1 नवंबर, 2019 से गंगा में बिना शोधन सीवेज की निकासी को रोकने के लिए उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड को अंतरिम उपाय करने होंगे। मुकम्मल व्यवस्था के लिए एक जुलाई, 2020 तक का वक्त होगा।
गंगा में घरेलू और औद्योगिक प्रदूषण पर नियंत्रण के उपायों से असंतुष्ट नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (एनजीटी) ने उत्तराखंड और उत्तर प्रदेश को कड़ी फटकार लगाई है। पीठ ने गंगा राज्यों से आदेशों के अनुपालन की रिपोर्ट भी 30 नवंबर से पहले तलब की है। पीठ ने उत्तराखंड और उत्तर प्रदेश समेत राष्ट्रीय स्वच्छ गंगा मिशन (एनएमसीजी) को आदेश दिया है कि वह घरेलू और औद्योगिक प्रदूषण पर लगाम लगाएं या फिर केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (सीपीसीबी) को प्रत्येक महीने 10 लाख रुपये तक का पर्यावरणीय जुर्माना भरें।
एनजीटी ने एक तरफ उत्तर प्रदेश के कानपुर में गंगा किनारे मौजूद टैनरीज के क्रोमियम अपशिष्ट को उपचार सुविधा केंद्र (टीएसडीएफ) पर तीन महीनें में शिफ्ट करने का आदेश दिया है तो दूसरी तरफ उत्तराखंड को गंगा में बिना शोधित सीवेज की निकासी पर पूरी तरह रोक लगाने का आदेश दिया है।
जस्टिस आदर्श कुमार गोयल की अध्यक्षता वाली पीठ ने गौर किया कि 1985 से गंगा का मामला सुप्रीम कोर्ट में चल रहा था। फिर यह मामला 2014 से 2017 तक एनजीटी में चला। इतने वर्षों के बावजूद अभी तक सीवेज और औद्योगिक प्रदूषण पर लगाम नहीं लगाया जा सका है। पीठ ने खासतौर से उत्तराखंड और उत्तर प्रदेश में दो वर्ष पूर्व दिए गए आदेशों का अमल अब तक नहीं किए जाने पर नाराजगी भी जाहिर की। वहीं, दोनों राज्यों को कड़ा आदेश भी दिया है।
पीठ ने उत्तर प्रदेश को अपने आदेश में कहा है कि वह 1976 से डंप किए जा रहे क्रोमियम को तीन महीने में टीएसडीएफ पर शिफ्ट करें यदि ऐसा करने में सरकार विफल रहती है तो उसे एक करोड़ रुपये काम की गारंटी (परफॉर्मेंस गारंटी) सीपीसीबी के पास जमा करने के साथ ही प्रतिमाह के हिसाब से 10 लाख रुपये का पर्यावरणीय जुर्माना भी भरना होगा।
पीठ ने उत्तर प्रदेश के मुख्य सचिव को आदेश देते हुए कहा है कि यह जरूरी है कि बिना शोधित सीवेज की निकासी गंगा में न होने पाए इसलिए अंतरिम उपाय के तहत 1 नवंबर, 2019 के बाद से बिना शोधित सीवेज की निकासी नहीं होनी चाहिए। चाहे सीवेज का बायोरीमेडेशन / फाइटोमेडिएशन हो या किसी अन्य उपाय के जरिए उसे शोधित किया जाए लेकिन गंगा में जाने वाले सीवेज का शोधन जरूरी होगा। यदि राज्य इस काम में विफल होता हैा तो उसे पांच लाख रुपये प्रतिमाह का जुर्माना प्रति ड्रेन यानी नाले के हिसाब से सीपीसीबी को जमा करना होगा। जितने नालों से सीवेज की निकासी गंगा और उसकी सहायक नदियों में होगी उस नाले की गिनती के हिसाब से पांच लाख रुपये प्रतिमाह राज्य को पर्यावरणीय जुर्माना अदा करना होगा।
पीठ ने कहा कि बाद में एसटीपी लगाने में देरी या अन्य किसी भी तरह का बहाना माना नहीं जाएगा। पीठ ने कहा कि जो भी अधिकारी एसटीपी आदि कामों लिए लगाए जाएंगे यदि काम पूरा नहीं होता है तो उनसे और ठेकेदार से 10 लाख रुपये प्रति माह की दर से पर्यावरणीय जुर्माना वसूला जाएगा।
इसके अलावा उत्तराखंड में भी गंगा में सीधे बिना शोधित सीवेज की निकासी रोकने के लिए पीठ ने कहा है कि एक जुलाई 2020 के बाद भी यदि किसी ड्रेन से गंगा या उसकी सहायक नदी में बिना शोधन सीवेज की निकासी होती है तो राज्य को प्रति माह 10 लाख रुपये का पर्यावरणीय जुर्माना देना होगा। साथ ही ऐसे क्षेत्र जहां एसटीपी या सीवेज नेटवर्क नहीं शुरु किया गया है वहां 31 दिसंबर, 2019 के बाद से दस लाख रुपये पर्यावरणीय जुर्माना वसूला जाएगा। इसमें एनएमसीजी 50 फीसदी की साझेदार होगी। यहां भी एक नवंबर से पहले बिना सीवेज शोधन की निकासी पर रोक लगानी होगी।
पीठ ने उत्तराखंड के मामले में कहा कि न सिर्फ पर्यटन नीति विकसित होनी चाहिए बल्कि होटलों को अनुमति और वाहनों को नियंत्रित करने के लिए भी नीति बननी चाहिए ताकि गंगा में प्रदूषण को कम किया जा सके। खासतौर से गंगा किनारे ट्रैफिक गतिविधि को नियंत्रित करने और वाहनों के प्रदूषण को कम करने के लिए भी कदम उठाए जाने चाहिए। सिर्फ बिना प्रदूषण वाले वाहनों को ही इजाजत दिया जाना चाहिए।
सीवर प्रदूषण के कारण गंगा में खुद से हानिकारक तत्वों को समाप्त करने की शक्ति क्षीण हो रही है। ऐेसे में केंद्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्रालय को चार महीने के भीतर ऐसी गाइडलाइन जारी करनी चाहिए जिससे नदियों के डूब क्षेत्र में वन विभाग बायोडायवर्सिटी पार्क बना सके। साथ ही गाइडलाइन में सीवेज निकासी आदि के लिए जुर्माना वसूलने का भी प्रावधान होना चाहिए।
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