जल्द ही इस नाम-बदलाव के सु-परिणाम आने लगे। इस नाम-बदलाव ने देश की कई समस्याओं को समाप्त रातों-रात ख़त्म कर दिया था।
एक दिन सुबह उठकर लोगों ने पाया कि “नाम” बदल गए हैं।
लोगों ने खास तवज्जो नहीं दी क्योंकि किसी शेक्सपियर नामक शख्स ने कभी पूछा था कि नाम में क्या धरा है? मगर बात इतनी आसान न थी। न केवल सड़कों, पार्कों, प्रदेशों, शहरों बल्कि रेलवे स्टेशन के नाम भी बदल गए थे बल्कि इस उलटफेर में लोगों के नाम भी बदल गए थे। जो कल तक किसी और नाम से जाना जाता था आज उसका नाम कुछ और हो गया था। आधार कार्ड, हाईस्कूल सर्टिफिकेट और पासपोर्ट में अपने नए नाम को पंजीकृत कराने के लिए लोगों की जो लम्बी लाइन लगी, उससे यकायक नोटबंदी के दिनों की याद आ रही थी।
सुबह-सवेरे लोगों के घरों पर रोज की तरह झूठ का पुलिंदा आया जिसमें हर खबर पैसे लेकर छापी गई थी। कहा गया कि अब से इस झूठ के पुलिंदे का नाम बदलकर “अखबार” हो गया है । इसी के साथ टीवी पर होने वाले किसी भी अल्लम-गल्लम विषय पर हो रहे शोरशराबे को अब “न्यूज” कहा जाने लगा था।
उधर शहरों, सड़कों के ही नहीं, अब तो गली-मुहल्लों और पोखर-गढ्ढों के नाम भी बदल गए थे। बेचारे डाकियों की शामत आ गई थी। नामों के इस उलटफेर में उनके लिए यह समझना मुश्किल हो रहा था कि कौन रेलवे स्टेशन है और कौन व्यक्ति? किसी के घर की चिट्ठी अक्सर अब किसी बस अड्डे या किसी रेलवे स्टेशन पर पाई जाती।
किसी ने हिम्मत जुटाकर पूछना चाहा, “भाई यह नामों का उलटफेर क्यों हो रहा है?” उसे प्यार से धमकाते हुए पलटकर पूछा गया, “सीमाओं पर सेना के जवान भोजन के नाम पर सूखी रोटी चबा रहे हैं और तुमसे एक शहर के नाम में बदलाव नहीं झेला जा रहा है?”
जल्द ही इस नाम-बदलाव के सु-परिणाम आने लगे। इस नाम-बदलाव ने देश की कई समस्याओं को समाप्त रातों-रात ख़त्म कर दिया था। जैसे “बेरोजगारी” का नाम बदल कर अब “रोजगार के लिए इंतजार” रख दिया गया था। इससे न केवल बेरोजगारी की समस्या समाप्त हो गई थी बल्कि बैंक-रेलवे इत्यादि की परीक्षा में पास कर नियुक्ति पत्रों के इन्तजार में सदियों से बैठे युवक-युवतियों के असंतोष पर भी काफी हद तक काबू पा लिया गया था। देश के बड़े उद्योगपतियों द्वारा कर चोरी की समस्या भी अब खत्म हो गई थी। आम बजट में बड़े उद्योगपतियों को दिए जाने वाले कर-माफी या ‘रेवेन्यू फोरगान’ को अब “ऑल्टरनेटिव यूस ऑफ एसेट” कहा जाने लगा था। कल तक जो समस्या थी अब वह “एसेट” (संपत्ति) थी!
अंधाधुंध जंगलों की कटाई की समस्या खत्म हो गई थी क्योंकि उसका नया नाम अब “अर्बनाइजेशन” (नगरीकरण) था। बड़े बांधों से उजड़े-विस्थापित लोग बंजर-पथरीली जमीनों पर बने टीन के दड़बे में रहने से असंतोष में थे। उनकी सभी समस्याएं तब खत्म हो गईं जब उनके इलाके को “रिसेटल्ड कॉलोनी” नाम दे दिया गया। शहरी नवधनाढ्य माध्यम वर्ग द्वारा बावलों की तरह शॉपिंग के चलते उपभोक्तावाद बढ़ता जा रहा था । वह भी ख़त्म हो गया जब “खरीदारी” को “बचत” नाम दे दिया गया । अब कोई जितना ज्यादा शॉपिंग करता दरअसल वह दरअसल अब उतनी ज्यादा बचत कर रहा था!
मियां शेख्सपियर अगर आज जिन्दा होते तो या वह अपना वक्तव्य बदल लेते (या क्या पता अपना नाम ही बदल लेते!)।
नाम-बदलाव का असर देश की राजधानी से दूर गांव देहात तक देखा गया। झारखंड के गिरिडीह जिले के मनगरगद्दी गांव की सावित्री देवी कथित रूप से भूख से तड़पकर मर गई।
और दिन होते तो इसको लेकर दो-चार सेकेंड टीवी पर खबरें चलतीं, संसद-विधानसभा में एक-डेढ़ सेकेंड के लिए शायद विपक्ष, सत्तारूढ़ दाल को घेरता। पर ऐसा इस बार नहीं हुआ क्योंकि सावित्री देवी का पेट तो नेताओं के झूठे वादों से, अच्छे दिनों के झूठे सपनों से तो भरा हुआ था। नाम-बदलाव के दौर में जिसे “जन-आहार” का नाम दे दिया गया था...
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