हिंदी फिल्में भी अब हिंदी में बनने लगी थीं और तो और हिंदी फिल्मों के गाने अब हिंदी में ही लिखे और गाए जा रहे थे!
एक दिन हिंदी अंग्रेजी बन गई। अलसुबह शहर के लोग जब दिशा-फराकत जैसी आध्यात्मिक जरूरत या दूध-ब्रेड जैसी सांसारिक जरूरत के लिए घर से निकले तो उन्होंने अपने शहर को एक नई शक्ल में पाया। शहर की गली, नुक्कड़ और चौराहों पर फ्लैक्स के बोर्ड चस्पा थे कि “हिंदी कैसे बोलें”, या “शुद्ध हिन्दुस्तानी सीखें।” शहर की दीवारें भी “ हिंदी कोचिंग क्लास” के विज्ञापनों से पटी पड़ी थीं।
उस दिन सरकारी ‘एचएमटी’ या हिंदी मीडियम टैप के नाम से जाने, जाने वाले सरकारी स्कूलों के बाहर लंबी लाइन पाई गई। सभी अभिभावक अपने बच्चों को हिंदी सिखाने को बेकरार दिखे। और तो और सरकारी स्कूलों के देखा देखी इंग्लिश मीडियम “पब्लिक-स्कूलों” ने भी अपने पाठ्यक्रम को हिंदी माध्यम में तब्दील कर दिया था। आखिर उन्हें अपनी दुकान भी तो चलानी थी।
इंटरनेट का विशाल सूचना भंडार अंग्रेजी नहीं बल्कि अब हिंदी में उपलब्ध था। फेसबुक, व्हाट्सअप और ट्विटर पर हिंदी में लिखना अब आसान हो गया था। हिंदी फिल्में भी अब हिंदी में बनने लगी थीं और तो और हिंदी फिल्मों के गाने अब हिंदी में ही लिखे और गाए जा रहे थे।
न्यायालयों में बहस हिंदी में हो रही थी, कोर्ट के फैसले हिंदी में लिखे जा रहे थे। अस्पतालों में डॉक्टर, मरीजों के पर्चे हिंदी में थे, दवाइयों के नाम हिंदी में छपे हुए थे। दुकान, बाजारों के साइन बोर्ड से लेकर हाउसिंग कॉम्लेक्स के नाम किसी अबूझ अंग्रेजी से बदलकर मनोरम हिंदी नामों पर दिए गए थे।
अब भारतीय लेखक किसी बुकर के लिए दौड़ते नहीं दीखते थे क्योंकि अब एक “लैंग्वेज-राइटर” को भी “इंडियन-इंग्लिश-आॅथर” से कहीं अधिक सम्मान की दृष्टि से देखा जा रहा था। अंग्रेजी लेखक भी बदली हुई परिस्थिति में अब हिंदी में लिखने लगे थे। हिंदी में पहली बार लेखक अब अपने काम का दाम पा रहे थे। पहली बार किसी कवि को अपनी रोजी-रोटी के लिए अपने साहित्यिक प्रतिभा का गाला नहीं घोंटना पड़ रहा था। पुस्तक मेलों में हिंदी पुस्तकों के स्टॉल पर भारी भीड़ देखी जा रही थी।
मगर जैसा कि हर बदलाव के साथ होता आया है, इस बदलाव से समाज का एक हिस्सा नाखुश था। कुछ लोगों ने इसको “भारत की अंतरराष्ट्रीय” छवि पर हमला कहते हुए इसकी निंदा की। अंग्रेजी अखबारों ने इसको “हिंदी-हेजेमनी” कहकर कोसा तो कुछ एनआरआई लोगों ने इसका यह कहकर विरोध किया कि इससे भारतीय लोगों को विदेशों में कहीं भी रोजगार नहीं मिलेगा।
मगर सबसे मुखर विरोध हिंदी प्रकाशकों ने किया क्योंकि अब “हिंदी प्रचार” के नाम पर देश के सभी लाइब्रेरी में साहित्य के नाम पर कूड़ा-करकट भेजने और उससे होने वाली मोटी कमाई का स्रोत अब बंद हो चुका था। केवल यही नहीं अब किसी हिंदी प्रकाशक के लिए लेखक को बेवकूफ बनाकर उसकी रॉयल्टी को हड़प जाना असंभव हो गया था।
उनको इस नई विपदा से निकलने का कोई रास्ता भी नहीं सूझ रहा था। अचानक उन्हें एक जगह से मदद मिली, यह भारत सरकार का राजभाषा विभाग था। सरकार राजभाषा के प्रचार के लिए करोड़ों रुपये इस विभाग पर फूंकती आ रही थी और आम जनता के पैसों से पल रहा राजभाषा विभाग निर्लज्जता से आम जनता की जुबान के साथ खिलवाड़ कर रहा था। एक गुप्त बैठक हुई जिसमें हिंदी के प्रकाशकों, राजभाषा विभाग के वरिष्ठ अधिकारियों के अलावा कुछ अंग्रेजीदां लोगों ने हिस्सा लिया जिसमें सर्वसम्मति से फैसला किया कि हिंदी को हिंदी ही रहने देने में सबकी भलाई है।
अब चूंकि राजभाषा विभाग, केंद्रीय गृह मंत्रालय के अधीन है इसलिए इसको देश की एकता-अखंडता और सम्प्रभुता पर आए एक खतरे के रूप में पेश किया गया। आपात स्थिति से निबटने के लिए संसद का विशेष सत्र बुलाया गया और एक नया कानून पास किया गया।
अब हिंदी एक बार फिर से हिंदी बन चुकी थी।
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