लगातार दो शासन काल में जिस पैमाने पर जनता के पैसों की लूट हुई है, उसने भ्रष्टाचार विरोधी मुहिमों को असफल साबित कर दिया है।
सत्ताधारी एनडीए सरकार को चार साल पूरे हो गए हैं। यूपीए सरकार के दौरान चले भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलनों ने एनडीए को फायदा पहुंचाया और सत्ता की चाबी सौंपने में अहम भूमिका निभाई। लंबे समय बाद प्रचंड बहुमत से नरेंद्र मोदी की अगुवाई में बनी एनडीए सरकार से लोग उम्मीद पाल बैठे कि भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने के लिए ठोस कदम उठाए जाएंगे क्योंकि यह एजेंडा एनडीए की प्राथमिकताओं में शामिल था। लेकिन क्या लोगों की उम्मीदों को पूरा किया गया? भ्रष्टाचार के मामले में क्या आज भी देश उसी जगह नहीं खड़ा है जिस जगह यूपीए सरकार के दौरान खड़ा था?
भ्रष्टाचार का मुद्दा कुछ सप्ताह पहले फिर लौट आया है। अब यह चर्चा का विषय बन रहा है। ऐसा इसलिए क्योंकि बड़ी मछलियां सरकार और जनता की गाढ़ी कमाई डकार रही हैं। यह 2012-14 के उस दौर की याद दिलाता है जब अरबों के घोटालों के आरोप लगाए गए थे। इस समय सुर्खियां भी उसी वक्त जैसी हैं, साथ ही सरकार की प्रतिक्रयाएं भी कमोवेश वैसी ही हैं। हाल ही में वैश्विक गैर लाभकारी स्वतंत्र संस्था ट्रांसपैरेंसी इंटरनेशनल ने एशिया पैसिफिक क्षेत्र में भारत को सबसे भ्रष्ट देश बताया है। इस दौर में भी उस वक्त जैसे ही बड़े घोटाले सामने आ रहे हैं। पिछले दौर की तरह इस वक्त भी अर्थव्यवस्था निराशा पैदा कर रही है और मध्य वर्ग के ड्रॉइंग रूम में घड़गड़ाहट हो रही है। लेकिन इस कॉलम का इससे कोई संबंध नहीं है।
लगातार दो शासन काल में जिस पैमाने पर जनता के पैसों की लूट हुई है, उसने भ्रष्टाचार विरोधी मुहिमों को असफल साबित कर दिया है। भ्रष्टाचार ने सबसे ज्यादा गरीबों का प्रभावित किया है। यह सर्वविदित है कि खुद को पालने की क्षमता न होने के बावजूद गरीबों को मूलभूत सुविधाओं के लिए अच्छा खासा भुगतान करना पड़ता है। ट्रांसपैरेंसी इंटरनेशनल की रिपोर्ट बताती है कि सार्वजनिक सेवाओं को हासिल करने के लिए 10 में से 7 लोग रिश्वत देते हैं।
लेकिन हम लोग भ्रष्टाचार पर उस वक्त ध्यान देते हैं जब धोखाधड़ी के बड़े मामले सामने आते हैं। गरीबों की रोजमर्रा की जिंदगी जिससे सबसे अधिक प्रभावित होती है, उसे बारे में शायद की कोई बात या गंभीर चर्चा होती है। आखिर ऐसा क्यों है? गरीब को प्रभावित करने वाला भ्रष्टाचार शासन की गुणवत्ता और उसकी प्रभावशीलता से सीधा जुड़ा है। किसी जिले में स्वास्थ्य सेवाओं को हासिल करने के लिए अगर रिश्वत देनी पड़े तो यह तंत्र की असफलता है और यह बताती है कि शासन ढहने वाला है। हमने शायद ही कभी ऐसी स्थिति पर लोकप्रिय विरोध देखा हो। इसके उलट राजनेता बड़ी चतुराई से इसका इस्तेमाल गरीब और अमीर के बीच वोटों के ध्रुवीकरण के लिए करते हैं।
इस वक्त नोटबंदी के अनुभव पर नजर डालते की जरूरत है। एनडीए सरकार का दावा है कि भ्रष्टाचार को खत्म करने के लिए उठाया गया यह सबसे बड़ा कदम है, भले ही इसका प्रत्यक्ष प्रमाण दिखाई न दे। यह धारणा बनी कि इसने अमीरों को सबसे अधिक प्रभावित किया। गरीबों ने शुरुआती दिनों में जरूर इसे बर्दाश्त किया, यह सोचकर कि वह अमीरों से बदला ले रहा है। लेकिन इनसे राजनेताओं के हितों की सबसे अधिक पूर्ति की। एक साल बाद गरीब उसी स्थिति में है। मूलभूत सुविधाओं के लिए रिश्वत देने का सिलसिला नहीं थमा। हालिया सर्वेक्षण बताता है कि भारतीय स्वास्थ्य और शैक्षणिक सेवाओं के लिए सबसे ज्यादा रिश्वत देते हैं। 73 प्रतिशत रिश्वत निम्न आय वर्ग समूह द्वारा दी जाती है।
बैंक धोखाधड़ी के हाल में सामने आए मामलों में सरकार ने बड़े स्तर पर छापेमारी की और संपत्तियों को सील किया जिससे शायद ही धोखाधड़ी की रकम वसूल हो पाए। लेकिन अमीरों के खिलाफ इन “सख्त” कदमों की घोषणा करके सरकार अमीर और गरीबों के बीच ध्रुवीकरण कर रही है।
लेकिन ऐसा लगता है कि गरीब अब झांसे में नहीं आएंगे। किसानों के प्रदर्शन, मूलभूत सुविधाओं को आधार से जोड़ने से जुड़ी याचिकाएं किसानों के मुद्दों को मंच प्रदान कर सकती हैं। ये संकेत बताते हैं कि भ्रष्टाचार को खत्म करने के फैंसी तरीके कारगर नहीं होंगे। बल्कि अब तो विकास की मांग उठ रही है। गरीब को प्रभावित करने वाले भ्रष्टाचार से लड़ने का यही सही तरीका है।
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