यह मुहिम केवल संभ्रांत वर्ग तक सीमित नहीं है। सभी वर्गों की महिलाओं के पास मीटू अनुभव है जो साझा किया जा सकता है
मीटू अभियान के बारे में ओडिशा के एक छोटे से जिले की चाय की दुकान, निम्न मध्यम वर्ग के ड्रॉइंग रूम, आंगनवाड़ी कार्यकर्ताओं और प्रसूति वार्ड के गलियारों तक में चर्चाएं हैं। इस अभियान के बारे में यह धारणा भी बन रही है कि यह साधन संपन्न लोगों और मीडिया व फिल्म जगत तक ही सीमित है। लेकिन उपरोक्त स्थानों पर इसके चर्चा के केंद्र में रहने का दूसरा संकेत भी मिलता है।
साल 2012 में नई दिल्ली में 23 साल की युवती का चलती बस में सामूहिक बलात्कार हुआ। मीडिया ने पीड़िता को निर्भया नाम दिया। इस एक घटना ने देश में महिला की सुरक्षा और स्थिति पर राष्ट्रव्यापी बेहस छेड़ दी। इस तरह कोई तर्क दे सकता है कि मीटू मुहिम 2012 में शुरू हुए विरोध का परिष्कृत रूप है। लोग प्रताड़ना के खिलाफ खुलकर सामने आ रहे हैं, सशक्त महसूस कर रहे हैं और उन्हें लोगों का समर्थन भी मिल रहा है। जो इस मुहिम को खारिज कर रहे हैं उन्हें समकालीन भारत में महिलाओं की भूमिका और बदलती परिस्थिति पर गौर करना चाहिए।
महिलाओं को मतदाता के तौर पर मान्यता मिली है और राजनीतिक दल इतने बड़े वर्ग के प्रति उदासीन नहीं रह सकते। महिलाएं पुरुषों के मुकाबले अधिक संख्या में मतदान के लिए निकल रही हैं। बड़ी संख्या में मतदाताओं को प्रभावित करने वाली योजनाओं और स्थानीय शासन में महिलाओं भूमिका बढ़ी है। उदाहरण के लिए एक आंगनवाड़ी कार्यकर्ता प्रतिदिन 30-40 महिलाओं के संपर्क में रहती है। इसी तरह एक गांव में स्वंसेवी समूह की सदस्य कम से 20 परिवारों की आर्थिक गतिविधियों को प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करती है। हमारे स्थानीय शासन में 13 लाख महिलाएं हैं जो ग्रामीण विकास कार्यक्रमों को लागू कराने में अहम भूमिका निभाती हैं। प्रभावकारी होने के कारण सभी राजनीतिक दल महिलाओं से फायदा उठाना चाहते हैं। सभी के पास साझा करने के लिए शायद मीटू अनुभव है।
क्या यह अभियान बड़े शहरों से बाहर पहुंच पाएगा? हाल ही में यह सवाल मैंने एक आंगनवाड़ी कार्यकर्ता से पूछा। उसका स्पष्ट जवाब था, “यह हमारा भी है और हम लोग अवसर की तलाश में हैं।” उन्होंने और स्पष्ट करते हुए बताया, “प्रतिदिन बाजार में अपने उत्पाद बेचकर आते वक्त, घर में लगातार घंटों काम करते वक्त, जन स्वास्थ्य केंद्रों में दवा लेते वक्त और पंचायत सदस्य के तौर पर अपनी शक्ति का इस्तेमाल करते वक्त हम बहुत-सी बाधाएं और प्रताड़ना झेलती हैं।” यह उनका मीटू अनुभव था। वह बताती हैं, “जब बड़े लोग बोलते हैं तो सभी ध्यान देते हैं। जब सभी किसी घटना पर ध्यान देते हैं तब राजनेताओं के लिए उस पर ध्यान देना बहुत आसान होता है। और जब राजनेता हमारी चिंताओं पर ध्यान देते हैं तो हमें उस अवसर को समस्या के समाधान के रूप में देखना चाहिए।”
वह अपने अस्तित्व के लिए जरूरी मजदूरी का नियमित भुगतान, घर में शौचालय, अच्छा सरकारी स्कूल जिसमें अध्यापक हो और एक ऐसा परिवार जहां महिलाओं को सम्मान मिले आदि समस्याओं का जिक्र करती है। वह जमीन के एक छोटे से हिस्से में खेतीबाड़ी करती है, अपना उत्पाद बेचने के लिए कई किलोमीटर पैदल चलती है और इसके बाद पैसों को अपने पति के सुपुर्द करती है। वह बताती हैं, “मुझे वह सम्मान नहीं मिलता जो एक कमाने वाले को मिलता है। यह और अपमानजनक है।”
उनके जैसी महिलाएं अपनी स्थिति में बदलाव लाने और 2012 के दबे राष्ट्रीय आक्रोश को निकालने के लिए मीटू अभियान का सहारा ले रही हैं। वह बताती हैं, “रोजाना की बचत से हमारी गतिविधियां शुरू हो जाती हैं लेकिन समय के साथ यह महिला सशक्तिकरण का मुख्य औजार बन गया है। आपको पता नहीं चलता कि एक घटना किस तरह और कैसे लोगों को सशक्त कर सकती है। लेकिन यह देखकर अच्छा लगता है कि हमारी तरह अन्य बहनें भी सामने आ रही हैं।”
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