सीएजी ऑडिट के मुताबिक, बाढ़ की संभावना वाले राज्य बाढ़ प्रबंधन योजनाओं को लागू कर पाने में विफल रहे हैं।
भारत में अभी कम से कम सात राज्य बाढ़ की विभीषिका का सामना कर रहे हैं। यह लगातार तीसरा साल है जब अर्ध-शुष्क और रेगिस्तानी राज्य गुजरात और राजस्थान भी इस सूची में शामिल हैं। पारंपरिक रूप से बाढ़ से तबाह होने वाले राज्यों के मुकाबले अब यह अन्य राज्यों को भी चपेट में ले रही है। इसका पैमाना, गंभीरता और दायरा असामान्य होता जा रहा है। इस वर्ष बाढ़ के कारण कम से कम 1100 लोग मारे गए हैं। पिछले साल 475 से अधिक लोग मारे गए थे। इस साल बिहार में 482, गुजरात में 224 और राजस्थान में 66 लोगों (देखें मानचित्र) की जान गई है। इन तीन राज्यों से 700 से ज्यादा लोग मारे गए हैं।
वर्ल्ड रिसोर्स इंस्टीट्यूट, वाशिंगटन डीसी स्थित शोध संगठन की 2015 की रिपोर्ट के मुताबिक, भारत सबसे ज्यादा नदी के बाढ़ के खतरे से पीड़ित होने वाला देश है। ऐसी परिस्थितियों में भारत की बाढ़ प्रबंधन प्रणाली मजबूत होनी चाहिए थी। लेकिन ऐसा है नहीं। नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (सीएजी) द्वारा भारत की बाढ़ प्रबंधन योजनाओं के ऑडिट से यह तथ्य सामने आया है।
संसद में 21 जुलाई को ये ऑडिट रिपोर्ट पेश की गई। रिपोर्ट में 2007 से 2016 के दौरान 17 राज्यों और संघ प्रशासित क्षेत्रों की बाढ़ प्रबंधन योजनाओं को कवर किया गया है। इस रिपोर्ट में फ्लड मैनेजमेंट प्रोग्राम (एफएमपी) के तहत 206 परियोजनाओं को देखा गया, जिन्हें 2007 में बाढ़ प्रबंधन के लिए राज्यों को केंद्रीय सहायता के लिए शुरू किया गया था। इसमें 38 बाढ़ पूर्वानुमान केंद्र (एफएफएस), जो प्रमुख नदियों में जल स्तर को मापती है, 68 बड़े बांध और नदी प्रबंधन कार्यों के तहत 49 नदी प्रबंधन कार्य, सीमा क्षेत्रों (आरएमएबीए) से संबंधित कार्य और अन्य योजनाएं शामिल है। रिपोर्ट के विश्लेषण से पता चलता है कि भारत का बाढ़ प्रबंधन पूर्वानुमान तंत्र, पूर्व सुरक्षा उपायों और पोस्ट फ्लड मैनेजमेंट के क्षेत्र में कमजोर है। रिपोर्ट बताती है कि राज्यों को दी गई केन्द्रीय निधि कम थी।
निष्प्रभावी बाढ़ पूर्वानुमान प्रणाली
ऑडिट के अनुसार, देश के 15 राज्यों और संघ राज्य क्षेत्रों में अगस्त 2016 तक बाढ़ पूर्वानुमान लगाने के लिए कोई प्रणाली नहीं थी। इसमें राजस्थान, हिमाचल प्रदेश, केरल और मणिपुर जैसे बाढ़ ग्रस्त राज्य शामिल हैं। 11वीं पंचवर्षीय योजना (2007-2012) के दौरान 219 टेलीमेट्री स्टेशन, 310 बेस स्टेशन और 100 एफएफएएस स्थापित किए जाने का लक्ष्य था। इस लक्ष्य के मुकाबले सिर्फ 56 टेलीमेट्री स्टेशन स्थापित किए गए और शेष “कार्य प्रगति पर है” के मोड में हैं। जबकि जम्मू और कश्मीर में सिंधु, तावी, नीरू, चिनाब और झेलम नदियों में हमेशा बाढ़ की संभावना रहती है। सिर्फ 2015 में झेलम पर केवल एक एफएफएस स्थापित किया गया था, वह भी सितंबर 2014 के विनाशकारी बाढ़ के बाद। स्थिति तब और भी अधिक अनिश्चित बन जाती है, जब अधिकांश टेलीमेट्री स्टेशन गैर-कार्यात्मक हैं।
देश भर में स्थापित 375 टेलीमेट्री स्टेशनों, जो नदियों और वर्षा जल स्तर के लिए रियल टाइम डेटा प्राप्त करती है, में से 222 (59 प्रतिशत) काम नहीं कर रहे थे। हिमालयी गंगा डिविजन में, 2013 से अगस्त 2016 के बीच 9 में से 7 टेलीमेट्री स्टेशन गैर-कार्यात्मक थे। वास्तव में, एक स्टेशन ने 2013 और 2014 में बाढ़ के दौरान गलत डेटा दिया था। दामोदर डिवीजन में, जो एक बाढ़ संभावित क्षेत्र है, जून 2007 से अक्टूबर 2013 के बीच 24 में से 12 टेलीमेट्री स्टेशन गैर-कार्यात्मक थे। मध्य ब्रह्मपुत्र डिवीजन में, मार्च 2012 से जुलाई 2015 के बीच 6 में से 2 टेलीमेट्री स्टेशन गैर-कार्यात्मक थे।
ऑडिट में यह भी पाया गया कि जल संसाधन के क्षेत्र में देश का प्रमुख तकनीकी संगठन, केंद्रीय जल आयोग टेलीमेट्री डेटा पर निर्भर नहीं था, बल्कि यह मैन्युअल डेटा पर निर्भर था। ये हाल तब है जब 20 साल तक टेलीमेट्री स्टेशन के आधुनिकीकरण में काफी पैसा निवेश किया गया था। जाहिर है, इससे रियल टाइम डेटा संग्रह, इसके ट्रांसमिशन और बाढ़ पूर्वानुमान तैयार करने जैसे लक्ष्य के लिए टेलीमेट्री उपकरणों की स्थापना का उद्देश्य विफल हो गया।
कोई आपातकालीन एक्शन प्लान नहीं
रिपोर्ट यह बताती है कि भारत के 4,862 बांधों में से 93 फीसदी के पास आपातकालीन एक्शन प्लान नहीं है। आपातकालीन स्थिति में ये मानव जीवन और संपत्ति नुकसान को कम करने का काम नहीं हो सकता है। राजस्थान के 200 और ओडिशा के 199 बांध में से किसी में भी ये आपातकालीन एक्शन प्लान नहीं है। गुजरात और पश्चिम बंगाल के केवल एक बांध (गुजरात में 619 बांध हैं और पश्चिम बंगाल में 29 बांध है) में आपातकालीन एक्शन प्लान है। अगस्त 2010 में लोकसभा में पेश किए गए द डैम सेफ्टी बिल को अभी तक अधिनियमित नहीं किया गया है। संसद के हाल ही में संपन्न मॉनसून सत्र में इस विधेयक पर चर्चा की जानी थी। अधिकांश राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में प्री और पोस्ट मानसून निरीक्षण का कार्य नहीं किया गया था। बिहार में एक विशेषज्ञ समिति ने दिसंबर 2015 में दो बांध की सुरक्षा समीक्षा की थी और इसके दोष और कमियां से निपटने के लिए उपाय सुझाए गए थे। हालांकि कोई भी उपाय लागू नहीं किया गया। कुछ महीने बाद, राज्य में 25 लाख लोगों की बाढ़ की विभीषिका झेलनी पड़ी।
जल नीति का पालन न करने और मौसम पूर्वानुमान की उपेक्षा भी बाढ़ के प्रभावी प्रबंधन की राह में बड़ी बाधा है, विशेष रूप से ओडिशा में। ऑडिट ने बांध के जल स्तर की जांच न करने और 2011 व 2014 में निचले क्षेत्रों में बाढ़ को रोकने में असमर्थ रहे ओडिशा के हीराकुंड बांध प्राधिकरण की आलोचना की है। यह ओडिशा राज्य जल नीति 2007 के बावजूद हुआ। ये नीति स्पष्ट रूप से बताती है कि अत्यधिक बाढ़ वाले क्षेत्रों में बाढ़ नियंत्रण को प्राथमिकता देनी है, भले ही इससे सिंचाई और बिजली जैसे लाभों का त्याग करना पड़े। लेकिन, ओडिशा में बाढ़ प्रबन्धन की राह में यही अकेली बाधा नहीं थी। ऑडिट ने कम से कम 10 बांधों में दरारें और चेतावनी उपकरणों की कमी का भी उल्लेख किया।
देश की सबसे ज्यादा बाढ़ संभावित राज्यों ने बाढ़ के लिए विशिष्ट क्षेत्रों का सीमांकन नहीं किया है। 1981 में, राष्ट्रीय बाढ़ आयोग (आरबीए) ने राज्यों और संघ शासित प्रदेशों को विशिष्ट बाढ़ संभावित जोन की पुष्टि करने की सिफारिश की थी। ऑडिट के मुताबिक जुलाई 2016 तक 17 राज्यों व केंद्र शासित प्रदेशों में से, सिर्फ असम और उत्तर प्रदेश ने आरबीए मूल्यांकन का सत्यापन किया था।
धन की कमी
इस साल, असम के 32 जिलों में से 24 जिले में बाढ़ ने तबाही मचाई। 150 से ज्यादा लोगों की मौत हो गई। 15 लाख से ज्यादा लोग प्रभावित हुए। 0.2 मिलियन हेक्टेयर फसल क्षेत्र बर्बाद हो गया। राज्य ने केंद्र से 2393 करोड़ रुपये की सहायता मांगी है। 11वीं और 12वीं पंचवर्षीय योजनाओं (2007-2017) के दौरान राज्य को 2043.19 करोड़ रुपये देने का वादा किया गया था। असम को इसका 40 प्रतिशत ही प्राप्त हुआ। 16 अन्य राज्य और संघ शासित क्षेत्रों के लिए भी अपर्याप्त बजट है या उन्हें वादा की गई राशि नहीं मिली है।
2007 से 2016 के दौरान, जल संसाधन मंत्रालय, नदी विकास और गंगा कायाकल्प ने एफएमपी के तहत 25 राज्यों और संघ शासित क्षेत्रों के लिए 12243 करोड़ की 517 परियोजनाओं को मंजूरी दी। राशि का केवल 39 प्रतिशत जारी किया गया और स्वीकृत परियोजनाओं में केवल 57 प्रतिशत ही पूरे किए गए। धन की कमी ही बाढ़ नियंत्रण योजनाओं के कार्यान्वयन को प्रभावित करने की वजह नहीं है। एफएमपी गाइडलाइन के क्लॉज 4.10.1 के अनुसार, केंद्रीय सहायता की पहली किस्त अधिकार प्राप्त समिति द्वारा योजना को अनुमोदन दिए जाने के तुरंत बाद राज्य को जारी की जानी है।
ऑडिट चार राज्यों में 48 परियोजनाओं का हवाला देते हुए बताता है कि इन मामलों में केंद्र द्वारा पहली किस्त जारी करने में एक महीने से डेढ़ साल तक की देरी हुई। इससे राज्यों का प्रदर्शन बेहतर नहीं हुआ। ऑडिट में ऐसे मामले सामने आए है, जहां धन का उपयोग नहीं किया गया। बिहार, हिमाचल, झारखंड, उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल में छह परियोजनाओं के लिए 171.28 करोड़ की राशि का उपयोग नहीं किया गया था। असम, हिमाचल और तमिलनाडु के लिए जारी 36.5 करोड़ रुपये इम्प्लीमेंटिंग एजेंसीज द्वारा इसलिए डायवर्ट कर दिए गए क्योंकि विस्तृत परियोजना रिपोर्ट में कार्य अनुमोदित नहीं हुए।
त्रुटिपूर्ण शुरुआत
ऑडिट ने डीपीआरएस निर्माण में प्रक्रियात्मक चूक की भी पहचान की है। हिमाचल प्रदेश, जिसने पिछले कुछ सालों में बाढ़ में वृद्धि देखी है, वहां पांच में से तीन परियोजनाएं बिना अनुमोदन के ले ली गई। असम में भी एफएमपी दिशा-निर्देशों का उल्लंघन हुआ है, जो न केवल सभी परियोजनाओं के लिए अनिवार्य डीपीआर की बात करती है, बल्कि यह भी कहती है कि परियोजना रिपोर्ट में मौसम संबंधी आंकड़ों, मिट्टी का सर्वेक्षण, सामाजिक आर्थिक मानक शामिल होना चाहिए।
केरल के मामले में एफएमपी के तहत किए गए कार्य के लिए प्रारंभिक परियोजना रिपोर्ट तैयार नहीं की गई थीं। निष्पादन लेखापरीक्षा से पता चला है कि विस्तृत प्रोजेक्ट रिपोर्ट के अनुमोदन में देरी हुई थी जिससे वास्तविक वित्त पोषण के समय डिजाइन अप्रासंगिक हो जाते हैं। बारिश और कठिन मौसम की घटनाएं लगातार घट रही हैं। ऐसे में एक बेहतर एक्शन प्लान और समयबद्ध कार्यान्वयन ही एकमात्र आशा है। जब तक बाढ़ प्रबंधन परियोजनाओं को देरी का सामना करना पड़ेगा, समस्या में केवल बढ़ोतरी ही होगी।
चूक पर चूक
गुजरात
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