किसी को नहीं पता कि आपदा के वक्त वास्तव में कितने लोग केदारघाटी, बदरीनाथ और हेमकुंड साहिब के रास्तों पर थे।
सुशील उपाध्याय
केदारनाथ फिर चर्चा में है। उन कंकालों की वजह से जो कभी जिंदा इंसान के तौर पर तीर्थयात्रा पर आए थे। ये लोग जून, 2013 की उत्तराखंड आपदा के उन बदनसीबों में थे, जिन्हें न सरकार बचा पाई थी और न ही सेना। अब केदारनाथ और आसपास के जिस भी ट्रैक पर लोग जा रहे हैं, वहां नर कंकाल मिल रहे हैं। कड़वा सच यही है कि आगे भी मिलते रहेंगे। क्योंकि किसी को नहीं पता कि आपदा के वक्त वास्तव में कितने लोग केदारघाटी, बदरीनाथ और हेमकुंड साहिब के रास्तों पर थे। जिस आपदा में 20 हजार घर ढह गए हों, 2000 हजार किमी सड़कें ध्वस्त हुई हों और 200 गांव बर्बाद होने की स्थिति में पहुंच हों, उसकी भयावहता के बारे में कोई भी अनुमान लगाना आसान नहीं होगा। जो लेाग पहले कभी केदारनाथ जा चुके हैं, उन्हें केदारनाथ से पहले पड़ने वाले रामबाड़ा का स्मरण जरूर होगा। लेकिन, आपदा के बाद न केदारनाथ बचा और न रामबाड़ा। इनसे पहले के दो छोटे पहाड़ी कस्बों गौरीकुंड और सोनप्रयाग का ज्यादातर हिस्सा दफन हुआ। इनके साथ अनगिन जंगली जानवर और प्रकृति का स्वनिर्मित तंत्र भी ध्वस्त हो गया।
टूटती झीलें, खिसकते पहाड़, उफनती नदियां, ध्वस्त होते मकान और बहती बस्तियां, कुल मिलाकर ये उत्तराखंड का एक स्थायी चित्र है। कुछ साल पहले हेमकुंड जाने वाले रास्ते पर ग्लेश्यिर टूट चुका है, उत्तरकाशी और चमोली के भूकंप भी हजारों जान ले चुके हैं। बात साफ है कि प्रकृति के व्यवहार को नियंत्रित नहीं किया जा सकता। इस बात की भी कोई गारंटी नहीं ले सकता कि आने वाले समय में ऐसे फिर हादसे नहीं होंगे। अब, इसमें भी कोई छिपी हुई बात नहीं है कि इन हादसों के पीछे प्राकृतिक संतुलन में मानव-दखल भी एक बड़ा कारण है।
नए प्रदेश के गठन के बाद की सरकारों ने इस बात के लिए लगातार खुद की पीठ थपथपाई है कि उत्तराखंड देश का अकेला ऐसा राज्य है जहां आपदा के लिए अलग विभाग स्थापित किया गया है। यह दावा भी किया गया कि किसी भी आपदा की स्थिति से निपटने के लिए अर्ली वार्निंग सिस्टम भी बनाया गया है। लेकिन, इस तंत्र और निर्देशों की सच्चाई आपदा के दौरान नंगे रूप में सामने आ गई। कटु यथार्थ यह है कि हादसे के वक्त राज्य में सरकार नाम की कोई चीज ही दिखाई नहीं दी। मुख्यमंत्री और मंत्रियों को तीन दिन बाद इस बात की सुध आई कि उन्हें हवाई सर्वे करना चाहिए और सेना से मदद मांगनी चाहिए।
वैसे, आज भी प्रदेश के लोगों को इस बात का जवाब नहीं मिला कि उत्तरकाशी, श्रीनगर, देवप्रयाग, रुद्रप्रयाग, सोनप्रयाग, अगस्त्यमुनि में नदियों के अंदर तक जाकर होटल बनाने और बस्तियां बसाने की अनुमति आखिर किन अधिकारियों ने दी? बिजली उत्पादन बढ़ाने के नाम पर बीते बरसों में जगह-जगह बिजली-परियोजनाओं की अनुमति देने वाले पहले क्या सच में स्थानीय प्राकृतिक परिवेश का ध्यान रखा गया? पहाड़ों के मनमाने व्यवहार को जंगल और पेड़ नियंत्रित कर सकते हैं, लेकिन उनकी कटाई धड़ाधड़ जारी है। रही-सही कसर खनन से पूरी हो रही है। रेत-बजरी के लिए नदियों को जहां-तहां खोद दिया जाता है और यह सिलसिला बरसों-बरस तक चलता है। झील, नदी-नाले और पहाड़ सरकार से नहीं डरते। वे हजारों साल से जैसा व्यवहार करते हैं, आगे भी ऐसा ही करते रहेंगे। लेकिन, सरकार या लोग यदि ऐसा सोचते हैं कि प्रकृति को उनकी जरूरत के अनुरूप व्यवहार करना चाहिए तो वे भ्रम में हैं। प्रकृति ने पिछली बार जैसा झटका दिया है, आगे भी वह वैसा ही झटका दे सकती है। लेकिन, उत्तराखंड सबक सीखेगा? अतीत के अनुभव तो यही बताते हैं कि इस सवाल का जवाब नहीं में है। यानि, कंकाल मिलने का सिलसिला आगे भी चलेगा!
एक और चिंताजनक आंकड़ा यह है कि 2010 से पहले प्रदेश में 233 गांव ऐसे थे जो किसी भी समय ऐसे हादसे का चपेट में आ सकते हैं। उत्तराखंड आपदा के बाद इन गांवों की संख्या 450 तक पहुंच गई है। इन गांवों के विस्थापन की बात लगातार हो रही है, लेकिन इस पर अमल अभी दूर की कौड़ी है। यानि, इन गांवों और इनके हजारों लोगों पर आने वाले दिनों में भी खतरा बना रहेगा।
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