इंफाल में तो स्ट्रीट वेंडर कानून पर अमल करने की मांग को लेकर महिलाओं द्वारा लगातार विरोध प्रदर्शन भी किया गया। गुजरात में इस कानून पर सबसे कम अमल किया गया।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जनवरी 2018 में कहा था, “अगर कोई आपके दफ्तर के बाहर पकौड़े की दुकान खोलता है तो क्या आप उसे रोजगार नहीं मानेंगे?” प्रधानमंत्री के इस बयान का भले ही मजाक उड़ाया गया हो लेकिन उनका बयान असंगठित क्षेत्र द्वारा रोजगार देने की क्षमता का महत्व रेखांकित करता है। रोजगार के मामले में इतना महत्वपूर्ण क्षेत्र होने के कारण असंगठित कामगारों से जुड़े कई कानून सरकार ने बनाए हैं। क्या ये कानून ठीक से काम रहे हैं? क्या सरकारों ने इन्हें प्रभावी तरीके से लागू किया है? मजदूर दिवस के अवसर पर डाउन टू अर्थ कुछ ऐसे ही प्रश्नों के उत्तर टटोलने की कोशिश की।
स्ट्रीट वेंडर्स पर शोध करने वाले वैभव राज ने “द स्टेट ऑफ इम्प्लॉयमेंट इन इंडिया” में लिखा है कि भारत में पकौड़े बेचने वाले स्ट्रीट वेंडर की श्रेणी में आते हैं। स्ट्रीट वेंडर्स के दो दशक से ज्यादा चले संघर्ष के बाद सरकार ने 2004 में उनके लिए राष्ट्रीय नीति बनाई। इस नीति को स्ट्रीट वेंडर्स (प्रोटेक्शन ऑफ लाइवलीहुड एंड रेगुलेशन ऑफ स्ट्रीट वेंडिंग) कानून की शक्ल लेने में 10 साल का वक्त लग गया। यानी 2014 में कानून बन पाया। इस कानून में स्ट्रीट वेंडर्स को मान्यता दी गई और उन्हें कुछ अधिकार मिले।
कानून बनने के बाद केंद्र और राज्य सरकारों के दिशानिर्देश पर स्थानीय निकायों द्वारा टाउन वेंडिंग कमिटियां बनाई गईं। वैभव लिखते हैं कि कानून में स्ट्रीट वेंडर्स की स्थिति सुधारने की क्षमता है लेकिन कमजोर क्रियान्वयन ने उम्मीदों पर पानी फेर दिया। कानून पर ठीक से अमल न होने का सबसे ज्यादा नुकसान महिला स्ट्रीट वेंडर्स को हुआ। इंफाल में तो स्ट्रीट वेंडर कानून पर अमल करने की मांग को लेकर महिलाओं द्वारा लगातार विरोध प्रदर्शन भी किया गया। गुजरात में इस कानून पर सबसे कम अमल किया गया।
2002 में नेशनल कमीशन ऑन लेबर (एसएनसीएल) ने कहा कि सरकार असंगठित श्रमिकों को पर्याप्त मदद नहीं दे रही है। कमीशन ने अम्ब्रेला कानून की वकीलत की जिससे असंगठित क्षेत्र के मजदूरों को न्यूनतम सामाजिक सुरक्षा मुहैया कराई जा सके। स्ट्रीट वेंडर्स कानून की तरह इस संबंध में कानून बनने में लंबा वक्त लगा। करीब एक दशक बाद सरकार ने असंगठित कामगार सामाजिक सुरक्षा कानून (यूडब्ल्यूएसएसए) 2008 कानून बनाया। लेकिन यह कानून भी काम के हालात को निगमित करने में असफल रहा और केवल सामाजिक सुरक्षा पर ही केंद्रित रहा। इस कानून के अंतर्गत कामगारों को सामाजिक सुरक्षा देने के लिए राष्ट्रीय मानक भी नहीं बने। करीब एक दशक बाद भी तमाम सरकारें इसका क्रियान्वयन करने में असफल रहीं। इसका नतीजा यह निकला कि असंगठित कामगार न केवल काम की दयनीय परिस्थितियों का शिकार रहे, बल्कि सामाजिक सुरक्षा से भी वंचित रह गए।
स्ट्रीट वेंडर्स कानून और यूडब्ल्यूएसएसए का मकसद काम की परिस्थितियों में सुधार करना था, लेकिन यह अब तक नहीं हो पाया है। आमतौर पर भवन एवं अन्य निर्माण कामगार (रोजगार का विनियमन एवं सेवा शर्तें) कानून 1996 को असंगठित श्रमिकों को राहत देने वाला कानून माना जाता है। इस कानून की नींव महाराष्ट्र में 1969 बने मथाडी कानून से पड़ी थी। हैरानी की बात यह है कि 12 साल तक उच्चतम न्यायालय की निगरानी की बावजूद राज्य सरकारों ने इसे सीमित तरीके से लागू किया। भारत में कानून के तहत निर्माण से जुड़े केवल 37 प्रतिशत श्रमिकों का ही पंजीकरण किया गया है। इतना ही नहीं श्रमिकों के कल्याण के लिए एकत्रित किया गया सेस भी खर्च नहीं किया जा सका। इसे देखते हुए उच्चतम न्यायालय ने 2018 में विस्तृत कार्ययोजना, आदर्श कल्याण योजना और सोशल ऑडिट फ्रेमवर्क बनाने का निर्देश दिया था।
कानून के दायरे से बाहर
संगठित क्षेत्र में असंगठित रोजगार की हिस्सेदारी काफी बढ़ गई है। 1999-2000 में यह हिस्सेदारी 37.82 प्रतिशत थी जो 2009-10 में बढ़कर 57.83 प्रतिशत पर पहुंच गई लेकिन असंगठित क्षेत्र के कामगारों के लिए स्थितियां बेहतर नहीं हुईं। यह भी तथ्य है कि न्यूनतम मजदूरी कानून के दायरे में कुल 38.1 प्रतिशत श्रमबल आना था लेकिन हैरानी की बात यह है कि इस कानून के दायरे में साल 1999-2000 में केवल 3.6 प्रतिशत श्रमबल ही था। अन्य कानूनों में असंगठित कामगारों की हिस्सेदारी और कम है। उदाहरण के लिए इंडस्ट्रियल डिस्प्यूट एक्ट के दायरे में 2.6 प्रतिशत, इंडस्ट्रियल इम्प्लॉयमेंट (स्टैंडिंग ऑर्डर) एक्ट के दायरे में 1.3 प्रतिशत, शॉप्स एंड एस्टेब्लिशमेंट एक्ट के दायरे में 1.7 प्रतिशत और वर्कमेंस कंपेनसेशन एक्ट के दायरे में 0.7 प्रतिशत कामगार ही आते हैं।
सरकार एसएनसीएल की सिफारिशों के आधार पर 44 केंद्रीय श्रम कानूनों को 4 श्रम कोड्स में परिवर्तित करने की दिशा में काम रही है। इसके पीछे तर्क है कि इससे कानून की जटिलताएं कम होंगी और यह 21वीं सदी के भारत के लिए जरूरी है। सरकार की यह कवायद क्या गुल खिलाएगी यह तो भविष्य ही बताएगा।
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