पर्यावरण मंत्रालय के अधिकारियों ने कहा कि नए कानून का ठोस खाका अभी नहीं है, इसकी तैयारी चल रही है, जल्द ही यह तैयार हो जाएगा।
दिल्ली-एनसीआर में सर्दियों के वक्त खराब होने वाली वायु गुणवत्ता को ठीक करने के लिए केंद्र सरकार एक और नया कानून लाने का मन बना रही है। इस कानून का स्वरूप, दायरा क्या होगा और इसके प्रावधान क्या होंगे, यह सारे विचार अभी पाइपलाइन में है। लेकिन नए कानून की सुगुबुगाहट ने पुराने कानूनों के अनुपालन और प्रदूषण नियंत्रण के लिए उपलब्ध क्षमताओं में कमी की बहस को कुछ पल के लिए टाल दिया है। वहीं, वायु प्रदूषण के नए कानून की जरूरत पर भी विशेषज्ञ सवाल उठाने लगे हैं।
डाउन टू अर्थ ने केंद्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्रालय के वरिष्ठ अधिकारियों से नए कानून के मसले पर बातचीत की लेकिन अधिकारियों ने नाम न जाहिर करने की शर्त पर कहा "नए कानून का ठोस खाका अभी नहीं है, इसकी तैयारी चल रही है, जल्द ही यह तैयार हो जाएगा। सोमवार को सुप्रीम कोर्ट में वायु प्रदूषण के मामले पर सुनवाई के दौरान केंद्र की ओर से यह कहा गया था कि दिल्ली-एनसीआर में वायु प्रदूषण नियंत्रण के लिए सरकार नए कानून पर काम कर रही है।
दिल्ली और आस-पास के शहरों में सर्दियों ( अक्तूबर-दिसंबर ) के दर्मियान अक्सर वायु गुणवत्ता आपात अवस्था में पहुंच जाती है। इसकी वजह से शहर की गतिविधियों को थामने की भी जरूरत पड़ती है। कानूनों और अदालती आदेशों के अनुपालन को लेकर सियासी पार्टियों के बीच आरोप-प्रत्यारोप का खेल भी चलता है और सर्दियां बीत जाती हैं। आखिर नया कानून इस समस्या का समाधान कैसे करेगा?
सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट (सीएसई) की कार्यकारी निदेशक अनुमितारॉय चौधरी ने कहा कि इस कानून का दायरा और प्रकृति क्या है, अभी यह स्पष्ट नहीं है। यह भी नहीं पता है कि इस कानून का इस्तेमाल कहां और किस लिए होगा। इन सब बातों के लिए कानून आने का इंतजार है। लेकिन नया कानून वायु प्रदूषण की समस्या का हल है, यह एक संशकित करने वाली बात है। उन्होंने कहा कि देश में बेहद मजबूत कानून पहले से मौजूद हैं। साथ ही सुप्रीम कोर्ट के भी कई अहम आदेश मौजूद हैं। वायु प्रदूषण नियंत्रण के लिए कंप्रिहेंसिव एक्शन प्लान भी केंद्र के जरिए अधिसूचित किया जा चुका है। इन सबके बावजूद अभी तक यही देखा गया है कि वायु प्रदूषण नियंत्रण और रोकथाम के रास्ते काफी हैं लेकिन असली सवालों और समस्याओं को कम करने के लिए काम नहीं किया गया है। वायु प्रदूषण नियंत्रण में पहले से मौजूद कानून कहीं बाधा नहीं बनते हैं। सबसे बड़ी मुसीबत कानून और नियमों व आदेशों के अनुपालन की ही रही है।
डाउन टू अर्थ ने देश में पहली बार वायु प्रदूषण की समस्या को सुप्रीम कोर्ट पहुंचाने वाले वरिष्ठ अधिवक्ता एमसी मेहता से बातचीत की। उन्होंने कहा कि नया कानून लाने का कथन चकमा देने जैसा है। यदि कोई भी कानून वायु प्रदूषण नियंत्रण गतिविधियों के लिए सरकार को रोकता है, या उन्हें कानून में कहीं कमी लगती है तो सरकार को उस कानून को सुप्रीम कोर्ट को पहले बताना चाहिए था। लेकिन ऐसा लगता है कि यह मामला अब सियासी हो गया है। वायु प्रदूषण नियंत्रण के लिए सरकारों द्वारा अदालत के आदेशों का आज तक गंभीरता से अनुपालन नहीं किया गया। वायु प्रदूषण मामले में कई समितियों की रिपोर्ट भी हैं जो यह बात स्पष्ट तौर पर बताती हैं, नया कानून समस्या का समाधान बिल्कुल नहीं है।
अनुमितारॉय चौधरी ने कहा कि वेस्ट बर्निंग जैसे मुद्दों में कानूनों के लिए उपकानून तक बनाए जा चुके हैं। मिसाल के तौर पर दिल्ली में नगर निगम द्वारा कूड़ा-कचरा जलाने की रोकथाम के लिए 2016 में अधिसूचित किए गए ठोस कचरा अपशिष्ट प्रबंधन अधिनियम के हिसाब से बाईलॉज बनाए जा चुके हैं। लेकिन अब भी कूड़े-कचरे के संग्रहण से लेकर निस्तारण तक के समूचे चैनल को मजबूत बनाने के लिए संरचनाओं में जो निवेश किया जाना चाहिए वह नहीं किया जा सका है। निगरानी और गुणवत्ता बढ़ाने वाली संरचनाओं में निवेश और क्षमताओं का विकास यह दो कसौटी हैं जिस पर वायु प्रदूषण का नियंत्रण किया जाना है। इसमें कहीं भी कानून आड़े नहीं आता है। मसलन दिल्ली में ट्रांसपोर्ट सुधार एक बड़ा विषय है। यदि पैसा नहीं होगा और मॉडल इंट्रीगेशन ट्रांसपोर्ट के लिए ढ़ांचा नहीं होगा तो कानून कैसे काम करेगा।
वहीं, कानूनों की बात की जाए तो देश में आजादी के तुरंत बाद फैक्ट्रियों और ज्वलनशील गतिविधियों से होने वाले वायु प्रदूषण की रोकथाम के लिए कई कानून बने जो अप्रत्यक्ष तौर पर प्रभावी रहे। लेकिन विस्तृत और प्रत्यक्ष तौर पर वायु प्रदूषण नियंत्रण के लिए कानून 1981 में बना। इसके बाद पर्यावरण संरक्षण कानून, 1986 आया और फिर मोटर व्हिकल एक्ट, 1988 और वर्ष 2000 में ओजोन क्षरण के लिए एक कानून लाया गया। कानूनों के अलावा वायु प्रदूषण नियंत्रण के लिए कई अंतरराष्ट्रीय समझौते और करार भी हुए। इनमें गैसीय सल्फर की कमी के लिए हेलसिंकी प्रोटोकॉल, नाइट्रोजन ऑक्साइड की कमी के लिए सोफिया प्रोटोकॉल, हजार्ड्स वेस्ट से प्रदूषण नियंत्रण के लिए 15 मार्च, 1990 को किया गया बेसल कन्वेंशन, स्टॉकहोम कन्वेंशन,लीमा क्लाइमेट चेंज कॉन्फ्रेंस प्रमुख रहे। वहीं प्रमुख अदालती आदेशों के मामले में सबसे पहले 1981 में एमसी मेहता के जरिए आगरा के ताज ट्रिपेजियम जोन का मामला सुप्रीम कोर्ट में पहुंचा था। इसके बाद 1985 में दिल्ली में वाहनों से वायु प्रदूषण का मामला भी एमसी मेहता ने सुप्रीम कोर्ट में उठाया। वर्ष 2002 में वेल्लोर सिटीजन वेलफेयर फोरम का एक मामला भी वायु प्रदूषण से ही जुड़ा हुआ सुप्रीम कोर्ट पहुंचा। इसके बाद नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (एनजीटी) में एनजीटी में डीजल वाहनों से संबंधित वर्धमान कौशिक बनाम भारत सरकार का भी मामला पहुंचा।
इन कानूनों और अदालती मामलों में दिए गए आदेशों के बाद भी वायु गुणवत्ता निगरानी, सार्वजनिक ट्रांसपोर्ट की मजबूती, पावर प्लांट, वाहनों से प्रदूषण, पराली प्रबंधन जैसे मुद्दों पर अभी तक कोई ठोस सफलता दिल्ली-एनसीआर में प्राधिकरणों को नहीं मिली है। सर्दियों में वायु प्रदूषण मुद्दा गर्म जरूर हो जाता है। दिल्ली-एनसीआर के लिए वायु प्रदूषण नियंत्रण कानून की सफलता यदि आए भी तो यह कैसे उपयोगी हो सकता है? इस पर अनुमितारॉय चौधरी कहती हैं कि एक बहु सरकारी उत्तरदायित्व वाली एजेंसी का निर्धारण, कानून-नियमों का अनुपालन और आदेशों का अनुालन न होने पर दंडात्मक कार्रवाई वाली प्रक्रिया (डिटरेंस मैकेनिज्म) पर जोर देने वाला यदि कानून होता है तो वह शायद उपयोगी हो।
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