहांिड़यों में है। बांग्लादेश से लगे मुक्तापुर इलाके में भी इसका व्यापक चलन है। इस क्षेत्र में ढलान काफी तीखी है और जमीन चटृानी है। जमीन पर नालियां बनाकर पानी को खेतों तक पहुंचाना संभव नहीं है। खेती की जमीन पर कबीलों का स्वामित्व होता है और कबीले के वरिष्ठ लोगों को किराया देकर उस पर खेती की जा सकती है। कबीले के बुजुर्गों को जमीन का यह हक है कि किसे कितनी और कैसी जमीन दी जाए। किराया चुकाए जाने के बाद जमीन खेती के लिए लीज पर दे दी जाए और उस पर पौधे लगे रहने तक लीज की अवधि बनी रहती है। पान के पत्ते की खेती के मामले में यह अवधि काफी लंबी होती है, क्योंकि एक बार पत्ते चुनने के बाद भी पौधों को उखाड़ा नहीं जाता। लेकिन जिस किसी भी वजह से अगर पौधे मर गए तो जमीन कुनबे के पास वापस आ जाती है और नए सिरे से किराया चुकाकर ही उसे फिर से लीज पर लिया जाता है।
पान के पौधों के लिए बांसों से बनी जल प्रवाह प्रणाली के माध्यम से पानी लाया जाता है। पान के पौधे मानसून से पहले मार्च में रोपे जाते हैं। सिर्फ सर्दियों में सिंचाई के पानी की जरूरत होती है और उसके लिए बांस की नलियों की प्रणाली इस्तेमाल होती है। इस वजह से सर्दियां आने से पहले ही इस प्रणाली को तैयार कर लिया जाता है और मानसून के दिनों में उनका इस्तेमाल नहीं किया जाता है।
इन जल मार्गों और उनके तालाबों की देखरेख किसान खुद करते हैं। इसके लिए एक सहकारी समिति बनाई गई है। हर किसान इस प्रणाली की देखरेख के लिए अपने श्रम और कौशल का योगदान करता है। जब कभी जरूरत पड़ती है, मरम्मत का काम कर लिया जाता है। पानी का वितरण निर्धारित समय पर एक खेत से दूसरे खेत तक पानी का प्रवाह मोड़कर किया जाता है। पानी की धारा मोड़ने के लिए मुख्य जल मार्ग के आड़े एक छोटा बांस रख दिया जाता है, जिसकी तली में छेद बना होता है। इस तरह मुख्य जल मार्ग का पानी रोक लिया जाता है। यहां आधुनिक पाइप की प्रणाली लगाने की कोशिशें हुई हैं, लेकिन किसान सिंचाई की देसी प्रणाली को ही पसंद करते हैं। नई प्रणाली को शक की निगाह से देखा जाता है। स्थानीय किसान न तो नई पाइपों पर और न ही उन्हें सप्लाई करने वाले लोगों पर भरोसा करते हैं।
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