अल्जाइमर नामक लाइलाज महामारी पूरी दुनिया को अपनी चपेट में ले रही है, ऐसे में हम केवल अपने जीने का तरीका बदल सकते हैं ताकि इसके बढ़ते कदमों को रोका जा सके
वर्ष 2001 में जानी-मानी ब्रिटिश दार्शनिक और उपन्यासकार आइरिस मर्डोक के जीवन पर आधारित एक फिल्म आई थी जिसमें जूडी डेंच ने याद्दाश्त जाने के दर्द से जूझ रही वृद्ध मर्डोक के यादगार किरदार को परदे पर जीवंत किया था। फिल्म के एक दृश्य में, हर कदम पर अपनी पत्नी का साथ देने वाले जॉन बेले (जिम ब्रॉडबेंट ने यह भूमिका निभाई है) आखिरकार टूट जाते हैं और हताश होकर कहते हैं, “तुम्हारे सभी दोस्त तुम्हें छोड़कर चले गए। अब तुम मेरे पास आई हो। अब तुम्हारे पास तुम्हारे सबसे प्यारे दोस्त डॉ. अल्जाइमर के अलावा कुछ नहीं है। अब तुम मुझे मिली हो लेकिन मैं तुम्हें नहीं चाहता! मुझे तुम्हारे बारे में कभी कुछ पता ही नहीं था और अब मुझे परवाह भी नहीं है!”
अपनी धुंधली यादों के अवशेषों में खुद को खोने का गम अकेले मर्डोक का नहीं है। और न ही अपने किसी करीबी को हकीकत से रूबरू कराने की कोशिश में होने वाली असहनीय पीड़ा अकेले उनके पति की है। वर्ष 2016 की विश्व अल्जाइमर रिपोर्ट के अनुसार, दुनियाभर में 4.7 करोड़ से ज्यादा लोग इस खौफनाक बीमारी की चपेट में हैं। और चूंकि दुनियाभर में बड़ी संख्या में लोग लंबा जीवन जी रहे हैं, ऐसे में यह संभावना है कि वर्ष 2050 तक पीड़ितों की संख्या तीन गुना हो जाएगी। यह हृदय रोग के बाद मृत्यु के दूसरे प्रमुख कारण के रूप में कैंसर को पीछे छोड़ देगा।
यह सही है कि भारत एक युवा देश है जहां तीन में से दो व्यक्ति 35 वर्ष से कम आयु के हैं, लेकिन यह भी सच है कि अब भी 8 करोड़ से ज्यादा लोग 65 वर्ष से अधिक उम्र के हैं। एक अनुमान के अनुसार, इनमें से 4 लाख से अधिक लोग अल्जाइमर या अन्य प्रकार के डेमेंशिया से पीड़ित हैं। इस कारण चीन और अमेरिका के बाद भारत इस बीमारी का बोझ सहने वाला तीसरा सबसे बड़ा देश बन गया है। इतनी बड़ी संख्या में अल्जाइमर के रोगियों की देखभाल के लिए इनका ध्यान रखने वालों से असाधारण भावात्मक और आर्थिक सहयोग की अपेक्षा है।
आज तक यह बीमारी एक पहेली बनी हुई जिसका कोई इलाज किसी को भी नहीं मिल पाया है। हालांकि अल्जाइमर एक गंभीर समस्या है, फिर भी विज्ञान ने इसके कुछ जटिल पहलुओं को समझने में कामयाबी हासिल कर ली है। उदाहरण के लिए, पहले माना जाता था कि यह बुढ़ापे की समस्या है लेकिन अब हम यह जान चुके हैं कि ऐसा नहीं है। ये तो तेजी से कई गुना बढ़ने वाले कई खराब प्रोटीन, प्लाक और टेंगल का जाल है जो कुछ ही वर्षों में व्यक्ति के दिमाग की नसों को खत्म कर देता है। जैसे ही न्यूरोन खत्म हो जाते हैं, व्यक्ति के भावों में तेजी से उतार-चढ़ाव, भटकाव, कुछ समय के लिए याद्दाश्त खोने तथा वास्तविकता को पहचानने में कठिनाई, जैसे कि कुछ चेहरों को न पहचान पाना जैसी समस्याएं सामने आती हैं।
इसके अलावा, हम इसकी कई गूढ़ विशेषताओं को भी जानते हैं। उदाहरण के लिए, पुरुषों की अपेक्षा महिलाएं इससे ज्यादा प्रभावित होती हैं, अथवा यह कि कुछ समुदाय ऐसे हैं जिनमें इससे लड़ने की प्राकृतिक क्षमता है जैसे कि आइसलैंड के लोग इससे जल्दी प्रभावित नहीं होते। जबकि कुछ समुदाय ऐसे हैं जिनमें इसका खतरा ज्यादा है, जैसे कोलंबिया के एक विशेष समुदाय के लगभग 5,000 लोगों में इसका खतरा बहुत अधिक पाया गया है। इससे पता चलता है कि कुछ आनुवांशिक परिवर्तन भी इस लाइलाज बीमारी का कारण हैं, अथवा ऐसे व्यक्ति भी हैं जिनमें प्लैक और टेंगल की स्पष्ट संरचना होने के बावजूद अल्जाइमर नहीं होता। अथवा डिमेंशिया में 70 प्रतिशत से अधिक हिस्सा इस बीमारी का है।
यद्यपि अल्जाइमर को 21वीं सदी की महामारी कहा जाता है, तथापि इसका अस्तित्व काफी पुराना है।
मध्यकालीन यूरोप में काफी समय तक इस बीमारी से पीड़ित लोगों को बूढ़ा, मूर्ख या पागल समझा जाता था। कई बार उन्हें “ट्रेपनेशन” से गुजरना पड़ता था जिसमें व्यक्ति के सिर में छेद करके शरीर से बुरी आत्माओं को बाहर निकाला जाता था। वस्तुत: 19वीं सदी में फ्रांसिसी डॉक्टर फिलिप पिनेल ने मानसिक बीमारी के लिए पहली बार डिमेंशिया शब्द का इस्तेमाल किया जिसके बाद इससे जूझ रहे लोगों को बीमारीग्रस्त श्रेणी में रखा गया।
इसके लगभग 100 वर्ष बाद 1906 में जर्मन मनोचिकित्सक एलोइस अल्जाइमर ने पहली बार इस बीमारी के प्लैक, टेंगल और दिमाग के आकार में कमी जैसे लक्षणों की पहचान की। इन्हीं के नाम पर इस बीमारी को अल्जाइमर नाम दिया गया। हालांकि उस समय मनुष्य की प्रकृति और व्यवहार के बारे में सिगमंड फ्रायड के विचारों का इतना प्रभाव था कि कई वैज्ञानिकों ने मनुष्य के जीवविज्ञान को डिमेंशिया का कारण बताने के उनके विचार का समर्थन नहीं किया।
तथापि, 1970 में अधिक उन्नत तकनीकों से अल्जाइमर द्वारा प्रभावित दिमाग में उपस्थित प्लैक और टेंगल के विस्तृत ब्यौरे मिलने के बाद उनके विचारों की पुष्टि हुई। वर्ष 1991 में ब्रिटिश आनुवांशिकी विज्ञानी जॉन हार्डी ने खराब प्रोटीन बीटा एमलॉयड को अल्जाइमर का मुख्य कारण बताया। एमलॉइड की अवधारणा से प्रभावित होकर कई अनुसंधानकर्ताओं और फार्मा कंपनियों ने ऐसे कणों की खोज शुरू की जो प्लैक को मार सकें और इस प्रकार अल्जाइमर को रोका जा सके। हालांकि, दुर्भाग्यवश अब तक किए गए सभी प्रयोग असफल साबित हुए जिसके कारण फिजर ने अल्जाइमर की दवा का ईजाद करने की अपनी कोशिश हाल ही में बंद कर दी है।
एमलॉइड की अवधारणा पर संदेह होने के बाद नए सिद्धांतों ने जन्म लिया। टाओ अवधारणा में दावा किया गया है कि प्रोटीन के मुड़े हुए टेंगल (िजन्हें टाओ कहा जाता है) के कारण धीरे-धीरे न्यूरोन अपने ही अंदर सिकुड़ जाते हैं जिससे अल्जाइमर होता है। “टाइप III मधुमेह” अवधारणा के अनुसार, इसका वास्तविक कारण एपीओई 4 नामक जीन है जो न्यूरोन के चलते रहने के लिए आवश्यक शर्करा को दिमाग तक पहुंचने से रोकता है। तीसरा सिद्धांत कहता है कि जब प्लाक और टेंगल दिमाग की प्रतिरोक कोशिकाओं माइक्रोग्लिआ को अपने ही विरुद्ध काम करने के लिए उकसाता है, तब अल्जाइमर होता है। और अंतत: रोगाणुओं से संबंधित विवादास्पद अवधारणा है जो कहती है कि कुछ माइक्रोब्स अल्जाइमर का कारण हो सकते हैं।
हालांकि, अल्जाइमर के बारे में कई सिद्धांत हैं, जिनमें से कुछ में अर्थ हो सकता है अथवा वे पूरी तरह से कल्पनाओं की उपज भी हो सकते हैं। कुल मिलाकर अब वैज्ञानिक इस नतीजे पर पहुंचे हैं कि अल्जाइमर का इलाज ढूंढने में कम से कम दस वर्ष और लगेंगे। कुछ वैज्ञानिकों का मत है कि हमारे दिमाग पर हमला करने वाली इस बीमारी से बचने का सबसे बेहतर उपाय यह है कि हम अपनी जीवनशैली में बदलाव लाएं, हालांकि अभी तक इस बात के भी पुख्ता सबूत नहीं मिले हैं कि अच्छे या बुरे, कौन से पर्यावरणीय कारण इस काम में मदद कर सकते हैं।
इस लड़ाई में सबसे प्रमुख हथियार हल्दी, जो अधिकांश भारतीयों के भोजन का एक अनिवार्य हिस्सा है, जिसे कुछ वैज्ञानिक भारतीयों में अल्जाइमर की कथित प्रतिरोधक क्षमता का कारण मानते हैं, अथवा चीनी है, जिसे कई लोग दिमागी चोरी का सहअपराधी अथवा पहेलियां सुलझाने और नई चीजें सीखने का कारण मानते हैं जो मस्तिष्क को बीमारी के अंधरों में जाने से रोकते हैं। जिंदगी का एक लक्ष्य तय करना तथा सामाजिक जिंदगी जीना भी इस बीमारी को दूर रखने में मदद कर सकता है। एक छोटी सी आशा की किरण के रूप में, 2015 में कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय, लॉस ऐंजलिस में अल्जाइमर के कुछ मरीजों को विशेष प्रकार का भोजन (अधिकांशत: सब्जियां) दिया गया, उनसे व्यायाम और ध्यान कराया गया तथा उन्हें सोने की बेहतर तकनीकों की जानकारी दी गई जिससे उनकी याद्दाश्त में सुधार हुआ और समस्या-समाधान में भी उन्होंने बेहतर कार्य किया।
अल्जाइमर के कारण होने वाली तकलीफ और हताशा के बीच, उम्र बढ़ने के कारण दिमाग को होने वाले नुकसान को विकासमूलक लाभ की दृष्टि से देखना समझदारी होगी। जैसा कि आइसलैंड के न्यूरोलॉजिस्ट कैरी स्टीफन्सन, जोसेफ जेबेली की रोचक किताब “इन परस्यूट ऑफ मैमरी” में कहते हैं, “बूढ़े होने पर बीमारी हमारी जिंदगी की तस्वीर खराब करती है या वह इस तस्वीर में नए रंग मिला देती है? हम बूढ़े होने और मरने के लिए पैदा होते हैं। उसके आगे भूमिका जिंदगी से परे है। मुझे नहीं पता हम इससे ज्यादा क्यों जीते हैं।”
(इस कॉलम में विज्ञान और पर्यावरण की आधुनिक गुत्थियों को सुलझाने का प्रयास है)
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