General Elections 2019

असाधारण विविधता के कारण भारत में धर्म और राष्ट्रवाद दोनों लाचार: रुचिर

अर्थशास्त्री और राजनीतिक विश्लेषक रुचिर शर्मा ने पिछले 25 वर्षों में मतदान के तरीके, सामाजिक परिदृश्य और चुनाव की बारीकियों को जानने के लिए समूचे भारत का दौरा किया है। अपनी नई किताब “डेमोक्रेसी ऑन द रोड” में उन्होंने अपने अनुभव साझा किए हैं। रुचिर ने 2019 के आम चुनावों पर रिचर्ड महापात्रा और एसएस जीवन से बात की

 
By Richard Mahapatra, S S Jeevan
Published: Saturday 11 May 2019

तारिक अजीज / सीएसई

21वीं सदी के भारत की पहली पीढ़ी पहली बार मतदान करेगी। मतदान के तरीके में आए परिवर्तन पर आपकी क्या टिप्पणी है?

मुझे लगता है कि आज भी भारत में चुनाव जीतने की शुरुआत जातीय और सांप्रदायिक समीकरण से होती है। समय के साथ यह समीकरण जरूरत बन गया है लेकिन चुनाव जीतने के लिए केवल यही काफी नहीं है क्योंकि सभी दल जातीय समीकरण के संबंध में एक ही तरीका अपना रहे हैं। इसलिए हर दल को अपने को अलग साबित करने के लिए जनता को कुछ और दिखाना होगा, चाहे वह उम्मीदवारों के पारिवारिक संबंध हों, जनकल्याण के वादे हों, विकास, पैसा या साफ छवि हो। शहरीकरण के कारण समय के साथ मतदान की प्रकृति में बदलाव आया है। शहरी क्षेत्रों में मतदाता जातीय और सांप्रदायिक पृष्ठभूमि पर तुलनात्मक रूप से कम ध्यान देते हैं। शहरीकरण की गति धीमी होने के कारण मतदान की प्रकृति में भी मंद गति से परिवर्तन हो रहा है।

1996 के आम चुनाव में जब आप पहली बार दौरे पर गए थे, उस दौरान देश गंभीर कृषि संकट से जूझ रहा था। ऐसा ही संकट आज भी है। क्या ग्रामीण मतदाता अपनी आजीविका पर आए संकट को ध्यान में रखकर मतदान करेगा या जातीय कारक अब भी निर्णायक है?

जैसा कि मैंने कहा, जाति और संप्रदाय मुख्य बिंदु हैं। इसके बाद बाकी कारक अपनी भूमिका निभाते हैं। यह सच है कि ग्रामीण संकट से फर्क पड़ता है क्योंकि चाहे कोई भी सरकार सत्ता में हो, मतदाता को आमतौर पर परेशानी का सामना करना ही पड़ता है। “सरकार से निराशा” मेरी किताब का एक प्रमुख विषय है जो इस तथ्य की ओर इशारा करता है कि भारत में सरकार नेताओं द्वारा किए गए वादों को पूरा करने में असमर्थ है। वे एक के बाद दूसरी योजना शुरू करते रहते हैं लेकिन सरकार के पास उन्हें पूरा करने की पर्याप्त क्षमता नहीं है। परिणामस्वरूप, मतदाताओं को परेशानी का सामना करना पड़ता है।

इस चुनाव में महिलाओं के प्रभाव की काफी बात की जा रही है। पहले आम चुनाव में अधिकांश महिलाओं ने पंजीकरण कराने से मना कर दिया था क्योंकि वे अपना नाम नहीं देना चाहती थीं या अपने पति का नाम नहीं लेना चाहती थीं। क्या तब से लेकर अब तक आप महिलाओं की स्थिति में बड़ा बदलाव देखते हैं?

जी हां, हमने रैलियों से लेकर मतदान केंद्रों तक, चुनाव के हर पड़ाव पर महिलाओं की तादाद में इजाफा होते देखा है। यह वास्तव में चुनाव प्रक्रिया में आया सबसे बड़ा परिवर्तन है। अब वे अपने मताधिकार का इस्तेमाल करने के लिए घर के पुरुषों के दबाव में नहीं आतीं बल्कि खुलकर बताती हैं कि वे किस आधार पर वोट करेंगी।

आपने कहा कि जातीय पहचान चुनाव जीतने का प्रमुख साधन है। तो क्या चुनाव का निर्णय करने में धार्मिक पहचान का महत्व कम हो गया है?

मैंने “जाति और संप्रदाय” कहा, और संप्रदाय से मेरा मतलब धर्म से है। इसलिए धर्म से काफी फर्क पड़ता है लेकिन हम कह सकते हैं कि मजबूत जातीय समीकरण के कारण भारत में हिंदुत्व की विचारधारा सीमित है। ऐसा उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में नजर आता है। यदि किसी जगह ऊंची जाति का वर्चस्व है तो पिछड़ी जातियां एक ही धर्म की तरफ झुकने की बजाय अलग रास्ता चुनेंगी। अत: भारत में असाधारण विविधता के कारण धर्म और राष्ट्रवाद दोनों लाचार हैं क्योंकि यहां अक्सर जातीय और उप-राष्ट्रीय पहचान धार्मिक पहचान से अधिक शक्तिशाली हो जाती है।

आपने लिखा है कि पूरे देश में केवल 700 जिला मजिस्ट्रेट हैं यानी 40 लाख लोगों पर केवल एक जिला मजिस्ट्रेट। अर्थशास्त्री के रूप में क्या आपको लगता है कि शासन व्यवस्था में राजनीतिक, प्रशासनिक और न्यायिक रूप से किस तरह बदलाव आ सकता है?

भारत को न केवल प्रचालन-तंत्र की जटिलता से निपटना पड़ रहा है बल्कि नियमों की अत्यधिक संख्या और कर्मचारियों की कमी से भी जूझना पड़ रहा है। परेशान नागरिक मदद के लिए नौकरशाही से गुहार लगाते हैं। कई बार तो उन्हें अपनी बात कहने के लिए कोई कर्मचारी ही नहीं मिलता और यदि मिल भी जाए तो उनका सामना उदासीनता और नियमों के जंजाल से होता है। खासतौर पर तब जब उनके पास अपना काम करवाने के लिए ऊंची पहुंच या पैसे न हों। मतदाता गैस कनेक्शन से लेकर पानी की टूटी पाइपों तक की समस्या के लिए अपने स्थानीय विधायक के पास जाते हैं जिसका यह दायित्व है कि वह अपने क्षेत्र के नागरिकों की बात सुने, लेकिन उन्हें नाकाम शासन की मीठी बातों से खुद को बहलाना पड़ता है। कई राजनेता हालात से हार मान लेते हैं और चुनाव जीतते ही अपने जिले और परेशान नागरिकों पूरी तरह से छोड़ देते हैं। पिछले कई वर्षों के दौरान मैंने जिन मतदाताओं से बात की है, उन सबकी आम समस्या यही है कि उनका लोकसभा उम्मीदवार चुनाव के बाद से इलाके में नहीं आया। शासन करने वाला वर्ग सुधार नहीं चाहता। शासन व्यवस्था उन्हें एक के बाद दूसरी योजना का वादा करके जनता से वोट की मांगने की इजाजत देती है और इनमें से अधिकांश लोगों के लिए सुधार का अर्थ नियंत्रण खो देना है।

आपने लिखा है कि लोकसभा चुनावों में नरेंद्र मोदी की जीत की संभावना शत प्रतिशत से 50:50 हो गई है। क्या यह लिखने के बाद आपकी सोच में कोई बदलाव आया है?

मैं इस अनुपात में बदलाव के लिए मई की शुरुआत में 28वें चुनावी दौरे का इंतजार कर रहा हूं। एक वर्ष पहले जब मैंने कहा था कि मोदी की जीत की संभावना लगभग शत प्रतिशत से 50:50 हो गई है तो यह भ्रामक लगता था। लेकिन दिसंबर, 2018 में राज्य चुनावों में भारतीय जनता पार्टी की हार के बाद यह तथ्य व्यवहारिक विवेक बन गया। इसके बाद भारत और पाकिस्तान के बीच तनाव बढ़ने से मोदी और भारतीय जनता पार्टी का पलड़ा फिर से भारी हो गया। हवा उनके पक्ष में बहने लगी है। मुझे लगता है कि जनता के बीच जाकर उनसे बात करने से और जानकारी मिल सकती है, हालांकि भारतीय चुनावों के बारे में भविष्यवाणी करना असंभव है और नतीजे आने के बाद ही उन्हें समझा जा सकता है।

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