Science & Technology

‘पोस्ट ट्रुथ’ का सच

सरकारों ने हमेशा से काल्पनिक तथ्यों के जरिए प्रोपेगंडा को बढ़ावा दिया है। जबकि सोशल मीडिया के तीव्र प्रसार ने झूठ बोलने की कला को नए स्तर पर पहुंचा दिया

 
By Rakesh Kalshian
Published: Sunday 23 April 2017

तारिक अजीज/सीएसई

लोग अभी भी डोनाल्ड ट्रंप की हैरान कर देने वाली जीत को लेकर सकते में हैं। वे अभी भी समझ नही पा रहे हैं कि ट्रंप ने कैसे झूठ और आधे सच के सहारे बहुमत अपने पक्ष में किया। लेकिन ट्रंप ऐसा करने वाले पहले व्यक्ति नहीं हैं, उन्होंने राजनीतिक चालाकी की आधुनिकतम तकनीकें अपने रुसी समकक्ष ब्लादीमीर पुतिन से ही सीखी हैं, जिन्होंने बड़ी चालाकी से काल्पनिक तथ्यों और वास्तविक तथ्यों के बीच के अंतर को मिटा दिया है। ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी ने ‘पोस्ट ट्रुथ’ शब्द को वर्ष 2016 का ‘वर्ड ऑफ द इयर’घोषित किया है। उपरोक्त शब्द को एक विशेषण के तौर पर परिभाषित किया गया है, जहां निजी मान्यताओं और भावनाओं के बजाय जनमत निर्माण में निष्पक्ष तथ्यों को कम महत्व दिया जाता है।

सरकारों ने हमेशा से ही काल्पनिक तथ्यों के जरिए प्रोपेगंडा को बढ़ावा दिया है। हालांकि, सोशल मीडिया के तीव्र प्रसार ने झूठ बोलने की कला को नए स्तर पर पहुंचाया है। हाल की कुछ घटनाओं जैसे, ब्रेक्सिट जनमत संग्रह, वर्ष 2014 के भारतीय लोकसभा चुनाव और पिछले अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव से यह साबित हुआ है कि नई तकनीकों के जरिए फर्जी तथ्यों के प्रचार-प्रसार से जनमत को प्रभावित किया जा सकता है। किसी एक फर्जी तथ्य पर हजारों की संख्या में अफवाह फैलाने वालों का अंत उनके पूर्वाग्रहों के साथ ही होता है। सोवियत में जन्मे ब्रिटिश पत्रकार पीटर पोमरस्टेनेव कहते हैं कि—राजनेता हमेशा से ही झूठ बोलते थे पर अब उन्हें झूठ या सच बोलने से फर्क ही नहीं पड़ता है।

इसमें बिलकुल भी हैरानी की बात नहीं है कि ट्रंप ने जलवायु परिवर्तन से जुड़े विज्ञान को बर्बाद करने वाली तकनीकों को बढ़ावा दिया है। ट्रंप ने जलवायु परिवर्तन को भ्रम बताया है और उन्होंने पेरिस जलवायु समझौते से पीछे हटने की धमकी भी दी है। यह नई बोतल मे पुरानी शराब के भरने जैसा ही है। ट्रंप की नई रणनीति काम करती दिख रही है, क्योंकि एक हालिया सर्वेक्षण के अनुसार 95 प्रतिशत वैज्ञानिक इस बात पर सहमत हैं कि 27 प्रतिशत अमेरिकी ग्लोबल वॉर्मिंग के सबसे बड़े कारक के तौर पर हम और आप को ही देखते हैं। लोगों के बीच इस कदर भ्रम फैलाया जा रहा है कि किसी तथ्य या विशेषज्ञ पर विश्वास करना ही मुश्किल है। येल मनोवैज्ञानिक डान कहान के अनुसार जब-जब जलवायु परिवर्तन या गर्भपात जैसे मुद्दों की बात होगी, ट्रंप विचारधारा और संस्कृति जैसे मुद्दों को तथ्यों के तौर पर इस्तेमाल कर सकते हैं।

वह इस बात को लेकर तर्क देते हैं कि यदि मीडिया वर्षोँ के लगातार प्रचार-प्रसार के बाद भी लोगो को जलवायु परिवर्तन के बारे में समझाने में यदि कामयाब नहीं हुआ है तो अब क्या होगा? यद्यपि कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय के एक हालिया शोध में सामने आया है कि लोगों को यदि गलत सूचनायें दी जाएं तो वैकल्पिक तथ्यों से ज्यादा उन पर थोपे गए तथ्यों पर विश्वास करते हैं।

इसके अतिरिक्त गूगल और फेसबुक भी इस बात का प्रयास कर रहे हैं कि लोगों तक सूचनाएं फिल्टर्स के जरिए पहुंचे ताकि लोगों के बीच फर्जी सूचनाओं का प्रसार न हो सके। हालांकि एड्वर्ड स्नोडेन जैसे व्हिसल ब्लोअर्स इससे सहमत नहीं हैं। उनका मानना है कि फिलहाल आलोचना की सबसे अधिक आवश्यकता है, क्योंकि आजकल झूठ बोलना फैशन बनता जा रहा है।

हाल ही में बायोकेमिस्ट से ब्लॉगर बने रिचर्ड पी ग्रांट ने गार्जियन अखबार की वेबसाइट पर लिखा है कि अधिकांश वैज्ञानिक संवाद लोगों की राय के बारे में नहीं होते, अधिकांश हमारे भीतर पहले से मौजूद हमारी मान्यताएं होतीं हैं। खुद को ही देखिए, क्या हम चालाक नहीं हैं? हम विशिष्ट हैं, हम एक समूह हैं, हम एक परिवार हैं। यदि ट्रंप के रचे इस संसार से विज्ञान को बचाना है तो वैज्ञानिकों को इन मान्यताओं को बदलना ही होगा।

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