रानी खेड़ा वही गांव है जिसने कभी दिल्ली का सबसे स्वच्छ गांव होने का तगमा हासिल किया था
‘इस गांव में देश के कोने-कोने से से लोग आ कर किराए पर रहते हैं। हर कोई यहां की सफाई व्यवस्था का हिस्सा बन जाता है। आप देख सकते हैं कि गांव की मुख्य सड़क हो या छोटी गली, कहीं भी अपको गंदगी दिखाई नहीं पड़ेगी। लेकिन अब केंद्र सरकार के नुमाइंदे उपराज्यपाल बिना आगे-पीछे देखे इस गांव को कचरा पट्टी बनाने पर तुले हुए हैं। अगर यहां कचरा डालने से कोई दिक्कत नहीं है तो फिर राजनिवास में ही गड्ढा खोद कर कचरा क्यों नहीं डाल देते हैं। नहीं तो इंडिया गेट पर ही इतनी बड़ी जगह है वहां कचरा क्यों नहीं डाल देते हैं’। आजमगढ़ से आए पत्थर घिसाई का काम करने वाले रविंदर चौरसिया अभी रानी खेड़ा गांव के निवासी हैं और इस बात से नाराज हैं कि पिछले 55 सालों से स्वच्छता का प्रतीक रहा रानी खेड़ा गांव कचरा पट्टी के लिए चुन लिया गया। गाजीपुर कचरापट्टी हादसे के बाद केंद्र सरकार ने यहां कचरा घर बनाने का आदेश जारी कर दिया है। लेकिन ग्रामीणों के सत्याग्रह के सामने केंद्र का फैसला टिक नहीं सका। ग्रामीण पिछले तीन दिनों से अपने आवास को कचराघर बनाने के खिलाफ डटे हुए हैं।
गाजीपुर में जब इंसानों के घर से निकले कचरे ने इंसानों की जान ली तो केंद्र ने पूर्वी दिल्ली का कचरा इस गांव में डालने का फैसला किया। लेकिन ग्रामीणों के कड़े विरोध के सामने दिल्ली नगर निगम के कचरे से भरे 17 ट्रकों को न केवल वापस भेजा गया बल्कि तीन ट्रक कचरा जो कि गांव के बाहर डाल दिया गया था उसे भी निगम को उठाने पर मजबूर कर दिया।
कभी रानी खेड़ा गांव ने दिल्ली का सबसे स्वच्छ गांव होने का तमगा हासिल किया था। 1962 में तत्कालीन केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री सुशीला नैयर ने खुद इस गांव में आकर उसे इस खिताब से नवाजा था। गांव के एक बुजुर्ग सेवानिवृत्त शिक्षक सुशील प्रकाश बताते हैं, ‘उस साल सरकार ने पूरी दिल्ली में स्वच्छता के लिए प्रतियोगिता आयोजित की थी। इस प्रतियोगिता में रानी खेड़ा को मंत्री महोदया ने सर्वश्रेष्ठ स्वच्छ गांव होने का पहला पुरस्कार दिया था। तब से लेकर अब तक आसपास तमाम इलाकों में आज भी हमारा गांव स्वच्छता का प्रतीक बना हुआ है। गांववाले सफाई का पूरा ध्यान रखते हैं नगर निगम पर निर्भर नहीं रहते हैं।’ वे कहते हैं कि इस गांव में जो भी देश के किसी भाग से आता है वह इसकी स्वच्छता में शरीक हो जाता है। गांव में आए किसी बाहरी व्यक्ति को कोई जोर-जबरन साफ रहने पर मजबूर नहीं करता है, बस वह दूसरों की देखा-देखी इस परिवेश में ढल जाता है।
रविवार तीन सितंबर को भी रानी खेड़ा गांव की दिनचर्या आम दिनों की तरह शुरू हुई थी। लेकिन थोड़े ही समय बाद कुछ लोग अपने मुंह-नाक पर गमछा लपेटने लगे और महिलाओं ने अपने पल्लू को नाक पर रख बदबू से दूर रहने की कोशिश की। सभी एक-दूसरे को शंका भरी नजरों से देख कर नजरों ही नजरों में यह सवाल कर रहे थे कि यह दुर्गंध कहां से आ रही है। तभी कुछ ग्रामीणों ने देखा कि निगम के तीन ट्रक गांव की सीमा पर सड़क किनारे कचरा डाल रहे थे। देखते ही देखते अस्सी हजार की आबादी वाले इस गांव के हजारों ग्रामीण कचरा डालने वाले स्थान पर पहुंच कर विरोध करने लगे। निगम के अधिकारी उन्हें यह समझाने की कोशिश कर कर रहे थे कि यह कचरा केवल एक हफ्ते ही डाला जाएगा, इसके बाद हम बंद कर देंगे। लेकिन ग्रामीणों ने देखा कि कचरे में बड़ी संख्या में जानवरों के सिर-पैर और मेडिकल कचरा भी है। यह सब देख ग्रामीण भड़क उठे। ग्रामीणों के बढ़ते विराध को देखते हुए निगम कर्मियों ने कचरा वापस ट्रक में डाला और पीछे से आए 17 ट्रकों को भी वापस ले गए। इस संबंध में गांव के सतवीर डबास ने बताया कि कचरा वापस उठाने के बावजूद आज तीसरे दिन इस स्थान से बदबू आ रही है। उन्होंने बताया कि हम इसी स्थान पर पिछले तीन दिनों से धरना दे रहे हैं। लेकिन आज तीसरा दिन होने के बाद भी बदबू जाने का नाम नहीं ले रही है।
इस गांव के मुख्य द्वार से अंदर घुसते ही एक सीधी लंबी सड़क दिखाई पड़ती है। सड़क देखकर मन में सवाल उठा कि क्या यहां निगमकर्मी दिन में तीन बार सफाई करते हैं। लेकिन इस खुशफहमी को दूर करते हुए गांव के बुजुर्ग रामचंद्र ने कहा कि निगम वाले तो हफ्ते-पंद्रह दिनों में ही यहां सफाई के लिए आते हैं। इसके बावजूद गांव की सड़कें या गलियां इतनी साफ कैसे? इस पर वे कहते हैं, ‘अरे भाई आप अपना कचरा अपने घर में ही रखोगे तो कहां से गंदगी फैलेगी। गंदगी तो तभी फैलती है जब आप और हम अपना कचरा घर के बाहर लापरवाही से फेंक देते हैं।’ एक छत की मुंडेर पर खड़े लंबू उर्फ अजय ने बताया कि इस गांव के एक ओर डीटीसी का डिपो है तो दूसरी ओर मेट्रो की फैक्टरी है और तीसरी तरफ रिलायंस की एक बड़ी दीवार जिसके पार कोई मॉल बनाने की बात कही जा रही है। वे पूछते हैं कि केंद्र सरकार इस गांव के आसपास ही क्यों कचरा डालने की कोशिश कर रही है। वे शंका जाहिर करते हुए कहते भी हैं कि कहीं केंद्र सरकार की यह योजना तो नहीं कि यहां कचरा डालना शुरू करो और इसके कारण ग्रामीण खुद ही यह जगह छोड़ कर चले जाएंगे। उनका कहना था कि निगम के अधिकारियों ने हमें बताया कि यहां आसपास काफी खुली जमीन होने के कारण हम यहां कचरा डाल रहे हैं। इस पर हमने उनसे कहा कि नई दिल्ली में मंत्रियों और नौकरशाहों की सैकड़ों कोठियों या बंगलों के परिसर भी बहुत खुले हुए हैं, वहीं कचरा डालो, जिससे निगम का परिवहन खर्च भी बचेगा।
धटना स्थल से अपने घर लौट रहीं कमलेश कहती हैं कि एक लाख से अधिक आबादी वाले इस गांव को सरकार अब तक न स्कूल दे सकी और न ही स्वास्थ्य केंद्र लेकिन अब लगता है सरकार हमें यह कचरा घर तोहफे में देना चाहती है। वे कहती हैं, ‘हम मर जाएंगे लेकिन गांव के बाहर कचरा नहीं डालने देंगे।’ गांव की ही विद्या देवी कहती हैं ‘हम तो निगम की कचरा उठाने वाली गाड़ी का भी इंतजार नहीं करते। हम अपना कचरा खुद ही ठिकाने लगा देते हैं।’ कचरा खुद से ठिकाने कैसे लगाती हैं के सवाल पर वे कहती हैं, ‘यहां अधिकांश लोग अपना कचरा अपने घर के अंदर ही रखते हैं और वह भी अलग-अलग यानी सूखा और गीला कचरा। जहां तक सूखे कचरे की बात है तो ज्यादातर लोग दो-चार दिनों में जब यह थोड़ा इकट्ठा हो जाता है तो उसे जला देते हैं। हालांकि उन्होंने बताया कि हम इस जलाने वाले कचरे में कोई प्लास्टिक या रबड़ नहीं जलाते बल्कि पंद्रह-बीस दिनों में निगम गाड़ी आती है तो उसे गीला और इस तरह का कचरा दे देते हैं।
गांव में यह कचरा अलग-अलग करना या सूखा कचरा जलाने की प्रक्रिया को क्या किसी बाहरी ने आ कर बताया था? यह सवाल जब सुनैना देवी से किया तो उन्होंने कहा कि हम तो जब से यहां आए हैं तब से दूसरों की देखा-देखी ही करने लगे। सुशील प्रकाश कहते हैं, ‘कचरा निस्तारण के लिए बहुत अधिक बुद्धि खरचने की जरूरत नहीं होती है। बस सोच की बात है। वैसे भी यह गांव कोई मंत्री महोदया के पुरस्कार देने मात्र से ही साफ नहीं कहलाने लगा था बल्कि इस गांव के ही पुराने लोगों ने साफ-सफाई की जो बुनियाद रखी दी थी, हम बस वही परंपरा चलाते आ रहे हैं।’
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