बिहार, झारखंड, ओडिशा और उत्तर प्रदेश खुले में शौच से मुक्ति में बड़ी चुनौती बने हुए हैं क्योंकि देशभर में खुले में शौच करने वाली आबादी का 60 प्रतिशत इन चार राज्यों में है।
हर घर में शौचालय होना चाहिए। यह 21वीं सदी में दुनिया की सबसे बड़ी चुनौती है। दरअसल विश्व में करीब 100 करोड़ लोग खुले में शौच करते हैं। दुनिया को 2030 तक इससे मुक्त करने का लक्ष्य है। यह तभी संभव है जब भारत 2019 तक खुले में शौच मुक्त करने के लक्ष्य को हासिल करता है क्योंकि भारत की करीब 60 करोड़ की आबादी इसमें शामिल है। इस लक्ष्य को प्राप्त करने में बिहार, झारखंड, ओडिशा और उत्तर प्रदेश सबसे बड़ी चुनौती बने हुए हैं क्योंकि देशभर में खुले में शौच करने वाली आबादी का 60 प्रतिशत इन चार राज्यों में है। ऐसे में सबसे बड़ा सवाल यही है कि क्या ये राज्य खुले में शौच से मुक्त हो पाएंगे? इसकी पड़ताल करने के लिए सुष्मिता सेनगुप्ता और रश्मि वर्मा ने इन राज्यों का दौरा कर हालात का जायजा लिया
बिहार के बाढ़ प्रभावित खगड़िया जिले के रहीमपुर उत्तरारी गांव के निवासियों ने शौच की सबसे मुश्किल चुनौती का सामना किया है। वे सभी जल्दी उठ जाते और शौच के लिए जगह की तलाश करते। 35 वर्षीय मोहित यादव कहते हैं कि महिलाओं की स्थिति बहुत कठिन है। मानसून के दौरान शौच के लिए उनकी पत्नी और बेटियां सूर्योदय से पहले खुले स्थान की तलाश के लिए गहरे बाढ़ के पानी से गुजरती हैं। रहीमपुर उत्तरारी गांव गंगा के तट पर बसा है। ऐसा नहीं है कि गांव में शौचालय नहीं हैं। यहां स्वच्छ भारत अभियान (एसबीएम) के तहत बनाए गए शौचालयों की संख्या बहुत है। इस अभियान के तहत प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी 2 अक्टूबर 2019 महात्मा गांधी की 150वीं जयंती तक भारत को खुले में शौच से मुक्त बनाना चाहते हैं। गांधीजी ने कहा था कि स्वच्छता आजादी से अधिक महत्वपूर्ण है। लेकिन शौचालय होने का मतलब यह नहीं है कि इसका इस्तेमाल होगा।
इस क्षेत्र में नियमित बाढ़ को ध्यान में रखते हुए रहीमपुर उत्तरारी में शौचालय बनाए गए थे। शौचालयों को जमीन से चार फीट ऊपर बनाया गया ताकि उन्हें बाढ़ के पानी से नुकसान न पहुंचे। लेकिन ठेकेदार ने सोक पिट (सोख्ता गड्ढों) को बाढ़ के स्तर पर ही बना दिया। यादव कहते हैं कि मानसून के दौरान सोक पिट् भर जाते हैं। हम उन्हें इस्तेमाल नहीं कर सकते। प्रधानमंत्री मोदी की ओर से शौचालय बनाने की निर्धारित समयसीमा निकट आ रही है। अधिकारियों पर अधिक से अधिक शौचालय बनाने का दबाव है, भले ही उपयोग न किए जाएं।
रहीमपुर से संदेश
भारत की कोशिश केवल रहीमपुर उत्तरारी जैसे गांवों में सम्पूर्ण स्वच्छता लाने तक सीमित नहीं है। ये गांव यह भी तय करेंगे कि क्या 2030 तक सतत विकास लक्ष्य (एसडीजी) के तहत दुनिया खुले में शौच से मुक्त होगी। 2014 की संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट के मुताबिक, दुनिया में एक अरब लोग खुले में शौच करते हैं, जिसमे से 60 फीसदी भारत में हैं। देश में चार राज्य ऐसे हैं जिनको तय करना है कि देश खुले में शौच मुक्त हो सकता है या नहीं। ये राज्य उत्तर प्रदेश, बिहार, ओडिशा और झारखंड हैं। इन राज्यों में बड़ी आबादी के पास शौचालय नहीं है। स्वच्छ भारत अभियान के तहत प्रगति अन्य राज्यों की तुलना में यहां धीमी है। भारत को स्वच्छ बनाने हेतु इन राज्यों में युद्धस्तर पर उपयोगिक शौचालयों की आवश्यकता है।
केंद्रीय पेयजल और स्वच्छता मंत्रालय (एमडीडब्ल्यूएस) की वेबसाइट पर 19 जून, 2017 के उपलब्ध आंकड़ों के विश्लेषण से पता चलता है कि भारत में 2 अक्टूबर 2019 तक 6.4 करोड़ घरों में शौचालय बनाने की जरूरत है ताकि आधिकारिक तौर पर देश को खुले में शौच मुक्त घोषित किया जा सके। इन 6.4 करोड़ परिवारों में से उत्तर प्रदेश का हिस्सा 23 प्रतिशत, बिहार का 22 प्रतिशत, ओडिशा का 8 प्रतिशत और झारखंड का 4 प्रतिशत है। राष्ट्रीय स्तर पर 36 प्रतिशत घरों (6.4 करोड़) में शौचालय नहीं है। बिहार में लगभग 70 प्रतिशत घरों तक शौचालय तक पहुंच नहीं है, ओडिशा में यह लगभग 59 प्रतिशत है, उत्तर प्रदेश में यह 54 प्रतिशत है। इनकी तुलना में झारखंड बेहतर है जहां 47 प्रतिशत घरों में शौचालयों की आवश्यकता है।
इन राज्यों में मंत्रालय के अनुमान से अधिक शौचालयों की जरूरत हो सकती है। इसकी वजह है बड़ी संख्या में शौचालयों का अनुपयोगी होना। इन्हें उपयोग करने लायक बनाना होगा, तभी शौचालय तक लोगों की पहुंच होगी। देश में करीब 79 लाख शौचालय बेकार पड़े हैं, जबकि बिहार में 8.2 लाख, झारखंड में 6.8 लाख, 2.1 लाख ओडिशा में और 16 लाख उत्तर प्रदेश में हैं। इन शौचालयों को उपयोग लायक बनाने के लिए या तो दोबारा बनाना होगा या इनकी मरम्मत करनी होगी। इन चार राज्यों में तो यह कार्य धीमा है। भारत में लगभग 4.8 लाख अनुपयोगी शौचालयों को चालू वर्ष के दौरान उपयोग में लाने योग्य बनाया गया है। इनमें से केवल 1-2 प्रतिशत ओडिशा, झारखंड, उत्तर प्रदेश और बिहार के हैं।
क्या इसका मतलब यह है कि विश्व और भारत इन राज्यों के खराब प्रदर्शन के कारण लक्ष्य को पूरा नहीं कर पाएगा? उत्तर देने से पहले, हमें यह समझने की जरूरत है कि आखिर इन राज्यों का स्वच्छता को लेकर प्रदर्शन खराब क्यों है।
बिहार: ढिलाई से काम
स्वच्छ भारत अभियान के तहत शौचालय बनाने की होड़ सी चल रही है। बिहार सरकार को कुल 202 लाख घरों के लिए 70 प्रतिशत शौचालयों का निर्माण अक्टूबर 2019 तक करना है। विभिन्न स्वच्छता योजनाओं के अंतर्गत राज्य में बनाए गए 58 लाख शौचालयों में से 16 लाख शौचालयों का निर्माण स्वच्छ भारत अभियान शुरू करने के बाद किया गया। इसके 50 प्रतिशत का निर्माण वित्त वर्ष 2016-17 में किया गया था। क्या इसका मतलब यह है कि राज्य सम्पूर्ण स्वच्छता को मन से अपना रहा है? यह बहुत स्पष्ट रूप से उभरकर आया है कि राज्य शौचालय का निर्माण खुले में शौच मुक्ति के आधिकारिक “प्रमाणपत्र” को प्राप्त करने के लिए कर रहे हैं। लोग इन शौचालयों का इस्तेमाल करेंगे, यह पक्का नहीं है। इसका अर्थ है कि कुछ वर्षों के बाद, राज्यों में खुले में शौच करने की स्थिति फिर से वापस आ जाएगी। और यह क्यों कहा जा रहा है? बेगूसराय जिले में शिहमा ग्राम पंचायत के सरपंच, लल्लन कुमार सिंह से पूछिए।
उन्होंने बताया “पिछले छह महीनों में 80 प्रतिशत से अधिक घरों में शौचालयों का निर्माण किया गया है।” शौचालयों के उपयोग पर सिंह बताते हैं कि वह लगातार प्रोत्साहित करते हैं ताकि ग्रामीण अपना व्यवहार बदलें और शौचालय का उपयोग करना शुरू कर दें। लेकिन डाउन टू अर्थ के संवाददाताओं ने पाया कि कुछ ही घर शौचालयों का उपयोग कर रहे हैं, जबकि अन्य पहले की तरह खुले में शौच कर रहे हैं। स्पष्ट है कि यहां शौचालयों का इस्तेमाल करने के लिए जागरुकता और प्रोत्साहित करने का बहुत कम काम हुआ है। पिछले वित्तीय वर्ष में राज्य ने सूचना, शिक्षा और संचार (आईईसी) संबंधित गतिविधियों के लिए अपने आवंटित बजट का केवल 0.18 प्रतिशत खर्च किया था।
शौचालयों के निर्माण के लिए बजट का 99 प्रतिशत हिस्सा खर्च किया गया था। हालांकि कुछ गांव ऐसे भी हैं जिन्हें शौचालय स्वच्छ भारत अभियान के तहत धनराशि आवंटित नहीं की गई। शिहमा जैसे ग्राम पंचायत धन प्राप्त करने के मामले में काफी भाग्यशाली हैं क्योंकि वे गंगा के पास बसे हैं। नमामि गंगे के अंतर्गत ऐसे गांवों को शौचालयों का निर्माण करने की प्राथमिकता मिलती है। गंगा से दूर बसे गांवों को प्राथमिकता से फंड नहीं मिलता। इन गांवों के लिए राज्य ने 2014 में लोहिया स्वच्छ भारत अभियान (एलएसबीएम) का शुभारंभ किया था। लेकिन इस योजना के तहत निधि तभी जारी की जाती है जब पूरा वार्ड खुले में शौच मुक्त हो जाता है। बेगूसराय जिले में लाभार्थियों को केवल 20 प्रतिशत प्रोत्साहन राशि मिली। इस वजह से शौचालयों के निर्माण के प्रति दिलचस्पी कम हो रही है।
बेगूसराय की रामदीरी-2 ग्राम पंचायत से 45 वर्षीय सदा देवी कहती हैं, “मैंने घर में शौचालय बनाने के लिए 18,000 रुपये खर्च किए, मुझे अब तक सरकार से कोई मदद नहीं मिली है। अधिकारियों का कहना है कि जब तक वॉर्ड के सभी घरों में शौचालय नहीं बन जाता, तब तक आधिकारिक रूप से धनराशि जारी नहीं हो सकती।” इसलिए वित्तीय बाधा एक कारण है कि लोग शौचालयों के निर्माण नहीं कर रहे हैं या खराब शौचालयों के साथ समझौता करने को मजबूर हैं।
जहां एक ओर शौचालयों का निर्माण युद्ध-स्तर पर किया जा रहा था, वहीं दूसरी ओर अपशिष्ट जल प्रबंधन की समझ की कमी भी दिखाई दे रही थी। इस कारण अंत में शौचालय का उपयोग नहीं होगा और ये उस जगह को मलिन भी कर सकते हैं। यह खुले में शौच मुक्त उन्मूलन के उद्देश्य को पूर्ण नहीं कर पायेगा। खगड़िया जिले में रहीमपुर दक्षिण, रहीमपुर मध्य और रहीमपुर उत्तर ग्राम पंचायत गंगा के बाढ़ प्रवण क्षेत्र पर बसे हैं और ये क्षेत्र हर मानसून में 10 से 20 दिनों तक पानी में डूबे रहते हैं। सोक पिट का निर्माण बाढ़ के स्तर पर ही कर दिया गया। प्रेम सागर मिश्रा, ब्लॉक डेवलपमेंट ऑफिसर, मैथानी, बेगूसराय, बताते हैं कि सोक पिट का निर्माण जमीन के तल से 5-6 मीटर नीचे भूजल के स्तर पर कर दिया गया है जिससे यह भूजल से मिल जाता है। शौचालयों के लिए पानी का उपयोग सोक पिटों के पास लगे हैंड पंप से पानी निकाल कर किया जाता है। गांववाले बताते हैं कि बरसात के मौसम के दौरान हैंड पंप और सोक पिट दोनों जलमग्न हो जाते हैं जिससे शौच और भूजल के मिल जाने से पानी प्रदूषित हो जाता है।
केंद्रीय पेयजल और स्वच्छता मंत्रालय के अनुसार, जिले ने पहले ही सभी घरों के लिए शौचालय का लक्ष्य हासिल कर लिया है लेकिन मिट्टी और पानी को दूषित होने से बचाने के सम्पूर्ण स्वच्छता के मूल उद्देश्य से भटक गया है।
मिश्रा बताते हैं कि प्रदूषण से बचने के तरीकों और शौचालय की स्थिति पर ग्रामीणों के स्थानीय ज्ञान का प्रयोग स्वच्छ भारत अभियान के अंतर्गत नहीं किया गया क्योंकि अधिकारियों ने शौचालयों के निर्माण का कार्य ठेकेदारों को दे दिया। ब्लॉक अधिकारियों को केवल एलएसबीएम परियोजनाओं के साथ ही शामिल किया गया है। खगड़िया के जिला समन्वयक शैलेंद्र कुमार उथले भूजल क्षेत्रों में सोक पिट निर्माण के तरीकों का पालन कड़ाई से करते हैं, वह डिजाइन को बदलना नहीं चाहते भले ही सोक पिट भूजल दूषित कर रहे हैं। उनका तर्क है कि यदि समुदायों को मौका दिया जाता है तो वे जल अपशिष्ट प्रबंधन के लिए अन्य डिजाइन लागू करेंगे।
जबकि राज्य की वार्षिक कार्यान्वयन योजना 2017-18 के अनुसार पिछले वित्तीय वर्ष में राज्य का मुख्य लक्ष्य अपशिष्ट जल प्रबंधन था। योजनानुसार सीतामढ़ी, नवादा, गया, भागलपुर, भोजपुर और नालंदा जैसे जिलों में ठोस कचरा और अपशिष्ट जल प्रबंधन पर कुछ गतिविधियां शुरू की गई हैं। नालंदा जिले के भूई गांव में ठोस कचरा और अपशिष्ट जल प्रबंधन पर एक पायलट परियोजना के बाद राज्य के लिए एक विस्तृत परियोजना जल्द तैयार की जाएगी। 2016-17 में राज्य को केंद्र से 14,868 लाख रुपये और स्वच्छता कार्यक्रमों के लिए 9, 882 लाख रुपये प्राप्त हुए। विशाल राशि मिलने के बाद भी जून 2017 तक ठोस कचरा व अपशिष्ट जल प्रबंधन पर कुछ खर्च नहीं किया गया।
उत्तर प्रदेश: गरीबी खुले में शौच से मुक्ति में बाधक
उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने घोषणा की है कि राज्य कुल शौचालय बनाने का लक्ष्य एक साल पहले पूरा कर लेगा। मोदी ने इसकी समयसीमा अक्टूबर 2019 रखी है। जाहिर है, बिहार की तरह उत्तर प्रदेश में भी शौचालयों के निर्माण के लिए आपाधापी जारी है। राज्य के करीब 273 लाख ग्रामीण परिवारों में लगभग 54 प्रतिशत परिवार खुले में शौच करते हैं। शौचालयों के निर्माण की गति 2016-17 के दौरान बढ़ी जब करीब 17.41 लाख शौचालय बनाए गए।
इस बड़े आधिकारिक लक्ष्य के बावजूद, शौचालयों के निर्माण के लिए समुदायों की मांग और इसके प्रति सरकार की जवाबदेही में बड़ा अंतर है। रायबरेली जिले के जगदीशपुर गांव के 72 वर्षीय मंसूर अली ने बताया “मैंने शौचालय निर्माण के लिए बहुत पहले ही आवेदन अधिकारियों को सौंप दिया था। मेरे बेटों ने डिजाइन के मुताबिक, 10 फीट गहरे गड्ढे खोदे थे। छह महीने बीत गए हैं, न तो अधिकारी वापस आए और न ही पैसा मिला।” अली का परिवार बहुत गरीब है जिस कारण वह शौचालय के निर्माण में अक्षम है। अली का दो साल का पोता शौचालय के लिए खोदे गए गड्ढे में गिर गया इस कारण उन्हें गड्ढे को बंद करने के लिए मजबूर होना पड़ा। शायद ही अली अब कभी शौचालय बनवाएं। इसी गांव के शिवकुमार पांडे को अपनी जवान बेटियों को शौच के लिए मैदान में भेजने के तनाव से गुजरना पड़ता है। पांडे कहते हैं कि गरीबी शौचालयों का निर्माण नहीं करने का मुख्य कारण है।
जगदीशपुर ग्राम पंचायत की सरपंच महादेवी का तर्क है कि जहां शौचालयों के निर्माण के लिए लाभार्थियों के खातों में धन सीधे स्थानांतरित किया गया था, ज्यादातर लोगों ने इसका उपयोग अन्य कार्यों के लिए कर दिया। महादेवी बताती हैं “हम अक्सर बीडीओ कार्यालय में संवेदीकरण की बैठकों के लिए ग्रामीणों को बुलाते हैं और जागरुकता अभियान आयोजित करते हैं, लेकिन इसका कोई फायदा नहीं होता।”
दीह ब्लॉक के ग्राम पंचायत अधिकारी जितेंद्र सिंह ने बताया कि ऐसे मामले भी सामने आए हैं जब ग्रामीणों को एसबीएस की किस्त का एक हिस्सा सरपंच को देना पड़ा। सिंह ने बताया कि कई ग्रामीणों ने 6000 रुपये की पहली किस्त प्राप्त करने के बाद शौचालय निर्माण का काम बंद कर दिया। गड्ढे खोदने के बाद पहली किस्त जारी की जाती है।
बिहार की तरह उत्तर प्रदेश में भी गंगा किनारे बसे गांवों को प्राथमिकता मिल रही है। हापुड़ जिले ने अन्य जिलों की तुलना में शौचालय बनाने में काफी प्रगति दर्ज की। 84 प्रतिशत शौचालय के साथ हापुड़ खुले में शौच मुक्त का दर्जा प्राप्त करने के लिए अन्य जिलों से आगे है। स्वच्छ भारत अभियान के हापुड़ जिला समन्वयक रेणु श्रीवास्तव का कहना है कि स्वच्छ भारत अभियान के तहत पिछले दो वर्षों में किया गया काम मांग आधारित है। अपनाने की दर बहुत अधिक है और इस बढ़ी हुई मांग के पीछे का मुख्य कारण धन का बिना परेशानी के लाभार्थी के सीधे खाते में भेजना है। श्रीवास्तव बताती हैं कि अब ग्रामीण अपने परिसर में एक से अधिक शौचालय बनाने की मांग कर रहे हैं। सैद्धांतिक रूप से स्वच्छ भारत अभियान के अधिकारी उनकी इस मांग से इनकार नहीं कर सकते। लेकिन इस वक्त ऐसा करने से कुछ लाभार्थी शौचालय निर्माण के लिए मिलने वाली प्रोत्साहन राशि से वंचित रह सकते हैं।
गंगा को साफ करने के अजेंडे के तहत राज्य में स्वच्छ भारत अभियान चल रहा है। गंगा नदी के पास शौचालयों के निर्माण हेतु अधिकारियों पर बहुत दबाव है। यह समझा जा सकता है कि गंगा का सबसे बड़ा भाग राज्य में है, जिसे भारी संख्या में बहते गंदे नाले प्रदूषित करते हैं। लेकिन बिहार की तरह मल प्रबंधन पर शायद ही कोई ध्यान दे रहा है। रायबरेली के पूरी बुयान गांव के एक 55 वर्षीय किसान श्याम लाल अपने नव निर्मित शौचालय का उपयोग करने में खुश हैं लेकिन यह सुनिश्चित नहीं है कि शौचालय से अपशिष्ट जल के प्रबंधन के लिए बने गड्ढों से भूजल प्रदूषित होगा या नहीं। इसी कारण भविष्य में उन्हें शौचालय का उपयोग बंद करना पड़ सकता है।
श्याम लाल कहते हैं कि इन गड्ढों की गहराई भूजल के समान स्तर पर है। लेकिन उनका कहना है कि उनके पास 12,000 रुपये की सहायता के अलावा कोई विकल्प नहीं है, वह शौचालय बनाने के लिए इसी तकनीक को अपना सकते हैं।
अमेठी के गोहरा ग्राम पंचायत के 62 वर्षीय किसान गया प्रसाद बताते हैं कि पंचायत में शौचालयों का उपयोग कम है, हालांकि पूरे ग्राम पंचायत को खुले में शौच मुक्त घोषित किया गया है। प्रसाद आगे बताते हैं कि सरपंच शौचालयों के लिए आवंटित धन को नियंत्रित करते हैं और ग्रामीणों को शामिल किए बिना शौचालयों का निर्माण कराया जाता है। गांववाले कहते हैं कि निर्माण की खराब गुणवत्ता हर जगह देखी जा सकती है।
ओडिशा: केंद्रीयकरण स्वच्छता अभियान पर अडंगा
कोलकाता स्थित संस्था सीएलटीएस फाउंडेशन के संस्थापक-निदेशक कमल कार बताते हैं, “उत्तर प्रदेश, बिहार और ओडिशा जैसे राज्यों में खराब प्रदर्शन में मानो एक-दूसरे से प्रतिस्पर्धा है।” ओडिशा में 90 लाख ग्रामीण परिवारों में से केवल 40 प्रतिशत के पास शौचालय हैं। इसके अलावा, शौचालय होने का मतलब यह नहीं है कि घर के लोग शौच के लिए बाहर नहीं जा रहे हैं। पुरी जिले के खांडाहोता ग्राम पंचायत को जल्द ही खुले में शौच मुक्त घोषित किया जाएगा क्योंकि यह 100 प्रतिशत शौचालय का लक्ष्य हासिल कर चुका है। लेकिन इनमें से अधिकतर शौचालय चारा रखने के लिए इस्तेमाल किए जा रहे हैं। निवासियों का कहना है कि खराब निर्माण के कारण शौचालय का इस्तेमाल नहीं किया जा सकता। ज्यादातर ग्रामीणों का कहना है कि गुणवत्ता को परखने और शौचालय कहां बनाए जाएं, इस पर हमारा बिल्कुल नियंत्रण नहीं है। पूरे ग्राम पंचायत में शौचालयों के निर्माण के लिए ठेकेदारों को नियुक्त करने वाले सरपंच धब्ले सुर नाइक का मानना है कि शौचालयों का इस्तेमाल न करने का कारण अलग है। नाइक कहते हैं “मेरे क्षेत्र में पानी की मांग टैंकरों से पूरी होती है। पीने के लिए पानी नहीं है तो लोग शौचालय के लिए पानी की व्यवस्था कैसे कर सकते हैं!” इसी जिले के एक और ग्राम पंचायत की स्थिति भी ऐसी ही है। निवासियों को शौचालयों का उपयोग करने में कोई दिलचस्पी नहीं है, हालांकि हर घर में शौचालय है। अधिकारी बताते हैं कि गांव के पास खुली जगह है और निवासी शौच के लिए बाहर जाना पसंद करते हैं।
निवासियों का कहना है कि बिहार और यूपी की तरह यहां भी मानसून के दौरान सोक पिट भर जाते हैं। वित्त वर्ष 2016-17 में राज्य ने स्वच्छ भारत अभियान के तहत उपलब्ध पूरी धनराशि को खर्च कर लिया है। इसका 90 प्रतिशत शौचालयों के निर्माण पर व्यय हुआ। ठोस कचरा और अपशिष्ट जल प्रबंधन पर न के बराबर धनराशि खर्च की गई। ओडिशा के अनुभव से यह स्पष्ट है कि चारों राज्यों और पूरे देश में स्वच्छ भारत अभियान के अंतर्गत शौचालयों के निर्माण पर पूरी तरह ध्यान केंद्रित किया गया जबकि ठोस कचरे और मल के प्रबंधन जैसी जरूरी आवश्यकताओं पर ध्यान नहीं दिया गया।
ओडिशा भी बिहार और यूपी की गलती को दोहरा रहा है। स्थानीय समुदायों को शामिल किए बिना शौचालय निर्माण किये जा रहे हैं। डाउन टू अर्थ के भ्रमण के दौरान गांवों में रहने वाले ज्यादातर ग्रामीणों ने कहा कि यह कार्यक्रम लक्ष्य का पीछा करने वाला अभ्यास बनकर रह गया है। शौचालयों का उपयोग करने के लिए लोगों के व्यवहार में परिवर्तन पर ध्यान नहीं दिया गया। शौचालयों की गुणवत्ता सुनिश्चित की जानी चाहिए ताकि इच्छुक लोग शौचालयों का इस्तेमाल कर सकें। हरेकुष्नपुर ग्राम पंचायत के सरपंच रामा पांडा का कहना है कि निर्माण शुरू होने से पहले लोगों को शौचालय के लाभ के बारे में बताया जाना चाहिए था। लेकिन जिले में इसके विपरीत कार्य हुआ है। पांडा आगे कहते हैं “कार्यक्रम मांग के आधार पर नहीं चल रहा है।” कटक में स्वच्छ अभियान के सलाहकार तपसवनी चौधरी की दलील है कि शौचालय निर्माण की गति इतनी तेज है कि जागरुकता अभियान शुरू करने के लिए समय नहीं मिल पा रहा है।
झारखंड: एक कदम आगे
झारखंड अन्य राज्यों से बेहतर प्रदर्शन कर रहा है। यहां 53 प्रतिशत घरों में शौचालय है। जनवरी 2017 तक पेयजल और स्वच्छता संबंधी आंकड़ों से पता चलता है कि 4,402 ग्राम पंचायतों में 73 प्रतिशत में जागरुकता की गतिविधियों अथवा प्रशिक्षण सम्बंधित गतिविधियां की गई हैं। ओडिशा, यूपी और बिहार में ऐसी गतिविधियों का अस्तित्व ही नहीं है।
झारखंड में अन्य तीन राज्यों की तुलना में शौचालयों के निर्माण और उपयोग की दरें अधिक हैं। यह अच्छे प्रशासनिक कार्यान्वयन के कारण है। झारखंड ने इस कार्य को रोचक तरीके से लागू किया जिसके अच्छे परिणाम आए। गांव स्तर की महिला स्वयं-सहायता समूह (एसएचजी) जागरुकता बढ़ाने और साथ ही शौचालयों के निर्माण की निगरानी में भी शामिल हैं। शौचालय निर्माण के लिए धन जिले के संबंधित अधिकारियों द्वारा एसएचजी के खाते में स्थानांतरित किया जाता है।
सरायकेला खरसावन जिले की पांड्रा ग्राम पंचायत की प्रेरणा महिला मंडल की प्रमुख बलवती देवी कहती हैं “हम सुनिश्चित करते हैं कि अभियान के तहत पैसा बर्बाद नहीं होना चाहिए। हम ग्रामीणों को प्रेरित करते हैं और व्यवहारिक परिवर्तन लाने की कोशिश करते हैं। हमने 100 प्रतिशत शौचालय लक्ष्य हासिल किया है और इनका उपयोग भी होता है।”
झारखंड ने भी जनवरी 2017 तक ठोस कचरा और अपशिष्ट जल प्रबंधन पर खर्च न के बराबर किया है। लेकिन राज्य ने हाल ही में इस दिशा में कदम उठाए हैं। वर्ष 2017-18 के लिए राज्य की वार्षिक क्रियान्वयन योजना के अनुसार, राज्य ने नीर निर्मल परियोजना के तहत सात विस्तृत परियोजना रिपोर्ट (डीपीआर) विकसित की हैं। नमामी गंगे के तहत ग्राम पंचायतों में ठोस कचरा और अपशिष्ट जल प्रबंधन के लिए 32 डीपीआर यूएनडीपी द्वारा विकसित किए जा रहे हैं।
नीर निर्मल परियोजना केवल असम, झारखंड, उत्तर प्रदेश और बिहार में शुरू की गई है। इसके तहत विश्व बैंक और पेयजल व स्वच्छता मंत्रालय पेयजल मुहैया कराने के साथ ग्रामीण इलाकों में स्वच्छता बनाए रखने के लिए सहायता प्रदान करता है। राज्य का पहला खुले में शौच मुक्त जिला रामगढ़ एक उदाहरण है। सामुदायिक भागीदारी और रणनीति सोच से यह संभव हुआ है। जिला अपने चट्टानी इलाके और खनिज संपदा के लिए जाना जाता है लेकिन यह पानी की कमी से ग्रस्त है। इस कारण शौचालय का उपयोग कठिन होता है। इसमें शामिल अधिकांश निवासी गरीब हैं और वे शौचालयों का निर्माण और उनका रखरखाव नहीं कर सकते। इसलिए जिला प्रशासन ने स्वच्छ भारत अभियान निधि का उपयोग गरीब और जरूरतमंद परिवारों के लाभ के लिए करने का निर्णय किया।
संपन्न लोगों की पहचान करके उन स्थानों पर गरीबों के नामों को जोड़ते हुए, लाभार्थियों की सूची से उनके नाम को हटाकर 2012 के सर्वेक्षण को सुधारने के लिए एक व्यापक अभियान शुरू किया गया था। एक मजबूत प्रशासनिक इच्छा-शक्ति और ग्रामीणों व एसबीएम अधिकारियों के बीच अच्छे समन्वय ने जिले को न केवल शौचालयों के निर्माण के लिए बल्कि स्थायी तरीके से उन्हें उपयोग करने में भी मदद की है। स्वच्छता के मुद्दों पर समुदाय को संवेदनशील बनाने के लिए प्रशासन द्वारा रात्रि चौपाल, रात्रि विश्राम, प्रशासन आपके द्वार, लोटा पानी, नुक्कड़ सभा, स्वच्छता सप्ताह आदि कार्यक्रम शुरू किए गए थे।
जिला कलेक्टर राजेश्वरी ने अभियान में रुचि ली। महिला होने के नाते गांवों की बैठकों में उनकी उपस्थिति ने महिलाओं को हिस्सा लेने के लिए प्रोत्साहित किया। रामगढ़ के कार्यकारी अभियंता, प्रभु दयाल मंडल ने कहा, “जिले में करीब 15,000 बेकार शौचालय थे, जिन्हें जिला खनिज न्यास (डीएमएफ) और विधायक निधि से कवर किया गया था।” स्वच्छ भारत अभियान के जिला समन्वयक राम कुमार कहते हैं “बेहतर निर्माण के लिए कई गांवों के लाभार्थियों ने श्रमिक के रूप में स्वयं काम किया था। क्षेत्र में दो गड्ढों वाला शौचालय डिजाइन का इस्तेमाल किया गया है।”
आगे का रास्ता
उत्तर प्रदेश में ऐसे उदाहरण भी हैं जिनमें एसबीएम के लिए पहली किस्त जारी की गई लेकिन शौचालयों का निर्माण नहीं किया गया, जहां किया भी गया वे उपयोग लायक नहीं हैं। योजना आयोग के पूर्व सदस्य सचिव एन.सी. सक्सेना ने यूनिसेफ और एमडीडब्ल्यूएस द्वारा मई, 2017 में एसबीएम की प्रगति को समझने के लिए एक बैठक आयोजित की। बैठक में उन्होंने कहा कि अपूर्ण और बेकार शौचालय के बीच अंतर मुश्किल है। एमडीडब्ल्यूएस के अनुसार चार राज्यों में लाखों की संख्या में बेकार पड़े शौचालय हैं जो स्वच्छता के मामले में खराब रिपोर्ट कार्ड दिखाते हैं। सक्सेना के मुतािबक, बिहार और ओडिशा में देखा गया है कि जहां मुखिया को लाभार्थियों के रूप में शामिल नहीं किया गया, वहां गुणवत्ता खराब थी। यहां एसबीएम सरपंच के अधीन है और वही ठेकेदारों को शामिल करता है जो शौचालयों का निर्माण करते हैं। झारखंड के रामगढ़ में मजबूत प्रशासनिक इच्छाशक्ति होने से शौचालय के निर्माण में सरोकार रखने वालों को शामिल किया गया और साथ ही डीएमएफ से बेकार पड़े शौचालयों को इस्तेमाल करने लायक बनाया गया। रामगढ़, पानी की कमी वाला क्षेत्र है जो समझता है कि पानी और स्वच्छता के बीच संबंध है।
पंचायत जिले के अधिकारियों के साथ पानी के वितरण प्रणाली व स्वच्छता के मुद्दों पर काम करती हैं। इसलिए जब भी पानी, भूमि या धन जैसे संसाधनों का संकट हो, पंचायत द्वारा वैकल्पिक व्यवस्था बनाकर इसे ग्राम स्तर पर हल किया जाना चाहिए। ग्रामीणों की कमजोर आर्थिक स्थिति के कारण ओडिशा के मेहुलिया में शौचालयों का निर्माण नहीं किया जा रहा था, लेकिन यहां पंचायत की पहल ही थी जिसने एनजीओ को सस्ते शौचालय प्रदान करने के लिए आमंत्रित किया था।
ओडिशा के तटीय जिलों में शौचालयों के उपयोग के लिए समुदाय उदासीन थे। प्रशासन उन्हें स्वच्छता और स्वास्थ्य के बीच के संबंध को समझा नहीं पाया। वहां महिलाओं और बच्चों में जलजनित बीमारियों की घटनाएं हुई थीं। यहां 99 प्रतिशत धन का उपयोग शौचालयों के निर्माण के लिए किया गया था। झारखंड के कुरु ब्लॉक जहां महिला मंडल ने समुदायों को शौचालयों के इस्तेमाल के लिए प्रेरित किया और स्वास्थ्य व स्वच्छता का संबंध एवं महिलाओं की गरिमा के बारे में बताया। ओडिशा का गंजम जिला एक कदम और आगे बढ़ते हुए शौचालयों के साथ स्नानघर के निर्माण की ओर बढ़ रहा है। जहां हितधारकों, ग्रामीणों और गांव के मुखिया और एसबीएम अधिकारियों के बीच अच्छा समन्वय होता है, वहां शौचालयों के उपयोग की दर अधिक है। धन भी आसानी से प्राप्त हो जाता है।
सभी राज्यों में सोक पिट का ऐसा डिजाइन बना दिया गया है जो समस्या के रूप में उभरकर सामने आया है। बाढ़ प्रवण क्षेत्र में अपशिष्ट जल प्रबंधन पर बहुत कम काम किया गया है, जिसे स्थानीय और यहां तक कि ब्लॉक अधिकारी भी गलत मानते हैं। तकनीकी विकल्प केवल किफायती ही नहीं बल्कि मिट्टी की स्थिति के अनुसार भी होना चाहिए। सक्सेना कहते हैं कि ठोस कचरे और अपशिष्ट जल एकत्र करने के लिए विशाल चैंबरों के निर्माण करने की प्रवृत्ति भी होती है, जो अपशिष्ट जल प्रबंधन के समझ की कमी को दर्शाता है।
लाभार्थियों द्वारा इस मुद्दे पर समझ की कमी के कारण ठेकेदारों को और अधिक धन अर्जित करने का मौका मिलता है। चार राज्यों ने 2016-17 में शौचालय निर्माण में अधिकतम प्रगति दिखाई। इस प्रकार निगरानी के चरणों का निरीक्षण नहीं किया जा सकता। लेकिन निगरानी शौचालयों की संख्या के लिए नहीं होनी चाहिए, अपितु परिणाम आधारित होनी चाहिए जैसा 2016 में किए गए दिल्ली आधारित सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट (सीएसई) का शोध कहता है। शोध पैरोकारी के लिए अच्छी तरह से विकसित संचार और शिक्षा सामग्री के बारे में बात करता है। प्रशिक्षित ग्राम जल स्वच्छता समितियों को शौचालयों के निर्माण के बारे में जागरुकता बढ़ानी चाहिए। इन राज्यों ने इसके लिए बहुत कम राशि (1 प्रतिशत से भी कम) का इस्तेमाल किया है। सीएसई का शोध अपशिष्ट जल के सुरक्षित शोधन, पुन: उपयोग और रीसाइक्लिंग पर बल देता है।
देश भर में स्वच्छ भारत अभियान के नाम पर खुले में शौच करने वालों को प्रताड़ित करने के मामले सामने आ रहे हैं। राजस्थान में तो एक सामाजिक कार्यकर्ता को पीट-पीटकर मार तक दिया गया
तारीख: 16 जून। भोर का सूरज महताब शाह कच्ची बस्ती के क्षितिज पर उभर रहा है। यह बस्ती राजस्थान के प्रतापगढ़ जिले में स्थित एक गैरकानूनी झुग्गी है। नगर परिषद के तीन कर्मचारियों के साथ-साथ कमिश्नर अशोक जैन स्वयं उपस्थित हैं। सबकी निगाहें सामने टिकी हैं जहां झुग्गियों से लोग निकल रहे हैं। जैसे ही कुछ महिलाएं नित्य क्रिया से निवृत्त होने हेतु एक खुले मैदान में उकडूं बैठती हैं, ये महानुभाव तस्वीरें खींचना शुरू कर देते हैं। सच्चाई जो भी हो, कम से कम उन महिलाओं को तो ऐसा ही प्रतीत होता है और वे इन अधिकारियों के समीप आते ही मदद की गुहार लगाने लगती हैं। चालीस पार के एक अधेड़ सामाजिक कार्यकर्ता जफर हुसैन उनकी मदद को आगे आते हैं। अधिकारियों को उनकी यह हरकत नागवार गुजरती है और यह हस्तक्षेप एक उग्र झगड़े की शक्ल अख्तियार कर लेता है। कुछ घंटे बीतने के बाद जफर हुसैन को मृत घोषित कर दिया जाता है। वह अपने पीछे पत्नी रशीदा और दो बेटियों को छोड़ गए हैं।
सामाजिक कार्यकर्ताओं से बातचीत के बाद डाउन टू अर्थ ने अपने विश्लेषण में पाया कि अत्यधिक दबाव की वजह से कर्मचारी हर तरह के तिकड़म अपना रहे हैं। खुले में शौच कर रहे लोगों को देखकर सीटी बजाने से लेकर सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) के अंतर्गत मिलनेवाली सुविधाओं से वंचित रखा जाना इनमें प्रमुख है। यही नहीं, कुछ “कसूरवारों” को तो भारतीय दंड संहिता की विभिन्न धाराओं के अंतर्गत गिरफ्तार किए जाने के कई मामले भी सामने आए हैं।
एक अनकहा फरमान
स्वच्छ भारत मिशन के कर्मचारियों द्वारा धड़ल्ले से प्रयोग में लाई जा रही दमनकारी हरकतें दिशानिर्देशों के बिल्कुल विपरीत हैं। ये नीतियां जनता में व्यवहारवादी परिवर्तन लाने की पक्षधर हैं। यह परिवर्तन गहन आईईसी (सूचना, शिक्षा और संचार) एवं सामाजिक पक्षधरता के माध्यम से लाया जाना है जिसमें गैर सरकारी संगठनों, पंचायती राज संस्थानों एवं संसाधन संगठनों की भागीदारी अपेक्षित है।
डाउन टू अर्थ के स्वतंत्र विश्लेषण के अनुसार 2016-17 की कालावधि में सरकार ने आवंटित राशि का मात्र 0.8 प्रतिशत जागरुकता अभियानों पर खर्च किया है जबकि एसबीएम के दिशानिर्देशों के मुताबिक, यह राशि कुल आवंटन का आठ प्रतिशत होनी चाहिए। ओडिशा के पुरी जैसे जिलों में तो हालात ऐसे हैं कि जिलाधीश हो या एसबीएम समन्वयक, किसी को स्वच्छता से संबंधित इन आईईसी कार्यक्रमों की कोई जानकारी नहीं थी। यही नहीं, एसबीएम अधिकारियों द्वारा अपनाए जा रहे कुछ हथकंडे तो आम नागरिकों के संविधान प्रदत्त अधिकारों का हनन करते हैं। मिसाल के तौर पर छत्तीसगढ़ के बालोद जिले के कपासी गांव में सीसीटीवी कैमरे लगे हैं जो खुले में शौच कर रहे लोगों पर नजर रखते हैं। अब भला ग्राम पंचायत क्यों पीछे रहे। खुले में शौच करने वाले “अपराधियों” पर 500 रुपये के जुर्माने का प्रावधान है। यही नहीं, ऐसी घटनाओं के बारे में जानकारी देनेवाले पुरस्कार के भी हकदार होते हैं। पश्चिम बंगाल का नदिया जिला तो एक कदम और भी आगे है जहां प्रशासन एवं कुछ चुनिंदा ग्राम पंचायतों ने एक वाल ऑफ शेम (शर्म की दीवार) बनाई है जिस पर खुले में शौच कर रहे लोगों के नाम एवं तस्वीरें लगाई जाती हैं।
इन कदमों के फलस्वरूप कपासी को अपने जिले का पहला खुले में शौच मुक्त गांव का दर्जा हािसल हुआ है। ओडिशा के एक मानवाधिकार संगठन, सोलिडेरिटी फॉर सोशल इक्वेलिटी के कार्यकारी निदेशक प्रशांत कुमार होता कहते हैं “यह संविधान के इक्कीसवीं अनुच्छेद द्वारा प्रत्याभूत निजता के अधिकार का सीधा उल्लंघन है।” इस अनुच्छेद के मुताबिक “किसी भी व्यक्ति को उसके जीवन या दैहिक स्वतंत्रता से तब तक वंचित नहीं किया जा सकता है जब तक ऐसा करना विधि द्वारा निर्धारित प्रक्रिया के अंतर्गत न हुआ हो।”
छत्तीसगढ़ में जन स्वास्थ्य अभियान से जुड़ी कार्यकर्ता सुलक्षणा नंदी तो बताती हैं कि कई जिलों में ऐसे हथकंडों को जिला प्रशासन एवं राज्य सरकारों का संरक्षण प्राप्त है। छत्तीसगढ़ के जशपुर जिले में अधिकारियों ने करीब दो हजार प्राथमिक एवं माध्यमिक स्तर के स्कूली छात्रों को निर्देश दिया है कि वे खुले में शौच करनेवाले अपने परिवारजनों एवं पड़ोसियों के नाम गोपनीय तौर पर जमा करें। राज्य सरकार ने जिला प्रशासन द्वारा अपनाई जा रही इस प्रक्रिया की सराहना की है और इसे “स्वच्छता बैलट” का नाम दिया है। इस तरीके को अन्य जिलों में लागू करने की भी सरकारी मंशा है।
इसी साल के फरवरी महीने में मध्यप्रदेश के छिंदवाड़ा ज़िले में स्थित माली ग्राम पंचायत के जनप्रतिनिधि ने तुमदार गांव के निवासियों को ग्राम सभा की बैठक में निर्देश दिया कि वे अपने घरों में शौचालय बनवा लें। ऐसा न कर पाने की स्थिति में ग्रामीणों को सरकारी सुविधाओं, खासकर जन वितरण प्रणाली के तहत मिलनेवाले राशन से वंचित करने की धमकी दी गयी है। इस फरमान के खिलाफ ग्रामीणों ने जिलाधिकारी को एक ज्ञापन सौंपते हुए गांव में मुकम्मल जलापूर्ति की अनुपलब्धता होने की बात से अवगत कराया। जिलाधिकारी के हस्तक्षेप के उपरांत ग्राम पंचायत ने अपना यह आदेश निरस्त किया। इसी दौरान रीवा जिले की कोटा ग्राम पंचायत के अधिकारियों ने ग्रामीणों को निर्देश दिया कि वे जुलाई के महीने तक शौचालय बनवा लें अन्यथा उन्हें राशन नहीं दिया जाएगा।
मध्यप्रदेश के एक दूसरे खाद्य अधिकार कार्यकर्ता सचिन जैन का कहना है “गरीब जनता को अनाज से वंचित रखना ग़ैरकानूनी है। हमें यह समझना होगा कि राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम की विधिक रूपरेखा के अंतर्गत नागरिकों को इमदादी (सब्सिडाइज्ड) दरों पर राशन पाने का अधिकार प्राप्त है। नियमों के मुताबिक शौचालय पात्रता या निषेध का मापदंड नहीं है।” नई दिल्ली के सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च में वरिष्ठ विजिटिंग फेलो फिलिप कुले कहते हैं, “हम परिस्थितियों में लगातार बदलाव देख रहे हैं। जहां पहले मौलिक अधिकारों को जनता के हक के तौर पर देखा जाता था वहीं अब स्वयं नागरिकों को अपने अधिकारों के कुछ पहलुओं के लिए जिम्मेदार ठहराया जा रहा है। इसके फलस्वरूप सरकारों एवं नागरिकों के परस्पर संबंधों में आमूल चूल परिवर्तन आया है।”
प्रचार या अत्याचार?
स्वच्छता के मुद्दे को जन-जन तक पहुंचाने के लिए नरेंद्र मोदी की सरकार ने अमिताभ बच्चन, कंगना राणावत, शिल्पा शेट्टी, रवि किशन, ईशा कोप्पिकर एवं अनुष्का शर्मा जैसी नामचीन हस्तियों की सहायता ली है। जनता को खुले में शौच करने से उत्पन्न होनेवाली समस्याओं के बारे में जागरूक कर पाने में ये विज्ञापन कितने सफल हो पाए हैं, इसका अभी से अनुमान लगाना जल्दबाजी होगी। ऐसी आशंका जरूर प्रकट की जा रही है कि ऐसे विज्ञापन “दीन-हीन एवं मैले” लोगों के प्रति एक घृणा का भाव उत्पन्न कर सकते हैं। जादूगर वाले प्रचार में बच्चाजी बच्चनजी से गुजारिश करता है कि वे जादूगर फिल्म की शूटिंग के दौरान सीखा हुआ कोई जादू दिखाएं। जादूगर के रूप में अमिताभ बच्चन एक वृक्ष की ओर पत्थर फेंकते दिखते हैं जिसके कारण चिड़िया अपने घोंसलों से डरकर उड़ जाती हैं। बच्चनजी का यह कमजोर जादू बच्चाजी को प्रभावित कर पाने में असफल रहता है और वे स्वयं दूसरी दिशा में एक पत्थर फेंकते हैं। उनके ऐसा करते ही हाथों में बाल्टियां एवं मग्गे लिए लोग नजर आते हैं। यहां यह बताने की जरूरत शायद न हो कि यह जनता खुले में शौच करने की अपराधी है और पत्थर खा रही है।
इसी तरह के एक “दरवाजा बंद” प्रचार में हम बच्चन साहब को “अपराधियों” को देखकर सीटियां बजाता पाते हैं। एक अन्य प्रचार में अनुष्का शर्मा महिलाओं एवं स्कूली बच्चों को उन्हीं “अपराधियों” पर तंज कसने हेतु उकसाती हुई दिखती हैं। ये कुछ ऐसे प्रचलित हथकंडे हैं जिनका इस्तेमाल एसबीएम के कर्मचारी जनता को शौचालय बनाने के लिए मजबूर करने में ला रहे हैं। ऐसी हरकतों के फलस्वरूप “उन लोगों” (जिनका इन प्रचारों के माध्यम से मजाक उड़ाया जा रहा है) का गुस्सा परवान चढ़ रहा है।
तमिलनाडु के सूखा पीड़ित जिले तूतीकोरिन की ग्राम पंचायत तित्तमपट्टी में उन लोगों को मनरेगा (महात्मा गांधी ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम) के तहत काम देने से इनकार कर दिया गया जिनके घरों में शौचालय नहीं हैं। फरवरी में जारी किए गए इस मौखिक आदेश के फलस्वरूप करीब दो सौ किसानों को मनरेगा के अंतर्गत मिलने वाले रोजगार से वंचित रहना पड़ा। ऐसा तब हो रहा है जब राज्य सरकार ने सौ दिनों की इस योजना में पचास और दिनों की वृद्धि की ताकि सूखा पीड़ित किसानों को थोड़ी राहत प्रदान की जा सके।
इस तुगलकी फरमान का विरोध करते हुए एक सत्तर वर्षीय किसान सी सुबैय्या ने मद्रास हाई कोर्ट में याचिका दायर की है। वहीं हरियाणा में पंचायत चुनावों के तीन प्रतिभागियों ने हरियाणा पंचायत राज (संशोधन) एक्ट, 2015 के खिलाफ कानून की शरण ली है। इस एक्ट के मुताबिक, केवल वही प्रतिभागी पंचायत चुनाव लड़ने हेतु योग्य हैं जिनके घरों में शौचालय हों।
प्रार्थी ने दलील दी है कि यह संशोधन संविधान के चौदहवें अनुच्छेद का उल्लंघन करता है जिसके अनुसार “सभी व्यक्तियों को राज्य के द्वारा कानून के समक्ष समानता और कानून का समान संरक्षण प्राप्त होगा”। कोर्ट ने इस संशोधन को सही ठहराया है। हालांकि ऐसे उदाहरण सीमित हैं फिर भी जानकारों का मानना है कि अल्पकालीन समाधानों पर टिकी इस प्रणाली के घातक परिणाम हो सकते हैं।
(सुष्मिता सेनगुप्ता, रश्मि वर्मा और स्निग्धा दास)
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