जलस्रोतों को कानूनी संरक्षण की जरूरत है ताकि वर्षा जल को संचय किया जा सके। ज्यादातर राज्य दावा करते हैं कि उन्होंने कारगर कदम उठाए हैं लेकिन उनके दावों की पुष्टि नहीं होती।
जब आप यह पढ़ रहे होंगे, संकट खत्म हो चुका होगा। हमेशा की तरह बात “आई और गई” पर खत्म हो चुकी होगी। पानी के भीषण संकट की जगह बाढ़ की चिंता सता रही होगी। लेकिन यह फौरी राहत है। अधिक बारिश के इस मौसम में ही हमें पानी के दीर्घकालिक संकट से उबरने की तैयारी करनी है। लेकिन हम ऐसा नहीं कर रहे हैं।
इस साल गर्मियों में हिमालय की गोद में बसा शिमला पानी के संकट से जूझता रहा। पानी की कमी से जूझने वाला यह अकेला शहर नहीं है। नीति आयोग की कंपोजिट वाटर इंडेक्स 2018 के अनुसार, 600 मिलियन लोग यानी करीब आधे भारतीय पानी के गंभीर संकट का सामना कर रहे हैं। हालात इतने बुरे हैं कि 70 प्रतिशत उपलब्ध पानी प्रदूषित हो चुका है। 2020 तक दिल्ली, बेंगलुरू, चेन्नई और हैदराबाद में भूमिगत जल खत्म हो जाएगा और 2030 तक भारत के 40 प्रतिशत हिस्से में पीने का पानी नहीं होगा।
हम भविष्य की इस भयावह स्थिति में बदलाव ला सकते हैं। जल एक पुनर्भरणीय संसाधन है। यह बर्फबारी और बारिश के रूप में मिलता है। सबसे अहम बात यह है कि कृषिगत कारणों के अलावा हम जल का उपभोग नहीं करते। हम इस्तेमाल और डिस्चार्ज करते हैं। इसलिए इसे उपचारित, फिर से इस्तेमाल और रीसाइकल किया जा सकता है। एजेंडा स्पष्ट है- पहला, उपलब्ध पानी को सभी जगह बूंद-बूंद बचाकर बढ़ाना। भारत में जलवायु के खतरों के बीच अतिशय और असामान्य बारिश हो रही है। इसलिए ज्यादा से ज्यादा पानी को संजोने और भूमिगत जल को रिचार्ज करने की जरूरत है।
दूसरा और सबसे महत्वपूर्ण एजेंडा है पानी का संवर्धन मितव्ययता के साथ करना। हर बूंद से अधिक फसल और सभी चीजें मिलनी चाहिए। इसका मतलब है कि जानबूझकर ऐसी डिजाइनिंग होनी चाहिए जिससे पानी की खपत कम हो। कृषि में इसका अर्थ है कि फसलों के तरीके में बदलाव लाया जाए ताकि पानी की प्यासी फसलों जैसे चावल, गेहूं और गन्ने का उत्पादन ऐसे क्षेत्रों में बंद किया जा सके जहां पानी का संकट है। ऐसी नीतियां बननी चाहिए जिससे किसान फसलों में विविधता लाएं और उन्हें लाभकारी मूल्य मिले। ऐसे भोजन को बढ़ावा देना चाहिए जिसमें पानी कम लगता है।
अगर कृषि के लिए पानी की बचत एजेंडा है तो शहरों और उद्योगों के लिए पानी की रीसाइक्लिंग एजेंडा होना ही चाहिए। याद रखने वाली बात यह भी है कि आज हमारे पास यह आंकड़ा नहीं है कि शहरों और उद्योगों में कितने पानी का इस्तेमाल होता है। पिछला आकलन 1990 के दशक के मध्य में किया गया था। उसके अनुसार, उपलब्ध पानी का 75-80 प्रतिशत उपयोग कृषि में होता है।
अब यह बेमानी हो चुका है। शहरों के विस्तार से वहां पानी की जरूरत लाजिमी है। इन शहरों में दूर-दूर से पानी पहुंचाया जाता है जिससे लागत में इजाफा और ट्रांसमिशन में क्षति होती है। शहरों में पानी के संकट से खर्च बढ़ता है और लोगों को न्यायोचित आपूर्ति नहीं मिलती। जहां लोगों को कम पानी मिलता है या नहीं मिलता, वहां वे जमीन से पानी निकालते हैं जिससे भूमिगत जल घटता चला जाता है।
दुखद यह है कि शहरी साफ पानी को रिचार्ज करके पर्यावरण में नहीं भेजते। 80 प्रतिशत पानी बर्बाद हो जाता है। सवाल यह भी है कि इसमें से कितना साफ किया गया है और दोबारा इस्तेमाल योग्य बनाया गया। यह काम हम कर सकते हैं लेकिन करते नहीं हैं। हम फ्लश तो कर देते हैं लेकिन उपयोग और दुरुपयोग भूल जाते हैं। नीतियों में इसे समझा गया है लेकिन व्यवहार में नहीं। नीति आयोग का वाटर इंडेक्स अद्भुत है।
इसमें उन नीतियों व व्यवहार का जिक्र है जिससे भारत जल संसाधन में समृद्ध हो सकता है। उदाहरण के लिए इसमें राज्य के उस निवेश का आकलन किया गया है जो झीलों और तालाबों के कायाकल्प के लिए हो रहा है। इसके बाद कृषि दक्षता में सुधार और शहरों में दूषित जल की रीसाइक्लिंग में हुए निवेश को मापा गया है। इसमें महत्वपूर्ण प्रश्न उठाए गए हैं।
इसमें पाया गया है कि हम सही नतीजों का आकलन नहीं कर रहे हैं और न ही सही नीतियां अमल में ला रहे हैं। उदाहरण के लिए राज्य सरकारों के पास उन जलस्रोतों का आंकड़ा नहीं है जिनका नवीनीकरण किया गया है। केवल सरकारी लक्ष्य के अनुसार, बनाए गए जलस्रोतों का आंकड़ा मौजूद है। सरकारी आंकड़े यह जानकारी नहीं देते कि मौजूद जलस्रोतों में रिचार्ज क्षमता सुधरी है अथवा नहीं।
इससे पता चलता है कि जलस्रोतों को कानूनी संरक्षण की जरूरत है ताकि वर्षा जल को संचय किया जा सके। ज्यादातर राज्य दावा करते हैं कि इन दोनों क्षेत्रों में उन्होंने कारगर कदम उठाए हैं लेकिन उनके इस व्यवहार की झलक पेश करने वाला आंकड़ा ही गायब है। साथ ही यह भी कि क्या उनके उपायों से भूमिगत जल में रिचार्ज क्षमता में सुधार हुआ है।
रिपोर्ट में पाया गया है कि बहुत से राज्यों में 50-100 प्रतिशत दूषित जल को उपचारित करने की क्षमता है। लेकिन यह भी तथ्य है कि सरकारें उस दूषित पानी की ही गलत गणना कर रही हैं जिसे उपचारित करने की जरूरत है। राज्यों के पास उपचारित पानी की गुणवत्ता और इसके इस्तेमाल का भी आंकड़ा नहीं है।
अच्छी खबर यह है कि हम सही प्रश्न उठा रहे हैं। हमें पता है कि क्या करना चाहिए, लेकिन हम खुद यह नहीं करना चाहते। अत: संकट अनिवार्य सूखे या बाढ़ का नहीं है। कमी हमारे अंदर है जो हमें सही काम करने की दिशा में आगे नहीं बढ़ने देती।
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