Environment

सन्नाटे की गूंज

यात्रा एक पर्यावरण आंदोलन की, जिसने विकास योजनाओं को देखने, परखने का नजरिया ही बदल डाला

 
By Jemima Rohekar
Published: Sunday 15 January 2017
बफर जोन से गुजरने के बाद साइलेंट वैली नेशनल पार्क के मुख्य क्षेत्र का प्रवेश द्वार। यह राष्ट्रीय उद्यान एक बड़े जन आंदोलन की देन है

जेमिमा रोहेकर

जब से मुझे केरल की ‘साइलेंट वैली’ के बारे में लिखने को कहा गया था, तब से मेरे सामने एक ही सवाल बार-बार आ रहा था। आखिर इस घाटी को साइलेंट वैली क्यों कहा जाता है? ये 90 वर्ग किलोमीटर में फैली हुई सुंदर और हरी घाटी है।

इस घाटी का नाम बहुत ही असाधारण और खास है। हमारे देश में 100 से भी ज्यादा नेशनल पार्क हैं, जिनमें ज्यादातर का नाम नदी, पहाड़, मिथकीय किरदारों, जानवरों या भूतपूर्व प्रधानमंत्रियों के नाम पर रखे गए हैं। इन नामों में केवल दो नाम हैं जो उस जगह के अहसास या भाव पर रखे गए हैं, जो नाम रखने की परंपरा को तोड़ते और कल्पनाशील दिखते हैं। इनमें पहला नाम है उत्तराखंड की वैली ऑफ फ्लावर्स और दूसरा बेहतरीन नाम हैसाइलेंट वैली। पर्यावरण पर लिखने वाले वरिष्ठ पत्रकार डैरल डिमॉन्टे ने अपनी किताब ‘स्टॉर्म ओवर साइलेंट वैली’ में भी इसके दिलचस्प नाम के बारे में जिक्र किया है।

इस घाटी को पहले सैरन्ध्री नाम से जाना जाता थो, जो पांडवों की पत्नी द्रौपदी का ही दूसरा नाम है। इसके अलावा यहां एक नदी है जिसका नाम पांडवों की मां कुंती के नाम पर है। एक अंग्रेज ने उपनिवेशीय समय में इस अछूती घाटी को खोजा था। उन्होंने पाया कि दूसरी घाटियों में आम तौर पर शाम को जंगलो में झींगुरों की आवाज गूंजती है पर इस घाटी में अंधेरा होने के बाद इस तरह की आवाजें सुनाई नहीं देती। ये इस घाटी की खूबी है।

अल्पख्यात जंगल

साइलेंट वैली हिंदुस्तान के गिने-चुने वर्षावनों में से एक है। डिमॉन्टे अपनी किताब में लिखते हैं कि हम इस घाटी को ‘शोला फॉरेस्ट’ कहें तो ज्यादा बेहतर होगा। (शोला, वनस्पतियों का एक समूह हैं जो सिर्फ दक्षिण भारत के पश्चिमी घाटों की तलहटी में पाई जाती हैं)। ऊंची चोटियों से घिरा यह जंगल इतना घना है कि यहां पहुंचना बेहद मुश्किल है। साइलेंट वैली इतनी निर्जन है कि इसके मुख्य क्षेत्र में इंसान के रहने का कोई लिखित सबूत नहीं मिला है। हालांकि, आसपास के बफर जोन में कुछ आदिवासी लोग रहते हैं। लेकिन इंसान की दखलअंदाजी से यह जंगल लगभग अछूता रहा है, इस बात ने मेरी उत्सुकता और बढ़ा दी। मैं उस जगह जाने को उत्सुक थी, जो बरसों पहले पर्यावरण बनाम विकास की जबरदस्त बहस का गवाह बना।
 
मैं तमिलनाडू के कोयंबटूर शहर पहुंची और वहां से 62 किलोमीटर दूर साइलेंट वैली नेशनल पार्क के बेस कैंप मुक्काली के लिए मैंने टैक्सी लेने की सोची। अपनी इंग्लिश और टूटे-फूटे तमिल के 20 शब्दों के सहारे मुक्काली जाने के लिए टैक्सी खोजने लगी। लेकिन साइलेंट वैली का नाम लेते ही टैक्सी वालों की भौहें चढ़ जाती और वे कंधा झाड़ लेते। उन लोगों ने इसके बारे में कभी सुना ही नहीं था। मैंने सोचा था कि कोयंबटूर के टैक्सी ड्राइवर बहुत-से पर्यटकों को साइलेंट वैली ले जाते होंगे, लेकिन ऐसा कुछ था नहीं।

खैर, इसमें इन लोगों का भी बहुत दोष नहीं है। ग्यारह साल पहले स्टूडेंट के तौर पर मैं आदिवासियों की रिपोर्टिंग करते हुए तीन दिन साइलेंट वैली से कुछ ही दूर आटापाड़ी में रही थी। लेकिन उस समय मैंने पर्यावरण आंदोलनों में इस जंगल के ऐतिहासिक महत्व पर गौर नहीं किया था। लेकिन इसके बारे में इतना लिखे-कहे जाने के बावजूद साइलेंट वैली इतनी अनजान, इतनी अनदेखी-सी क्यों है? इस घाटी की शांति इसके लिए वरदान है या अभिशाप?

साइलेंट वैली को बचाने के लिए किए गए आंदोलनों में प्रमुख भूमिका निभाने वाले एमके प्रसाद का कहना है कि उन्होंने साइलेंट वैली के बारे में 1972 में तब सुना जब सरकार कुंती नदी पर बांध बनाने की योजना बना रही थी। उस वक्त वे कोझीकोड में बॉटनी के एक शिक्षक थे। उन्होंने बताया कि सरकार की योजना की खबर के बाद मैं उस घाटी में पहुंचा और देखा कि ये जंगल बहुत ही शांत, दुर्लभ और किसी छेड़छाड़ से बचा हुआ था। अगर इस घाटी में सरकार बांध बना देगी तो कुछ ही सालों में हम इस जंगल को पूरी तरह खो देंगे।

बांध बनाने का विचार पहली बार 1920 के दशक में सामने आया था। दरअसल कुंती नदी केरल में 857 मीटर की ऊंचाई से गिरती हुई मैदानों में बहती है, जो बांध बनाने के लिए एक आदर्श जगह है। वैसे भी आजादी के बाद सिंचाई और बिजली उत्पादन के लिए बहुउद्देशीय नदी घाटी परियोजनाओं पर खूब जोर दिया गया। सन 1979 तक भारत सरकार अपने योजनागत व्यय का 14 प्रतिशत हिस्सा बांध और नहरों के निर्माण के लिए आवंटित कर चुकी थी। साइलेंट वैली परियोजना भी इन्हीं में से एक थी। सरकार कुंती नदी पर 131 मीटर ऊंचा बांध बनाना चाहती थी, जो 240 मेगावॉट बिजली पैदा करता और केरल के पालघाट व मालापुरम जिलों की 10,000 हेक्टेयर जमीन का सिंचन कर सकता था। हालांकि यह परियोजना कभी परवान नहीं चढ़ी।

अद्वितीय मुलाकात

तो कोयम्बटूर में मुझे आखिरकार एक टैक्सी ड्राइवर मिल गया जो मुझे गूगल मैप के हिसाब से मुक्काली ले जाने के लिए राजी हो गया। बहुत जल्दी ही हम तमिलनाडू से केरल जाने वाले आड़े-तेड़े और घुमावदार रास्तों पर चल रहे थे। यहां चारों तरफ केले, नारियल और स्थानीय फसलों के खेत थे। खेतों के चारों तरफ बिजली की फेंस थी ताकि फसलों को हाथियों से बचाया जा सके।

तय कार्यक्रम के हिसाब से मुझे अगले दिन नेशनल पार्क जाना था। मैं अपने गाइड मारी से मिलने के लिए बहुत उत्सुक थी। 42 साल के मारी को लोग साइलेंट वैली का इन्साइक्लोपीडिया मानते हैं। वे 15 साल की उम्र से इस हरी-भरी भूल-भुलैया में वन विभाग के अफसरों, शोधकर्ताओं, फोटोग्राफरों और पर्यटकों को घुमा रहे हैं। मारी बहुत थोड़े पढ़े-लिखे हैं और अंग्रेजी बिल्कुल ही नहीं बोलते। लेकिन, अनगिनत पेड़-पौधों, पशु-पक्षियों और जीव-जंतुओं के वैज्ञानिक नाम उन्हें जुबानी याद हैं। पर्यावरण संरक्षण में अपने योगदान के लिए उन्हें कई पुरस्कार मिल चुके हैं।  मारी के पिता भी साइलेंट वैली के मशहूर गाइड रहे हैं।

मारी ने बताया कि बहुत-सी वनस्पतियों के बारे में उन्होंने पश्चिमी देशों के उन वनस्पति विज्ञानियों और प्राणी शास्त्रियों से जाना, जो पिछले इतने बरसों में यहां आते-जाते रहे हैं। “लेकिन विडंबना यह है कि मुझे यह नहीं पता कि बहुत-सी प्रजातियों को मलयालम में क्या बोलते हैं। किसी मलयाली ने मुझे यह सब नहीं सिखाया।”  

अगली सुबह हम जीप में भरकर जंगल की ओर रवाना हुए। हमारे साथ इलाके के फॉरेस्ट अफसर अमीन अहसान एस. और अनुवाद में मदद के लिए कुछ दोस्त भी थे। जंगल में घुसते हुए मानो हम हरे रंग में डूब रहे थे। मारी ने पेड़ के तनों पर लगाए गए कैमरों की तरफ इशारा किया। अमीन अहसान ने बताया कि इन कैमरों ने यहां पांच बाघों की मौजूदगी दर्ज की है। इस जंगल में अन्य परभक्षियों के अलावा तेंदुए और कम से कम दो काले पेंथर भी हैं। यह जंगल इतना घना है कि जंगली जानवरों का दिखाई देना मुश्किल है। लेकिन साइलेंट वैली के सबसे नामी जानवरों ने हमें निराश नहीं किया। रास्ते में ही हमें पेड़ की डालियों पर झूलते यहां के खास लंगूरों (लॉयन टेल मकैक) के झुंड दिखाई पड़ गया।  इन्हें इन प्राइमेट्स को आईयूसीएन ने विलुप्तप्राय घोषित किया हुआ है। 70 और 80 के दशक में यह जानवर साइलेंट वैली बचाओ अभियान का प्रतीक बन गया था, क्योंकि प्रदर्शनकारियों का कहना था कि बांध बनने से इन लंगूरों का प्राकृतिक आवास बर्बाद हो जाएगा और इनका अस्तित्व खतरे में पड़ सकता है। जंगल में आगे बढ़ते हुए हमें मालबार की बड़ी-बड़ी गिलहरी और नीलगिरी लंगूर भी दिखाई पड़े। ये तीनों प्राणी खासतौर पर पश्चिमी घाटों के एेसे घने जंगलों में ही पाए जाते हैं।

बफर जोन से गुजरने के बाद साइलेंट वैली नेशनल पार्क के मुख्य क्षेत्र का प्रवेश द्वार। यह राष्ट्रीय उद्यान एक बड़े जन आंदोलन की देन है। इसी जंगल में सेम के फूल पर बैठा भंवरा (फोटो: जेमिमा रोहेकर)

ऐसे छोटे-मोटे और आमतौर पर नजर में न आने वाले जीव-जंतु ही साइलेंट वैली का असली आकर्षण हैं। एक जगह हम 200 साल पुराने कठहल के पेड़ को देखने के लिए ठहर गए। आज भी यह हाथियों, लंगूरों और पशु-पक्षियों को फल देता है। मैंने पेड़ की चोटी देखने के लिए अपनी गर्दन उठाई लेकिन यह इतना ऊंचा और घना है कि इसकी लंबाई का ठीक-ठीक अंदाजा नहीं लग पाया। अमीन ने बताया कि उष्णकटिबंधीय वर्षावनों में पेड़ 30-45 मीटर ऊंचे और इतने घने होते हैं कि बारिश का पानी से जमीन तक पहुंचने में कम से कम आधा घंटा लग जाता है। जैसे-जैसे हम आगे बढ़े, मैं नई-नई चीजों के बारे में पूछती गई और मारी फटाफट मुझे उन चीजों के अंग्रेजी और वैज्ञानिक नाम बताते गए। उन्हें पेड़-पौधे, फूल-पत्तियों, मकड़ियां, तितलियां, मधुमक्खियां... हर चीज की जानकारी है।

वे इनकी दिलचस्प खूबियों के बारे में भी बताते चल रहे हैं। आगे एक नाग (वाइपर) सड़क किनारे कुंडली मारे बैठा था। इसका रंग ऐसा था कि अगर मारी और अमीन न बताएं तो हम इसके पास से गुजर जाते। आगे चलकर एक बड़ा-सा बाज (सर्पन्ट ईगल) घने पेड़ की शाखा पर बैठा है, जिसकी चौकस निगाहें चारों तरफ देख रही हैं। धीरे-धीरे अहसास होता है कि यह जंगल एक-दूसरे पर निर्भर हजारों किस्म के जीव-जंतुओं का अद्भुत ठिकाना है। साइलेंट वैली के पर्यावरण पर जलविद्युत परियोजना के प्रभाव का आकलन करने वाली एमजीके मेनन की अध्यक्षता वाली संयुक्त समिति की 1982 की रिपोर्ट के मुताबिक, यहां सिर्फ 0.4 हेक्टेअर के सैंपल एरिया में 84 किस्म के 118 संवहनी पौधे पाए गए हैं। अध्ययन बताते हैं कि साइलेंट वैली पनामा के बारो कोलोराडो द्वीप के ट्रॉपिकल रेनफॉरेस्ट की तरह है, जिसे दुनिया में जैव-विविधता का पैमाना माना जाता है। 1984 में राष्ट्रीय उद्यान घोषित के बाद से यहां वनस्पति और प्राणियों की कई प्रजातियों खोजी जा चुकी है। लाखों साल पुराने इस जंगल में अब भी कई अनजाने जीव-जंतु और पेड़-पौधे होंगे!  

हम घाटी के 30 मीटर ऊंचे मचान पर पहुंचते हैं, पहाड़ियों पर बादल तैर रहे हैं, जहां तक भी नजर जाती है हरियाली ही हरियाली है। अक्टूबर का आखिरी हफ्ता है, मारी और अमीन बताते हैं कि अब तक भारी बारिश हो जानी चाहिए थी। वे बताते हैं कि कम बारिश की वजह से जंगल का घनत्व कम हो गया है। बीजों के अंकुरण और वनस्पति पर भी असर पड़ा है। जल-धाराओं में प्रवाह सामान्य से कम है। उल्लेखनीय है कि गत अक्टूबर से दिसंबर के दौरान केरल में सामान्य से 62 प्रतिशत कम बारिश हुई है। मारी ने उस क्षेत्र की ओर इशारा किया जहां चार दशक पहले बांध बनाने वाला था। मैंने पूछा, “बांध बन गया होता, तब क्या होता?” मारी बोले, “…तो यह पहाड़ी इलाका होटल और रेस्तरां से अट जाता। कोई हत्यारा ही इस जंगल को तबाह करने की कोशिश कर सकता है। ये किसी इंसान का काम नहीं हो सकता।”

आंदोलन के बीज

वनस्पति विज्ञान के शिक्षक एमके प्रसाद भी साइलेंट वैली में हाइड्रोपावर प्रोजेक्ट के खतरों को भांप चुके थे। वे केरल शास्त्र साहित्य परिषद (केएसएसपी) नाम के एक लोक विज्ञान आंदोलन से जुड़े थे। परिषद की पत्रिका में उन्होंने साइलेंट वैली में बांध निर्माण की योजना के खिलाफ एक लेख लिखा। इस लेख को खूब प्रतिक्रियाएं मिलीं। जल्द ही एक मुद्दा मीडिया और जन सभाओं में चर्चित हो गया। बॉम्बे नेचुरल हिस्ट्री सोसायटी, फ्रेंड्स ऑफ ट्रीज सोसायटी और वर्ल्ड वाइल्डलाइफ फंड जैसी संस्थाएं ने भी इस अभियान को समर्थन देना शुरू कर दिया।  

हालांकि, केरल राज्य विद्युत मंडल ने इस मुद्दे को अपने पक्ष में मोड़ने के भरसक प्रयास किए। तर्क दिया कि परियोजना से उत्तर केरल के इलाकों में बिजली पहुंचगी, जबकि बांध से जंगल का एक छोटा-सा हिस्सा (830 हेक्टेयर) ही डूबेगा। लोगों को यहां तक समझाने की कोशिश की गई कि साइलेंट वैली में दरअसल कुछ भी खास नहीं है! लेकिन ‘साइलेंट घाटी बचाओ आंदोलन’ के समर्थकों ने इन दावों को नकार दिया। तब तक कई प्रोफेसर, वैज्ञानिक और तत्कालीन व पूर्व नौकरशाह अभियान से जुड़ चुके थे। प्रसाद बताते हैं कि ‘दि हिंदू’ और ‘इंडियन एक्सप्रेस’ को छोड़कर मंडल पूरे अंग्रेजी और मलयाली मीडिया को बांध के पक्ष में करने में कामयाब हो गया था। इन्होंने प्रसाद पर अमेरिकी एजेंट होने के आरोप भी लगाए। उन्हें परोक्ष रूप से जान से मारने की धमकियां भी दी गईं।

इस बीच, सरकार ने जलविद्युत परियोजना से साइलेंट वैली के पर्यावरण पर पड़ने वाले असर को जानने के लिए कई समितियों का गठन किया। विशेषज्ञों ने पहली बार साइलेंट वैली की समृद्ध जैव-विविधता के सर्वेक्षण के लिए वहां का दौरा किया। एक समिति ने पर्यावरण को बचाने के लिए सुरक्षात्मक उपायों का सुझाव दिया, जिसे केरल सरकार ने तुरंत स्वीकार कर लिया। तत्कालीन कृषि सचिव एमएस स्वामीनाथन की अध्यक्षता वाली एक अन्य समिति ने परियोजना को खारिज करने की सिफारिश की। यह लड़ाई अदालतों में भी लड़ी गई। सन 1980 में जब इंदिरा गांधी दूसरी बार प्रधानमंत्री बनीं तो उन्होंने केरल सरकार से बांध का काम तब तक रोकने को कहा, जब तक परियोजना के प्रभाव का पूरा मूल्यांकन नहीं हो जाता। इसका नतीजा यह हुआ कि एमजीके मेनन की अध्यक्षता में केंद्र और राज्य की एक संयुक्त समिति बनाई गई। अपनी रिपोर्ट में समिति ने कहा कि 830 हैक्टेयर का जो क्षेत्र बांध की वजह से डूबेगा, वह प्राकृति द्वारा संजोये गए नदतटीय पारिस्थितिकी तंत्र का महत्वपूर्ण उदाहरण है। बांध बनने से साइलेंट वैली में लोगों की आवाजाही बढ़ेगी और जैव-विविधता पर बुरा असर पड़ सकता है, जिससे पूरा इको-सिस्टम गड़बड़ा जाएगा।

आखिर 15 नवंबर, 1984 को साइलेंट वैली को राष्ट्रीय उद्यान घोषित कर दिया गया। देश के पर्यावरण इतिहास में यह ऐतिहासिक क्षण था। इससे पहले पर्यावरण संरक्षण आमतौर पर वृक्षारोपण तक सीमित समझा जाता था, लेकिन इस आंदोलन ने देश को एक नई दृष्टि दी। विकास योजनाओं की मंजूरी से पहले पर्यावरण पर इसके असर के मूल्यांकन यानी एन्वायरनमेंट इम्पैक्ट असेस्मेंट (ईआईए) का विचार यहीं से जन्मा और जन सुनवाई अनिवार्य हो गई। प्रसाद कहते हैं, मैं बहुत किस्मत वाला हूं कि ऐसे आंदोलन का हिस्सा बन सका।

Subscribe to Daily Newsletter :

India Environment Portal Resources :

Comments are moderated and will be published only after the site moderator’s approval. Please use a genuine email ID and provide your name. Selected comments may also be used in the ‘Letters’ section of the Down To Earth print edition.