जंगल और पहाड़ को बचाने की लड़ाई का पहला मोर्चा आदिवासियों ने जीत लिया, लेकिन लड़ाई खत्म नहीं हुई है
गांव छोड़ब नाही
जंगल छोड़ब नाही
मांए माटी छोड़ब नाही
लड़ाई छोड़ब नाही
आदिवासियों के संघर्ष का यह गीत एक बार फिर गूंजा। इस बार जगह थी, छत्तीसगढ़ के बस्तर क्षेत्र के दंतेवाड़ा जिले के किरंदुल स्थित राष्ट्रीय खनिज विकास निगम (एनएमडीसी) के दफ्तर के बाहर। इस बार इन आदिवासियों की शिकायत थी कि उनसे उनका नंदराजा पर्वत और जंगल छीना जा रहा है।
वे 7 दिन तक जमे रहे। 5 दिन बाद राज्य सरकार ने उनकी कई मांगें मान ली। वे अगले 2 दिन तक केंद्र की पहल का इंतजार करते रहे, लेकिन फिर जीत (बेशक यह अधूरी थी) का अहसास लेकर वे अपने घरों को लौट गए। इसकी दो वजहें थीं, एक तो उन्होंने केंद्र सरकार को 15 दिन का समय दिया। दूसरा, वे नई ऊर्जा के साथ दोबारा संघर्ष की तैयारी में जुटना चाहते थे।
सारा मामला छत्तीसगढ़ के दंतेवाड़ा जिला स्थित बैलाडीला पर्वत शृंखला के लौह अयस्क के खदानों को लेकर है, जिसे दुनियाभर में उच्च कोटि का माना जाता है। यहां लौह अयस्क के 14 भंडार हैं। इनमें से केवल डिपोजिट-13 ऐसी है, जहां अब तक खनन का काम शुरू नहीं हुआ है और यह घने जंगलों के बीच स्थित है। आदिवासियों का कहना है कि नंदराज पहाड़ में उनके देवता नंदराज देव की पत्नी पिटौड़ देवी का पूजा स्थल है। लेकिन दिसंबर 2018 में इस पहाड़ पर खनन का ठेका अदानी एंटरप्राइजेज लिमिटेड (एईएल) को दे दिया गया और एईएल ने जंगल के पेड़ काटने शुरू कर दिए।
बीजापुर और सुकमा के 85 गांव के हजारों आदिवासी इससे नाराज हैं और पूरी परियोजना को रद्द करने की मांग कर रहे हैं। राज्य सरकार ने इस परियोजना को अनापत्ति देने के लिए आयोजित ग्राम सभा के फर्जी होने के आरोप की जांच शुरू कर दी है। साथ ही, जंगल से अवैध रूप से पेड़ काटने वालों के खिलाफ कार्रवाई के आदेश दे दिए हैं। इसे आदिवासियों की बड़ी जीत माना जा रहा है। हालांकि आदिवासी जानते हैं कि यह जीत अधूरी है। आंदोलन का संयोजन कर रही संयुक्त पंचायत जन संघर्ष समिति के सचिव राजू भास्कर बताते हैं कि यह उनकी फौरी जीत है। लड़ाई अभी लंबी है।
आस्था ने बिगाड़ा खेल
दरअसल, बैलाडीला पर कॉरपोरेट और सरकार की नजर कई दशक से है। वर्तमान में बैलाडीला क्षेत्र में लौह अयस्क की उत्पादन क्षमता 3.6 करोड़ टन सालाना है, जबकि अनुमानित मांग 5 करोड़ टन सालाना है। इसलिए 1.4 करोड़ टन सालाना की कमी दूर करने के लिए नई खदानों की आवश्यकता बताई जा रही थी।
19 नवंबर 2010 को छत्तीसगढ़ सरकार के कहने पर राज्य वन विभाग ने बैलाडीला की डिपोजिट-13 की वन भूमि पर खनन का प्रस्ताव तैयार किया, लेकिन तब उन्होंने यह सोचा भी नहीं होगा कि वहां के आदिवासी नंदराज पर्वत की पूजा करते हैं और वे उनके लिए मुसीबत का कारण बन सकते हैं। उस समय तक नियमगिरी जैसा सफल आंदोलन भी नहीं हुआ था। (उड़ीसा के नियमगिरी पर्वत पर बॉक्साइट खनन का काम 2004 में वेदांता समूह को दिया गया था, लेकिन आदिवासियों के आंदोलन के कारण हुई जांच के बाद 2011 में यह परियोजना रद्द कर दी गई)। इस प्रस्ताव में दलील दी गई कि डिपोजिट-11 व 14 में खनन पूरा हो चुका है, इसलिए देश की लौह अयस्क की मांग को पूरा करने के लिए एक नई खदान की जरुरत है।
चालाकी यह की गई कि प्रस्ताव में नंदराजा पर्वत की वनस्पतियों या जीव प्रजातियों का उल्लेख ही नहीं किया गया। हालांकि वन सलाहकार समिति (एफएसी) ने चालाकी पकड़ ली। समिति ने इस पर भी सवाल उठाए कि जो 11 व 14 नंबर की खदानें बंद हो चुकी हैं, उनका सुधार करके वहां वनीकरण कैसे किया जाएगा। इस वजह से प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया गया था।
इसके बाद राज्य सरकार ने नया प्रस्ताव तैयार किया और 5 जून, 2013 को वन मंत्रालय को एक और पत्र लिखा, जिसमें कहा गया कि चीन और कोरिया को निर्यात करने के लिए लौह अयस्क की जरूरत है। इस बार प्रस्ताव में कहा गया कि क्षेत्र में तेंदुआ (वन्यजीव संरक्षण अधिनियम, 1972 के तहत अनुसूची-दो में शामिल) और भालू (वन्यजीव संरक्षण अधिनियम के तहत अनुसूची एक प्रजाति में शामिल) जैसी प्रजातियां हैं। लेकिन डिपोजिट-11 व 14 के पुनर्भरण को शामिल नहीं किया गया। यहां तक कि वन एवं पर्यावरण मंत्रालय पर दबाव बनाने के लिए जनवरी 2014 में छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री ने खुद परियोजना को मंजूरी देने के लिए पत्र लिखा। यह दबाव काम आया और अप्रैल 2014 में प्रस्ताव पर पुनर्विचार किया गया। एफएसी ने वन अधिकार अधिनियम, 2006 का अनुपालन सुनिश्चित करने और भौगोलिक सूचना प्रणाली (जीआईएस) के नक्शे पर क्षतिपूरक वनीकरण के लिए भूमि की पहचान करने की शर्त पर प्रथम चरण को मंजूरी दे दी।
ताक पर सारे नियम
अधिनियम में ग्राम सभा से अनापत्ति प्रमाण पत्र प्राप्त करने का प्रावधान है। भास्कर का आरोप है कि छत्तीसगढ़ सरकार ने फर्जी ग्राम सभा का आयोजन किया। इतना ही नहीं, बंद हो चुकी डिपोजिट-11 व 14 के वनीकरण को लेकर तीन साल तक राज्य सरकार और केंद्र के बीच काफी वाद-विवाद चला।
राज्य सरकार ने पहले कहा कि डिपोजिट-11 और 14 पूरी तरह बंद नहीं हुई हैं, इसलिए पुनर्भरण नहीं किया जा सकता। लेकिन जब एफएसी इससे संतुष्ट नहीं हुई और मंत्रालय ने वन (संरक्षण) अधिनियम, 1980 के उल्लंघन के लिए राज्य सरकार को नोटिस भेजा, तब नवंबर 2015 में राज्य सरकार ने मंत्रालय को बताया कि डिपोजिट-11 व 14 की जमीन के पुनर्भरण की प्रक्रिया चल रही है। हालांकि फरवरी 2016 में इसकी जांच की गई तो राज्य सरकार के दावे को झूठा पाया गया और मंत्रालय ने एक बार फिर राज्य सरकार को नोटिस भेज दिया।
इसके बाद राज्य सरकार की ओर से 5 जनवरी 2017 को एक और अनुपालन रिपोर्ट भेजी गई, जिसमें दावा किया गया कि डिपोजिट-11 व 14 का पुनर्भरण का काम शुरू कर दिया गया है। इस रिपोर्ट के आधार पर 9 जनवरी 2017 को मंत्रालय ने परियोजना को अंतिम मंजूरी भी दे दी। एनएमडीसी ने निजी कंपनी की तलाश शुरू की और 25 जून 2018 को अदानी को इस काम के लिए चुना गया और दिसंबर 2018 को अदानी को माइन डेवलपर और ऑपरेटर नियुक्त कर दिया गया।
इस तरह आदिवासियों से उनका जंगल छीन कर कॉरपोरेट को सौंपने के लिए नौ साल तक एक के बाद एक कानून का उल्लंघन किया गया। अभी इस परियोजना का काम रुक गया है, लेकिन क्या नंदराजा परियोजना का हाल भी नियमगिरी जैसा होगा, यह तो आने वाला वक्त ही बताएगा।
कब-कैसे हुआ खेल?बैलाडीला पर्वत की डिपोजिट 13 खदान पर सरकार की नजर 9 साल से है
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