मतदाता के रूप में सक्रिय भागीदारी निभाने वाली महिलाएं सत्ता के शिखर पर क्यों नहीं पहुंच पातीं?
भारतीय राजनीति में मतदाता के रूप में महिलाओं की बढ़ती भागीदारी के बावजूद 29 राज्यों वाले देश में आज सिर्फ एक महिला मुख्यमंत्री है। विधानसभा और संसद में महिलाओं की हिस्सेदारी बेहद धीमी गति से बढ़ रही है। मतदाता के रूप में सक्रिय भागीदारी निभाने वाली महिलाएं सत्ता के शिखर पर क्यों नहीं पहुंच पातीं? हाल ही में संपन्न विधानसभा चुनावों के बाद भारतीय राजनीति की जेंडर के तराजू पर पड़ताल करती अनिल अश्विनी शर्मा और भागीरथ की रिपोर्ट
साल 2018 के आखिर में संपन्न हुए पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों को 2019 के लोकसभा चुनावों का सेमीफाइनल कहा जा रहा था। इन चुनावों में जो एक चीज अहम रही वो है इन चुनावों का जेंडर असेसमेंट। भारतीय लोकतंत्र में स्त्री शक्ति ने कितना योगदान दिया और इसके बदले उसे कितना लाभ मिला।
इन पांचों राज्यों में महिला मतदाताओं की संख्या लगातार तीसरे चुनाव में बढ़ी है। लेकिन महिला मतदाताओं के बढ़ने का असर विधानसभा में लैंगिक अनुपात को बेहतर नहीं कर पाया। ताजा चुनावों के बाद भारत के 29 राज्यों में अब एकमात्र महिला मुख्यमंत्री है। हाल के दिनों में हुए चुनावों में महिला उम्मीदवारों के जीतने का ग्राफ लगातार नीचे की ओर गया है। महिला मतदाता चुनाव जीतने का हथियार तो हैं लेकिन राजनीतिक अगुवाई में निहत्थी।
पांच राज्यों का चुनावी गणित बता रहा है कि लोकतंत्र को बनाने में महिलाओं की भागीदारी मजबूत है लेकिन उसकी अगुवाई में बहुत कमजोर। पांच राज्यों के चुनाव में जीतने वाली महिलाओं की संख्या का प्रतिशत जहां पिछली बार 11 था, वहीं अब घटकर 9 प्रतिशत रह गया है। संघ लोकसभा आयोग की पूर्व अध्यक्ष संतोष चौधरी कहती हैं कि 34 साल पहले पंचायती राज लागू होने पर पंचायत स्तर पर तो महिला प्रतिनिधियों की संख्या बढ़ी लेकिन यह स्थिति विधायी स्तर पर नहीं है। पंचायत चुनावों में आधी आबादी के लिए आधी सीटें आरक्षण में दी जा रही हैं। क्या इससे कोई सूरत बदलेगी? पिछले रिकार्ड को देखें तो निचले स्तर पर जेंडर अनुपात संतुलित करने के लिए किए जा रहे इन विधायी उपायों का दीर्घकाल में ऊपरी स्तर पर कोई खास असर नहीं दिखा है।
नवंबर, 2018 में पांच राज्यों में हुए विधानसभा में कुल जीतने वाले विधायकों की संख्या 678 है। इनमें महिला विधायकों की संख्या 62 है। यह 2013-14 में हुए विधानसभा चुनाव के मुकाबले 15 कम है। पांचों राज्यों में जीतने वाली महिला विधायकों को देखें तो अकेले छत्तीसगढ़ में ही इनकी संख्या बढ़ी है। मिजोरम विधानसभा लगातार दूसरी बार महिला प्रतिनिधि विहीन रहेगी। जबकि इस राज्य की कुल जनसंख्या में महिलाओं की संख्या 49 प्रतिशत है। यही नहीं, इस बार के चुनाव में पांचों राज्यों में पिछले विधानसभा चुनाव के मुकाबले महिला उम्मीदवारों की संख्या अधिक थी। नर्मदा बचाओ आंदोलन की नेता मेधा पाटकर कहती हैं कि महिला मतदाताओं की संख्या तेजी से बढ़ रही है लेकिन उसी अनुपात में महिला विधायकों या सांसदों की संख्या में बढ़ोतरी नहीं हो रही है। जबकि दूसरी ओर पंचायत व स्थानीय निकाय में महिला प्रतिनिधियों की संख्या में तेजी से बढ़ोतरी हो रही है। वे जीत ही नहीं रही हैं बल्कि वे दूसरी बार भी चुनी जा रही हैं। यह उनके काम को मान्यता देता है। महिलाओं की बराबर भागीदारी के बिना स्वस्थ प्रजातंत्र नहीं हो सकता है।
पांच राज्यों में पिछले तीन विधानसभा चुनावों में महिलाओं के चुनावी मैदान में उतरने की संख्या तो बढ़ी लेकिन उसी अनुपात में उनके जीतने की संख्या में वृद्धि नहीं हुई। उदाहरण के लिए मध्य प्रदेश में इस विधानसभा चुनाव में उम्मीदवारों की संख्या 2,716 थी, इनमें महिला उम्मीदवार 235 थी। यह संख्या 2013 में 108 और 2008 में 226 के मुकाबले अधिक थी। लेकिन जीतने वाली महिला विधायकों की संख्या देखें तो वर्तमान में केवल 22 महिला उम्मीदवार ही विधानसभा पहुंच सकी हैं। जबकि 2013 में यह संख्या 30 और 2008 में 25 थी। यही स्थिति कमोबेश राजस्थान में भी विद्यमान है। राज्य में हुए विधानसभा चुनाव में इस बार कुल 2,291 उम्मीदवारों में 182 (8 प्रतिशत) महिला उम्मीदवार चुनावी मैदान में थीं। वहीं 2013 में 2030 कुल उम्मीदवारों में 152 (7 प्रतिशत) और 2008 में कुल उम्मीदवार 2,194 में महिला उम्मीदवारों की संख्या 194 (7 प्रतिशत) थी। इनमें से जीतने वाली महिला उम्मीदवारों की संख्या देखें तो 2008 में 28, 2013 में 25 और 2018 में 23 हो गई। यानी 2008 से 2018 के बीच एक दशक में महिला उम्मीदवारों की संख्या 14 से घटकर 11.5 प्रतिशत रह गई है।
महिला मतदाताओं के समर्थन से राजनीतिक दल जीत तय कर रहे हैं। पुरुषों की तुलना में निर्वाचित महिलाएं बहुत कम हैं और जो हैं भी उन्हें पुरुषों के बराबर स्वीकार्यता नहीं है। इसके बावजूद भारतीय लोकतंत्र में महिलाओं की धमक गूंज रही है। यह तय है कि महिलाएं ऐसी ताकत बनकर उभरी हैं जो दुनिया के इस सबसे बड़े लोकतंत्र की चुनावी राजनीति की परिभाषा बदल सकती हैं। इसके लिए उम्मीदजदा होने के कई कारण भी हैं।
आज महिलाएं पहले की अपेक्षा कहीं अधिक संख्या में मतदान कर रही हैं। पिछले साल दिसंबर में छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश और मिजोरम में हुए विधानसभा चुनावों में वैसे निर्वाचन क्षेत्र बड़ी संख्या में हैं जहां महिला मतदाताओं की संख्या पुरुषों से अधिक थी। छत्तीसगढ़ के कुल 90 निर्वाचन क्षेत्रों में से 24 में महिलाओं ने अधिक मतदान किया। मध्य प्रदेश की 230 सीटों में 51 निर्वाचन क्षेत्रों में महिला मतदान दर अधिक थी। 24 निर्वाचन क्षेत्र ऐसे हैं जहां महिला मतदान प्रतिशत 80 से अधिक था। मिजोरम की बात करें तो वहां महिला मतदाता पुरुषों की तुलना में अधिक संख्या (19,399 अधिक) में हैं।
मध्य प्रदेश के अतिरिक्त मुख्य निर्वाचन अधिकारी संदीप यादव बाखुशी कहते हैं, “मध्य प्रदेश का लिंग अनुपात 2013 (पिछले चुनावी वर्ष ) के 898/1000 से बढ़कर अब 2018 में 917 तक पहुंच चुका है। अधिक महिलाओं का मतलब अधिक मतदाता है और हमारे विशेष अभियान और महिलाओं के बीच उनके मताधिकारों के बारे में जागरुकता फैलाने का भी इस बढ़ी संख्या में योगदान है।” इस बार राज्य में कुल 3034 मतदान बूथ ऐसे थे जो महिलाओं द्वारा संचालित थे और यह इसी सिलसिले में एक कदम है।
छत्तीसगढ़ के चुनावों में विकास का एजेंडा अपनाए जाने और माओवादियों की धमकियों के बावजूद बस्तर क्षेत्र में हुए भारी मतदान का जश्न पूरे देश में मनाया गया है। और इसके लिए यहां की महिला मतदाताओं को सलाम तो करना ही होगा। माओवादियों की ओर से चुनाव बहिष्कार की धमकी थी। राज्य में हुए चुनावों के पहले चरण में महिला मतदाताओं की संख्या पुरुषों से अधिक थी। पहले चरण में जिन 18 सीटों पर चुनाव हुए थे उनमें से 80 प्रतिशत बस्तर में हैं। इन सभी सीटों पर महिला मतदाता की संख्या अधिक थी। पहले चरण की कुल 18 सीटों के कुल मतदाताओं में से महिलाएं 51 प्रतिशत से थोड़ा अधिक हैं जबकि पुरुषों के लिए यह आंकड़ा 48.97 का है। छत्तीसगढ़ चुनावों में भी पांच महिला बूथ थे जिनमें से तीन बस्तर क्षेत्र में हैं।
दावे हजार, पर नीयत में खोट
भारत में महिला मतदाता की संख्या 40 करोड़ से अधिक है यानी इंग्लैंड की कुल आबादी का पांच गुना। मतदाताओं के इस समूह को रिझाने में राजनीतिक दलों ने कोई कसर नहीं छोड़ी। राज्यों में हुए हालिया चुनावों में राजनैतिक दलों ने महिलाओं से जुड़े मुद्दों को जोर-शोर से उठाया। मध्य प्रदेश में खासकर महिलाओं के लिए एक घोषणापत्र पेश किया गया जो देश में पहली बार हुआ है। कई उपहारों की भी घोषणा की गई जिसमें होनहार छात्राओं को मुफ्त दोपहिया वाहन देना शामिल था। कांग्रेस ने भी अपनी सरकार बनने पर छात्राओं को रियायती दरों पर स्कूटर देने का वादा किया था। छत्तीसगढ़ की कहानी भी कुछ ऐसी ही है जहां कुछ समय पहले तक सत्तारूढ़ दल भाजपा ने रोजगार स्थापित करने की इच्छा रखने वाली महिलाओं को ब्याज मुक्त कर्ज के रूप में दो लाख और स्वयं सहायता समूहों (एसएचजी) को पांच लाख रुपए देने का वादा किया। महिलाओं को लुभाने के लिए ऐसे वादे पहले भी किए जा चुके हैं। इसकी हकीकत बयान करते हुए हरियाणा के झज्जर जिले के एसएचजी ग्रुप की प्रमुख मंजू देवी कहती हैं कि सरकार वादा तो बहुत करती है लेकिन वह अपने किए वादों को जमीन पर नहीं उतारती।
पूर्व वित्त मंत्री पी चिदंबरम ने 2013 में अपने अंतिम केंद्रीय बजट में महिलाओं के लिए एक विशेष सार्वजनिक क्षेत्र का बैंक स्थापित करने का प्रस्ताव रखा था। तत्कालीन यूपीए सरकार ने महिला सुरक्षा को लेकर निर्भया फंड बनाया। 2007 से लागू हुए जेंडर बजट प्रावधान के अंतर्गत इस सरकार ने महिलाओं से संबंधित कार्यक्रमों के लिए 97,134 करोड़ रुपए आबंटित किए। आमतौर पर शब्दों के चयन में सावधान रहने वाले चिदंबरम ने फरवरी 2013 में अपने छोटे से बजट भाषण में 22 बार ‘महिला’ शब्द का इस्तेमाल किया।
दिल्ली में जामिया मिल्लिया इस्लामिया में एसोसिएट प्रोफेसर अर्चना प्रसाद कहती हैं, “दोनों राष्ट्रीय दलों में (कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी) महिलाओं को चुनावी मुद्दा बनाने के लिए राजनीतिक स्टंट करने की होड़ मची है।” हाल के वर्षों में कई राज्यों में हुए चुनावों में पुरुषों की तुलना में अधिक महिलाओं ने मतदान किया है। पुरुषों और महिलाओं के मतदान में अंतर पिछले पांच दशकों के दौरान एक चौथाई से भी कम हो गया है। सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसाइटीज के निदेशक संजय कुमार कहते हैं, “राजनीतिक दल अब महसूस कर रहे हैं कि महिला मतदाता भी मायने रखती हैं और ये मतदाता किसी भी राजनीतिक दल के समीकरण को बदल सकती हैं। मध्य प्रदेश में अलग घोषणापत्र इसका सूचक है।”
महिलाओं ने बढ़-चढ़कर किया मतदान
देश लोकतंत्र के अपने सबसे बड़े त्योहार के लिए तैयार हो रहा है। आम चुनाव चार महीने में हैं। 2014 के चुनाव महिलाओं के मतदान के नजरिए से ऐतिहासिक थे क्योंकि उसमें कुल वैध महिला मतदाताओं में से 66.4 प्रतिशत ने अपने मताधिकार का प्रयोग किया जिसके फलस्वरूप भाजपा ने मोदी की अगुवाई में सरकार बनाई।
2004 और 2009 के चुनावों में देखे गए महिला भागीदारी के स्तर (58 प्रतिशत) से देखें तो यह एक भारी बढ़त थी। क्या यह फिर से होगा? यह प्रवृत्ति स्पष्ट हो चली है कि महिलाएं न केवल पहले की तुलना में अधिक संख्या में मतदान कर रही हैं बल्कि पुरुषों को भी पीछे छोड़ रही हैं। उदाहरण के लिए 2013 में छत्तीसगढ़ राज्य के विधानसभा चुनावों में महिला मतदाताओं की संख्या अधिक थी। चुनाव आयोग के आंकड़ों के अनुसार 77 प्रतिशत महिलाओं ने अपने मताधिकार का प्रयोग किया जबकि पुरुषों का आंकड़ा 76 प्रतिशत था। राजस्थान में भी कहानी कुछ ऐसी ही थी जहां कुल 199 सीटों पर मतदान हुआ था। इनमें से 197 में महिला मतदाताओं की संख्या अधिक थी।
2016 में तमिलनाडु के पूर्व मुख्यमंत्री एम करुणानिधि को विधानसभा चुनावों में करारी हार का सामना करना पड़ा था। हालांकि उनके अपने गृह क्षेत्र में महिलाओं ने उनके पक्ष में खुलकर मतदान किया था। नागपट्टिनम जिले के किलवेलुर विधानसभा क्षेत्र में महिला मतदाता का मतदान प्रतिशत 95.57 था, जिसे आजतक एक रिकॉर्ड के तौर पर जाना जाता है। चुनाव आयोग के आंकड़ों के मुताबिक, 2016 में केरल, पश्चिम बंगाल और पुदुचेरी में हुए चुनावों में तमिलनाडु की ही तरह पुरुषों की तुलना में अधिक महिला मतदाताओं ने भाग लिया था।
तमिलनाडु में 78 प्रतिशत महिलाओं ने अपने मताधिकार का इस्तेमाल किया। राज्य के कुल 32 जिलों में से आधे में, पुरुष मतदाताओं की संख्या महिलाओं से कम रही। पड़ोसी केरल में 140 में से 107 विधानसभा क्षेत्रों में महिला मतदाताओं ने पुरुषों से अधिक संख्या में मतदान किया। लगभग आधे क्षेत्रों में यह अंतर हजारों में था। हालांकि केरल में महिलाओं का मतदान प्रतिशत हमेशा से ही उच्च रहा है। लेकिन इस बार यह ऐतिहासिक था। 2009 के आम चुनाव की तुलना में मतदान में महिलाओं की भागीदारी 6.51 प्रतिशत बढ़ी थी जबकि कुल बढ़त 6.15 प्रतिशत की थी। इसे 2010 में बिहार विधानसभा चुनावों में देखी गई उस प्रवृत्ति की निरंतरता के तौर पर देखा जा सकता है जब चुनावी इतिहास में पहली बार पुरुषों की तुलना में अधिक महिलाओं ने वोट दिया था।
न केवल राज्यों में बल्कि आम चुनावों में भी महिला मतदाता अपनी ताकत दिखा रही हैं। 1962 में हुए तीसरे आम चुनावों में महिलाओं की भागीदारी 2014 में हुए सोलहवें आम चुनावों की तुलना में कम थी। 1962 में, केवल 46.6 प्रतिशत महिलाएं वोट देने के लिए आईं जबकि पुरुषों की भागीदारी 63.3 प्रतिशत थी। 56 वर्षों में पुरुषों ने अपनी भागीदारी 3.8 प्रतिशत बढ़ाई है जबकि महिलाओं ने अपनी भागीदारी में 19 प्रतिशत का इजाफा कर लिया है। 1962 के आम चुनाव में पुरुष और महिला मतदाताओं के बीच का अंतर 16.7 प्रतिशत था जबकि 2014 के आम चुनावों में यह केवल 1.5 प्रतिशत रह गया था। दिल्ली स्थित शोधार्थी प्रवीण राय ने देश में चुनावों में महिलाओं की भागीदारी पर नजर रखी है। उनका कहना है कि इस प्रवृत्ति को 1990 के दशक के अंत में पहली बार देखा गया था। वास्तव में ग्रामीण क्षेत्र की महिलाएं शहरी क्षेत्रों की महिलाओं से इस मामले में कहीं आगे हैं।
अशोक विश्वविद्यालय में राजनीति विज्ञान के असिस्टेंट प्रोफेसर और त्रिवेदी सेंटर फॉर पॉलिटिकल डाटा के सह-निदेशक जाइल्स वर्नियर कहते हैं, “इसका श्रेय भारत के चुनाव आयोग को जाता है।” उनका कहना है कि यह वृद्धि भारतीय निर्वाचन आयोग (ईसीआई) द्वारा बेहतर पंजीकरण और मतदाता अभियान चलाए जाने की वजह से है।
हमारे देश में चुनावों में महिलाओं की भागीदारी का इतिहास कुछ खास उत्साहजनक नहीं रहा है। बीसवीं सदी की शुरुआत तक नीति-निर्धारण में महिलाओं की हिस्सेदारी नगण्य थी। चुनावों में महिलाओं की भागीदारी की शुरुआत बीसवीं शताब्दी के शुरुआती दशकों में हुई जब भारत ब्रितानी उपनिवेशवाद के खिलाफ जंग लड़ रहा था। लोकप्रिय ‘स्वदेशी आंदोलन’ के अंतर्गत ब्रिटिश उत्पादों का बहिष्कार करने और घरेलू उत्पाद को पुनर्जीवित करने की बात की गई थी। महिलाओं ने इस आंदोलन में ऐसी गर्मजोशी से भाग लिया था कि स्वयं महात्मा गांधी को भी कहना पड़ा था, “अगर भारतीय महिलाएं उठ खड़ी होती हैं तो देश को आजादी के पथ से कोई नहीं हटा सकता।”
भारतीय स्वतंत्रता संग्राम ने महिलाओं के बीच राजनीतिक जागरुकता पैदा की और इसके फलस्वरूप महिला मताधिकार को लेकर आंदोलन खड़ा हुआ और ब्रिटिश सरकार पर दबाव पड़ा। इस दिशा में पहली मांग 1917 में रखी गई थी जब वीमेंस इंडिया एसोसिएशन की स्थापना तत्कालीन मद्रास प्रेसीडेंसी में हुई थी। इसका मुख्य उद्देश्य “सार्वजनिक जीवन में महिलाओं की भूमिका बढ़ाने के तरीके तलाश करना था”। तत्कालीन सरकार ने 1920 और 1929 के बीच हार मानकर कुछ महिलाओं को मताधिकार दिए थे।
हालांकि यह प्रकृति में संकीर्ण था और संपत्ति योग्यता के आधार पर कुछ महिलाओं तक ही सीमित था। 1935 के भारत सरकार अधिनियम ने इसे विस्तारित किया और महिलाओं के व्यापक वर्ग को शामिल किया। हालांकि यह सशर्त था और साक्षरता, संपत्ति स्वामित्व या संपत्ति वाले पुरुषों के साथ विवाह पर आधारित था। अधिनियम ने प्रांतीय विधायिकाओं में महिलाओं के लिए 41 सीटों को भी आरक्षित किया, हालांकि यह धार्मिक और जातीय आधार पर था। फिर भी 1937 में 80 महिलाओं ने चुनाव जीते और विधायिकाएं बनीं जो संयुक्त राज्य अमेरिका और सोवियत संघ के बाद तीसरा स्थान था। हालांकि, यह अल्पकालिक रहा।
भारत को आजादी मिली और देश के सभी वयस्क नागरिकों को समान मताधिकार दिया गया। लेकिन महिलाएं अपनी भागीदारी को लेकर अधिक उत्साहित नहीं थीं। मताधिकार की मांग से बढ़कर मतदान के मामले में पुरुषों को पीछे छोड़ने में महिलाओं को एक सदी का समय लग गया है।
तो, आखिर यह बदलाव आया कैसे? विशेषज्ञों की मानें तो इसके चार कारण नजर आते हैं- शांतिपूर्ण चुनाव, महिलाओं के बीच जागरूकता, स्वयं सहायता समूहों (एसएचजी) के आंदोलन का उदय और पंचायती राज व्यवस्था, जिसने आरक्षण के माध्यम से महिलाओं में चुनावों के प्रति दिलचस्पी जगाई। उदाहरण के तौर पर बिहार और पश्चिम बंगाल में महिला मतदाताओं की बढ़ती संख्या का कारण हिंसा रहित चुनाव है। दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में सामाजिक विज्ञान के प्रोफेसर दीपक मिश्रा कहते हैं कि आरक्षण और पंचायती राजनीति में महिलाओं की भागीदारी इस बढ़ती संख्या का कारण हो सकती है। पुणे विश्वविद्यालय में राजनीतिशास्त्र की प्रोफेसर राजेश्वरी देशपांडे चेतावनी देते हुए कहती हैं कि इस प्रवृत्ति का यह अर्थ कतई नहीं है कि महिलाओं का “चुनावी संग्राम में पदार्पण” हो चुका है। इसके पीछे त्रुटिहीन मतदाता सूची और महिला नेताओं के उभरने जैसे कारक भी जिम्मेदार हो सकते हैं। महिलाएं एक नया वोट बैंक बनकर उभरी हैं।
अन्य विशेषज्ञ भी महिलाओं पर केंद्रित विकास कार्यक्रमों को उनके उच्च मतदान के लिए जिम्मेदार ठहराते हैं। दिल्ली में रहनेवाले सामाजिक वैज्ञानिक विद्युत मोहंती कहते हैं, “एक रिपोर्ट के मुताबिक 2010 के बिहार चुनावों में 10 प्रतिशत अधिक महिलाओं ने बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की पार्टी के पक्ष में मतदान किया क्योंकि उन्होंने स्कूली छात्राओं को साइकिल एवं अन्य नकद सहायताएं देने की घोषणा की थी।” वह आगे कहते हैं कि महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी कार्यक्रम (मनरेगा) ने महिलाओं को रोजगार दिया जिसका आभार मानते हुए भी महिलाओं ने मतदान किया। यह एक संयोग हो सकता है लेकिन तमिलनाडु और केरल में मनरेगा के अंदर आने वाले श्रमिकों का बड़ा हिस्सा महिलाएं हैं और इन दोनों ही राज्यों में महिला मतदाताओं की संख्या अधिक है।”
राजनीतिक वैज्ञानिक जोया हसन ने डाउन टू अर्थ से कहा कि यह परिवर्तन पंचायत चुनावों में महिलाओं को दिए गए आरक्षण और महिलाओं को ध्यान में रखकर किए गए अन्य विकास कार्यों के कारण है। पिछले दशकों में महिलाओं को ध्यान में रखकर कई योजनाएं और कार्यक्रम चलाए गए हैं जिसके फलस्वरूप महिलाओं के बीच जागरुकता बढ़ी है। देश में निर्वाचित महिला पंचायत नेताओं की संख्या 6 लाख है। पटना के वरिष्ठ पत्रकार सुरूर अहमद कहते हैं, “बिहार में महिलाओं के लिए 50 प्रतिशत आरक्षण और सीटों में बेहद पिछड़ी जातियों के आरक्षण की वजह से प्रभावशाली समुदायों, खासकर यादवों ने पंचायत चुनावों में महिला उम्मीदवार खड़े किए हैं”। पूरे भारत की बात करें तो पंचायती राज संस्थानों में महिलाओं के लिए अब 58 प्रतिशत तक आरक्षण है।
महिलाओं की बढ़ती राजनीतिक भागीदारी का एक कारण देश में लगातार बढ़ते स्वयं सहायता समूहों की संख्या भी है। नाबार्ड के मुताबिक देश में लगभग 80 लाख एसएचजी हैं जिनके सदस्यों की कुल संख्या 970 लाख तक है। महिलाओं के नेतृत्व वाले यह एसएचजी ग्रामीण स्तर पर सबसे गतिशील संस्थानों के रूप में उभरे हैं और लगभग सभी विकास गतिविधियों में शामिल हैं। तमिलनाडु, केरल और आंध्र प्रदेश में हुए अध्ययनों से पता चलता है कि इस स्वावलंबन आंदोलन ने चुनावों में महिलाओं की बढ़ती भागीदारी को तय किया है।
2010 के बिहार विधानसभा चुनावों में नितीश कुमार के पुन: चुने जाने के बाद से महिलाओं को एक लक्षित मतदाता वर्ग के रूप में देखा तो जा ही रहा है, साथ ही उनकी राजनैतिक महत्ता भी बढ़ी है। उन्होंने लोकलुभावन योजनाओं की झड़ी लगा दी थी और पंचायती चुनावों में महिलाओं को 50 प्रतिशत आरक्षण देने का भी फैसला किया था। उच्च विद्यालय की छात्राओं के लिए साइकिल और उच्च अंक अर्जित करने वाली लड़कियों को नकद प्रोत्साहन जैसी योजनाएं महिलाओं को एक ऐसा वोटबैंक बनाती हैं, जो नीतीश की राजनीतिक लाभ पहुंचाती रही हैं। मध्य प्रदेश की बीजेपी शासित सरकार ने भी इसी तरह की प्रोत्साहन योजनाएं शुरू की हैं।
मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने महिलाओं और लड़कियों लिए कई योजनाएं शुरू की हैं, जिनमें शिक्षा के लिए नकद मदद और उम्र हो जाने पर विवाह में मदद की व्यवस्था है। हालांकि विश्लेषक इस बात से असहमत हैं कि राजनीतिक दल महिलाओं को सशक्त बनाने की दिशा में गंभीर प्रयास कर रहे हैं। जेएनयू के सेंटर फॉर पॉलिटिकल स्टडीज की अनुपमा रॉय कहती हैं कि केवल आर्थिक सशक्तिकरण महिलाओं को राजनीतिक निर्वाचन क्षेत्र के रूप में उभरने में मदद नहीं करेगा, “सामाजिक नीतियों में बदलाव होने की जरूरत है।” जेएनयू में प्रोफेसर और सामाजिक कार्यकर्ता आयशा किदवई महिलाओं को सशक्त बनाने के लिए सभी राजनीतिक क्षेत्रों में महिला आरक्षण की आवश्यकता पर जोर देती हैं।
पुणे विश्वविद्यालय में राजनीति विज्ञान विभाग की राजेश्वरी देशपांडे कहती हैं, “जेंडर की यह नई राजनीति महिलाओं की राजनीतिक भागीदारी को प्रोत्साहित नहीं करती। यह महिलाओं के मुद्दों को क्षणिक विरोधों तक ही सीमित रखती है और महिला निर्वाचन क्षेत्र के एकीकरण का बस भ्रम पैदा करती हैं।”
संसद में नहीं बदले हालात
यहां एक सवाल उठना लाजिमी है, अगर महिलाएं सच में एक नया मतदाता वर्ग हैं, तो भारत के राज्यों की विधानसभाओं और लोकसभा में निर्वाचित महिला प्रतिनिधियों की संख्या इतनी कम क्यों है? वर्नियर के अनुसार यह संख्या शर्मनाक रूप से कम है। उनके अनुसार, राज्य विधानसभाओं में यह 7 से 8 प्रतिशत और संसद में लगभग 11 प्रतिशत है। दिल्ली के सेंटर फॉर द स्टडी आॅफ डेवलपिंग सोसाइटीज के प्रवीण राय 2017 में सेज पब्लिकेशन से छपी अपनी किताब में कहते हैं, “भारत की संसद के निचले सदन (लोकसभा) में महिलाओं का प्रतिनिधित्व देश के जेंडर जनसांख्यिकीय को बिल्कुल भी परिलक्षित नहीं करता है। 15 लोकसभा चुनावों के बाद भी संसद में महिलाओं की उपस्थिति 22 प्रतिशत के विश्व औसत के आधे से थोड़ा ही अधिक है और भारत 193 देशों में 141वें स्थान पर है।”
आइए, औपनिवेशिक भारत की ओर वापस लौटते हैं, जहां स्वतंत्रता सेनानी कमलादेवी चट्टोपाध्याय अपनी कहानी सुनाती हैं, “1927 में प्रतिबंध हटने के साथ ही मद्रास राज्य के प्रांतीय विधानमंडल ने महिलाओं के लिए सदस्यता की राह तब खोल दी जब चुनावों में केवल कुछ हफ्ते ही बाकी थे। यद्यपि एक संवैधानिक जीत हासिल हो गई थी लेकिन सवाल यह था कि तैयारी के लिए इतना कम समय होते हुए कौन चुनाव लड़ने का जोखिम उठाए?” वे चुनाव तो हार गईं, लेकिन इतिहास बनाने में अवश्य सफल हुईं। उनके नक्शेकदम पर कई महिलाएं चलीं और ब्रिटिश भारत की प्रांतीय विधायिकाओं में नियुक्त भी हुईं और निर्वाचित भी। 1952 में संसद में चुनकर आए कुल 489 सांसदों में से केवल 24 (5 फीसद) महिलाएं थीं।
आॅक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस से जल्द प्रकाशित होने वाली शिरीन एम. राय और कैरोल स्पेरी लारा लिखी गई किताब “परफॉर्मिंग रिप्रेजेन्टेशन, वीमेन मेम्बर्स इन द इंडियन पार्लियामेंट” में कुल 23 महिला सांसदों का अध्ययन है। यह अध्ययन 1994 (दसवीं लोक सभा) से लेकर 2004 (चौदहवीं लोक सभा) के बीच के दस सालों को ध्यान में रखकर किया गया है। एक सांसद साक्षात्कार में कहती हैं, “संसद में महिलाओं की संख्या इतनी कम इसलिए है क्योंकि पार्टियां अपने विचार बदलती रहती हैं। अब भी जब हमारी पार्टी (कांग्रेस) में महिलाओं को जीतने योग्य सीटें मिलती हैं पर वे किसी कारणवश जीत नहीं पाती तो वे (पुरुष) यह कहना शुरू कर देते हैं कि महिलाओं को घर पर बैठना चाहिए। मेरा मानना है कि हम साथ करने में सक्षम हैं- परिवार की देखभाल भी और राजनीति भी।”
यह सच है कि 2014 के लोकसभा चुनावों में महिला उम्मीदवारों की संख्या लगभग दोगुनी हो गई थी। 2004 में यह संख्या 355 थी जो 2009 में बढ़कर 556 हुई और 2014 में 668 तक पहुंच गई। लेकिन यह भी सच है कि कुल उम्मीदवारों में महिलाओं की संख्या का प्रतिशत लगभग एक समान ही रहा है क्योंकि इन हालिया चुनावों में पुरुष उम्मीदवारों की संख्या में भी बढ़ोतरी हुई है। 2014 के आम चुनाव में कुल 543 सीटों पर खड़े हुए 8,251 उम्मीदवारों में केवल 8.1 प्रतिशत महिलाएं थीं। पिछले दो आम चुनावों की तुलना में यह केवल एक प्रतिशत की वृद्धि है वहीं पिछले तीन लोकसभा चुनावों में पुरुष उम्मीदवारों की संख्या 92-93 प्रतिशत के उच्च स्तर पर रही है।
अत: वर्ष 2014 में भी लोकसभा में महिलाओं का अनुपात 50 साल पहले (1962 में महिला प्रतिनिधियों की संख्या 6 प्रतिशत थी) की तुलना में दोगुना भी नहीं हो पाया है। यही नहीं 2014 में प्रतिनिधित्व का यह औसत और भी घट जाता अगर भाजपा उत्तर प्रदेश में अच्छा प्रदर्शन नहीं करती। ऐसा इसलिए क्योंकि उत्तर प्रदेश से भाजपा की अधिकांश महिला उम्मीदवार विजयी हुई थीं।
हाल में हुए राजस्थान विधानसभा के चुनावों में कुल 189 महिला उम्मीदवारों ने चुनाव लड़ा था जिसमें भाजपा और कांग्रेस की महिला उम्मीदवारों की संख्या 50 थी। इस तरह यह संख्या पिछले दस सालों में सर्वाधिक रही। लेकिन दूसरी तरफ मिजोरम में, जहां महिला मतदाताओं की संख्या पुरुषों से अधिक है, केवल चार महिला विधायक हैं और 1972 के पहले चुनाव से अब तक इस आंकड़े में कोई बढ़ोतरी नहीं हुई है। वतर्मान चुनाव में केवल 15 महिलाएं खड़ी हुई थीं।
2008 में राज्यसभा में महिला आरक्षण बिल पेश किया गया। इस बिल में विधान सभाओं एवं संसद में महिलाओं को 33 प्रतिशत आरक्षण देने की बात की गई थी। राज्य सभा से पारित हो जाने के बावजूद यह बिल निरस्त हो गया क्योंकि राजनैतिक दलों ने इस संवैधानिक संशोधन का समर्थन करने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई। इसके पहले 1990 में भी ऐसे ही एक विधेयक को पारित कराने की तीन कोशिशें की गई थीं लेकिन अंतत: सफलता नहीं मिल पाई।
पुस्तक में यह अनुमान लगाने की कोशिश की गई है कि लोकसभा में महिलाओं की संख्या कब इस अपेक्षित स्तर अर्थात 33 प्रतिशत पर पहुंचेगी। यह अनुमान 1957 से लेकर अबतक हुए 15 लोकसभा चुनावों में महिलाओं की भागीदारी के आधार पर लगाया गया है और काफी चौंकानेवाला है। इस पुस्तक की मानें तो भारतीय संसद के निचले सदन यानी लोकसभा में महिलाओं का प्रतिनिधित्व एक तिहाई के स्तर तक पहुंचने में अभी 55 साल या 11 आम चुनावों (हरेक का कार्यकाल पांच वर्ष) की देरी है।
पुस्तक के लेखकों शिरीन एम. राय (डिपार्टमेंट आॅफ पॉलिटिक्स एंड इंटरनेशनल स्टडीज़, वारविक विश्वविद्यालय) और कैरोल स्पेरी (स्कूल आॅफ पॉलिटिक्स एंड इंटरनेशनल रिलेशंस, नॉटिंघम विश्वविद्यालय में सहायक प्रोफेसर) द्वारा लगाया गया यह अनुमान हर लोकसभा चुनाव में महिलाओं के प्रतिनिधित्व में 10 प्रतिशत की वृद्धि के ट्रेंड को मूल में रखकर लगाया गया है। पुस्तक में वे आगे कहती हैं, “भारत में अगले 11 आम चुनावों के बाद भी महिलाओं का प्रतिनिधित्व वर्तमान (सितंबर 2017) के 23 प्रतिशत के वैश्विक औसत से थोड़ा कम ही होगा।”
मतदान पैटर्न में एक और परिवर्तन परिलक्षित हो रहा है। सेंटर फॉर द स्टडी आॅफ डेवलपिंग सोसाइटीज (सीएसडीएस) के निदेशक संजय कुमार कहते हैं कि जहां महिलाएं राजनीतिक दलों का नेतृत्व करती हैं वहां उन्हें महिला मतदाताओं से अधिक समर्थन प्राप्त होता है। वे तृणमूल कांग्रेस और जयललिता की अगुवाई वाले अन्ना द्रविड़ मुनेत्र कषगम (एआईएडीएमके) का उदहारण देते हैं। आंकड़ों की मानें तो 2016 के विधानसभा चुनावों में महिला मतदाताओं ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हुए ममता बनर्जी और जयललिता के भाग्य का फैसला किया था। पुरुषों की तुलना में महिलाओं के बीच एआईडीएमके का मतदाता शेयर 10 प्रतिशत अधिक था। 2017 के विधानसभा चुनावों से पहले उत्तर प्रदेश में मायावती के नेतृत्व वाली बहुजन समाज पार्टी की तरफ झुकाव भी स्पष्ट था। अत: यह कहा जा सकता है कि अब महिलाएं अपनी पसंद को ज्यादा सशक्त रूप से जाहिर करने लगी हैं और वह दिन दूर नहीं जब उनके पक्ष में एक स्पष्ट बदलाव आएगा। सत्ता और संसाधनों पर स्त्री की बराबर की भागीदारी होगी।
(कुंदन पांडेय के इनपुट सहित)
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