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हंगामा है क्यूं बरपा

बाज़ार में नए और ज्यादा स्वच्छ इंधन वाले वाहनों को जल्द से जल्द लाना जरुरी है

 
By Sunita Narain
Published: Monday 15 May 2017

वाहन निर्माताओं का कहना है कि उनके साथ बहुत बड़ी ज्यादती हुई है। क्योंकि उनको आदेश दिया गया है कि उत्सर्जन नियंत्रण के मद्देनजर नियत तारीख से पहले वे भारत स्टेज IV (बीएस-IV) तकनीक में पूरी तरह शिफ्ट हो जाएं। अपने बचाव के लिए ये लोग सरकार की जिस अधिसूचना का हवाला दे रहे हैं, उसमें स्पष्ट कहा गया है कि कंपनियां 31 मार्च, 2017, तक भारत स्टेज III (बीएस-III) वाहनों का निर्माण बंद कर देंगी। अब इन कंपनियों का तर्क है कि इसका मतलब यह नहीं कि बीएस-III वाहनों का पंजीकरण भी 1 अप्रैल तक बंद कर दिया जाए। ऑटोमोबाइल कंपनियों का प्रतिनिधित्व अब उनका संगठन सोसायटी ऑफ इंडियन ऑटोमोबाइल मैन्युफैक्चरर्स कर रहा है। इन कंपनियों के अनुसार पंजीकरण बंद करने के फैसले से इनको और देश को बहुत नुकसान हो रहा है। तर्क यह है कि इस फैसले की वजह से बड़ी संख्या मे निर्मित बीएस-III वाहन कचरे में तब्दील हो गए हैं।

मैं यह सवाल इसलिए पूछ रही हूं क्योंकि मैं भी उस फैसले का हिस्सा रही हूं जो पहले राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र (एनसीआर) के लिए पर्यावरण प्रदूषण (नियंत्रण और रोकथाम) प्राधिकरण (एपका) द्वारा लिया गया था, उसके बाद वायु प्रदूषण मामले में एमिकस क्युरीअ—हरीश साल्वे— द्वारा और अंततः सर्वोच्च न्यायालय द्वारा। इसे लिखने के पीछे दो मकसद हैं। पहला—मैं इस मामले पर अपना पक्ष रख सकूं और दूसरा—मैं नम्रता से यह पूछना चाहती हूं कि आखिर यह बेवजह हंगामा क्यों?

आइए इस मुद्दे को समझते हैं। पहली बात यह कि इन वाहनों से प्रदूषण बढ़ता है, जिसकी वजह से हम बीमार होते हैं। इस प्रदूषण को सही करने का एक महत्वपूर्ण तरीका है ईंधन और वाहन प्रौद्योगिकी की गुणवत्ता में सुधार। ईंधन की गुणवत्ता और तकनीक में सुधार पहले भी कठिन संघर्ष के बाद ही हुआ है। और इस तरह के सुधार में भारतीय ऑटोमोबाइल कंपनियों ने कभी सहयोग नहीं किया बल्कि वे हमेशा विपक्ष में खड़ी रही हैं।

अप्रैल 1999 में सर्वोच्च न्यायालय ने निर्देश दिया था कि उस वर्ष जून तक भारत में सभी वाहनों को यूरो-I के मानकों पर खरा उतरना होगा। (बीएस मानदंड तब लागू नहीं हुए थे।) न्यायालय ने यह भी निर्देश दिया था कि 1 अप्रैल, 2000, तक एनसीआर में यूरो-II अनिवार्य होगा। उस समय भी न्यायालय ने यह निर्देश देकर एक मिसाल कायम की थी कि “ऐसे किसी भी वाहन का पंजीकरण नहीं किया जाएगा जो यूरो-II मानदंडों के अनुरूप न हो”।

उस समय उच्चतम न्यायालय की कही गई बातें हमें आज भी याद आती हैं। मई 1999 में, ऑटोमोबाइल कंपनियों के वकीलों ने यूरो मानदंडों को लागू करने के लिए अधिक समय की मांग की थी और अदालत ने कहा था, “लोग सांस नहीं ले पा रहे हैं और आप ज्यादा समय की मांग कर रहे हैं!” आखिरकार न्यायालय के आदेशानुसार दिल्ली और एनसीआर में बदलाव हुआ।

देश के लिए स्वच्छ ईंधन प्रौद्योगिकी के लिए रोडमैप को अंतिम रूप देने के लिए सरकार ने आर ए माशेलकर की देखरेख में एक कमिटी की स्थापना की थी। वर्ष 2003 में इस बात पर सहमति बनी कि अप्रैल 2005 तक दिल्ली, एनसीआर और 12 अन्य प्रदूषित शहरों को, और अप्रैल 2010 तक पूरे देश में बीएस-III की अनिवार्यता लागू कर दी जाएगी। उसके बाद एक विराम था। वर्ष 2008 की अधिसूचना में केवल यह कहा गया था कि दिल्ली, एनसीआर और 12 अन्य शहरों को 2010 तक बीएस-IV प्राप्त होगा। 2015 में, देश के बाकी हिस्सों के लिए एक योजना बनाई गई। इसके अनुसार, ईंधन धीरे-धीरे उपलब्ध होगा और एक बड़ा प्रौद्योगिकी परिवर्तन आएगा। इसकी अंतिम तिथि 1 अप्रैल, 2017, तय की गई थी जब पूरा देश (छोटे दूर-दराज़ के इलाकों को छोड़कर) उस समय उपलब्ध 350 पीपीएम-सल्फर ईंधन को छोड़कर 50 पीपीएम ईंधन पर चलने लग जाएगा।

इसका मतलब यह है कि आटोमोबाइल कम्पनियाँ यह बखूबी जानती थीं कि देशभर में 1 अप्रैल, 2017, से ईंधन उपलब्ध हो जाएगा। बीएस –IV की तरफ ये बदलाव भी कोई नया नहीं है। यह तकनीक 2010 से ही उपलब्ध है। इसलिए “निर्माण” की तारीख, तो, केवल एक तकनीकी तर्क भर है। एक मात्र समस्या थी, टैक्सियों और ट्रकों जैसे लंबी दूरी के वाहनों के लिए देश भर में साफ ईंधन उपलब्ध कराना। इसे भी अब दूर कर दिया गया है।

बीएस –IV में बदलाव निर्बाध होना चाहिए था। पर ऐसा नहीं हुआ। एपका ने इस परिवर्तन की तारीख पर चर्चा करने के लिए एक बैठक भी बुलाई थी। मैं भी इसकी एक सदस्य हूँ। हमारा कहना यह था कि स्वच्छ ईंधन 1 अप्रैल, 2017, को उपलब्ध कराया जा रहा है जिसका सार्वजनिक खजाने पर अतिरिक्त भार पड़ेगा। ऐसे में इन कंपनियों को भी अपने इन्वेंट्री को उसी हिसाब से प्लान करना चाहिए। इसका उद्देश्य उनको बीएस-III के उत्पादन को कम करने और बीएस –IV का निर्माण बढ़ाने के लिए प्रेरित करना था। लेकिन इसके विपरीत, कंपनियों द्वारा सर्वोच्च न्यायालय में दिए गए आंकड़े बताते हैं, कि उनमें से ज्यादातर ने बीएस-III वाहनों का उत्पादन जारी रखा। बल्कि कुछ ने तो इसके उत्पादन दर में वृद्धि भी कर दी, जिसके परिणामस्वरूप इन्वेंट्री बढ़ गई।

तकनीकी बदलाव काफी महत्वपूर्ण है। बीएस-IV वाहन, खासकर डीजल ट्रक, बीएस-III से बहुत कम प्रदूषण फैलाते हैं। इन दो मानकों के बीच कण (पार्टिकुलेट एमिशन) उत्सर्जन में 80 प्रतिशत की कमी हुई है। इसीलिए बाज़ार में नए और ज्यादा स्वच्छ इंधन वाले वाहनों को जल्द से जल्द लाना जरुरी है। इस बात में कोई संदेह नहीं है कि देश में पुराने और अधिक प्रदूषण फैलाने वाले वाहनों की संख्या एक बड़ी समस्या है। लेकिन बदलाव नहीं करने के पीछे इसको तर्क के तौर पर इस्तेमाल क्यों करना? आखिरकार, वाहनों की उम्र 10-15 साल के बीच होती है। जितनी तेजी से ये नए वाहन हर जगह दिखने लगें उतना बेहतर होगा। कोई मुझे यह बताये कि इसके खिलाफ कोई तर्क कैसे दिया जा सकता है? कृपया मुझे बताएं।

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