जाति व्यवस्था के खिलाफ संघर्ष प्राकृतिक संसाधनों पर नियंत्रण के सवाल को लेकर छिड़ना चाहिए, न कि पिछड़ों की आजीविका को लेकर
देश को पीछे धकेलने वाली जाति नाम की सामाजिक व्यवस्था, जिसका पालन आज भी दृढ़ता से होता आ रहा है, एक बार फिर सुर्खियों में है। आजकल ‘गौरक्षक’ संगठन उन समुदायों के खिलाफ हिंसक गतिविधियों को अंजाम दे रहे हैं, जो पीढ़ियों से अपनी रोजी-रोटी के लिए मृत पशुओं के शवों के निपटारे का काम करते आए हैं। दलित उत्पीड़न कोई नई बात नहीं है। दरअसल, जाति व्यवस्था ने उच्च जाति के लोगों को ऐसे हिंसक तरीके अपनाने और फिर आसानी से बच निकलने के लिए लगभग जन्मजात अधिकार प्रदान किए हैं। लेकिन इस बार दलितों का गुस्सा संगठित तौर पर बाहर आ रहा है। खबरों के मुताबिक, विरोध के चलते पिछले दिनों दलितों ने पशुओं के शवों को उठाने से मना कर दिया। दलितों के इस प्रकार के विरोध ने संविधान से मिले बुनियादी मानवीय गरिमा और समानता के अधिकार की मांग को एक राष्ट्रव्यापी मुद्दा बना दिया।
लाजमी है कि लोकतांत्रिक व्यवस्था में यह मुद्दा भी आखिरकार राजनीतिकरण की भेंट चढ़ जाएगा। फिर भी एक संवेदनशील विषय पर ऐतिहासिक और तार्किक समझ के बिना विमर्श का कोई मतलब नहीं है। सवाल यह है कि हम केवल पहचान को आधार बनाते हुए जाति पर चर्चा और ध्रुवीकरण में क्यों शामिल हों? इस नजरिए से इस मुद्दे को देखने पर हम निष्कर्ष पर पहुंच सकते हैं कि एक सभ्य देश में इस तरह की सामाजिक प्रणाली का कोई औचित्य नहीं होना चाहिए। वंचित समुदायों के लिए उठाए गए सभी सकारात्मक कदम अभी तक जन्म के आधार पर तय जाति पर ही आधारित रहे हैं। इन सकारात्मक उपायों से इनको शिक्षा जैसी बुनियादी सुविधाएं हासिल करने में मदद मिली है। फिर भी, इन्हें अभी तक इस तरह के अमानवीय व्यवहार का सामना क्यों करना पड़ रहा है? कुछ लोगों को जब शुरू से ही पशुओं के शव को निपटाने जैसे निष्कृट कामों के लिए मजबूर किया गया, तो अाज उन्हें इसी के नाम पर क्यों निशाना बनाया जा रहा है? हालांकि, अब जातिगत आधार पर उत्पीड़न के खिलाफ विरोध पहले के मुकाबले अधिक मुखर हुआ है।
जब से ग्राम सभा को गांव में निर्णय लेने वाली सशक्त संस्था के तौर पर देखा जाने लगा, तब भी जातिगत भेदभाव ने अपनी महत्वपूर्ण और गुप्त भूमिका कायम रखी। बेशक, स्थानीय विकास से जुड़े कामों में पंचायतें अब अहम भूमिका निभाने लगी थीं। लेकिन पंचायत के निर्वाचित प्रधान यानी सरपंच सत्ता का केंद्र और सामाजिक भेदभाव का प्रतीक बनकर उभरे। ऐसे में सरपंच जिस जाति का होता था, अक्सर वह उसी जाति के लोगों का पक्ष लेता था। अधिकतर गांवों में सरपंच ऊंची जाति का होता था। इससे पिछड़े तबके के लोग और ज्यादा हाशिए पर चले गए। इस समस्या का क्या समाधान हो? अपनी रिपोर्ट के सिलसिले में मैंने कई ग्राम स्तरीय बैठकों में भाग लिया। उनमें एक समाधान हमेशा सामने आता था कि गांव में सभी मतदाताओं के द्वारा एक ग्राम परिषद का गठन हो जो गांव से जुड़े फैसले लेने के लिए एक प्रधान संस्था के तौर पर काम करे। इस तरह ग्रामवासियों की आम सभा में होने वाली चर्चाओं और निर्णयों का असर सरपंच की व्यक्तिगत या जातिगत पसंद-नापसंद के मुकाबले अधिक होगा। ऐसे प्रयोगों से कई गांवों में वंचित समूह एकजुट भी हुए हैं। कई गांवों में तो प्रभावशाली ग्राम परिषद बनने से विकास योजनाओं में जातिगत आधार पर लिए गए निर्णयों को बदलना भी पड़ा। उदाहरण के तौर पर, आमतौर गांव में जलापूर्ति ऊंची जाति की प्राथमिकताओं के आधार पर की जाती रही है। लेकिन जहां ग्राम परिषद सक्रिय हैं, वहां संसाधनों का वितरण आवश्यकता के आधार पर होने लगा न कि जातिगत आधार पर।
यही वह बिंदु है जहां से जाति विमर्श में विकास की प्रक्रिया में लंबे समय से वंचित लोगों मुद्दों को शामिल किया जा सकता है। समाज वैज्ञानिक गोल्डी एम. जार्ज ने हाल ही में जाति व्यवस्था को कायम रखने में वंचित समूहों को प्राकृतिक संसाधनों से दूर रखने के विषय में शोध किया है। उनका कहना है कि प्राकृतिक संसाधनों पर नियंत्रण की लड़ाई ने ऐसी परिस्थितियों को जन्म दिया, जहां जाति के आधार पर संसाधनों को मूल निवासियों से दूर रखा जाने लगा। जाति को दो भागों में समझा जा सकता है- पहला, आर्थिक और दूसरा, वैचारिक या सांस्कृतिक। जार्ज कहते हैं कि एक तरफ, जाति व्यवस्था के आर्थिक आधार ने संपत्ति, श्रम विभाजन और आय के वितरण पर नियंत्रण कर लिया। वहीं दूसरी तरफ, स्थानीय संस्कृति की जगह ऐसी थोपी गई व्यवस्था ने ले ली जिसके चलते मूल निवासियों को अमानवीय उत्पीड़न झेलने को मजबूर होना पड़ा।
वंचित समूहों पर बढ़ते हमलों के संदर्भ में यही मुख्य बिंदु है जिस पर ज्यादा से ज्यादा विचार होना चाहिए। प्राकृतिक संसाधनों और उन पर अधिकार के सवाल को फिर से सामाजिक बहस के केंद्र में लाने की जरूरत है।
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