Forests

मौके का फायदा

राज्य, क्षतिपूर्ति वनरोपण निधि अधिनियम के नियम तैयार करने में हो रही देरी का फायदा उठा रहे हैं ताकि समुदायों की भूमि पर अधिकार स्थापित किया जा सके। 

 
By Ishan Kukreti
Published: Friday 15 December 2017
ओडिशा के पिडिकिया गांव में वन अधिकारियों ने फरवरी में वनाधिकार के तहत आने वाली 300 हेक्टेयर सामुदायिक भूमि पर 60,000 टीक के पौधे रोप दिए (लक्ष्मीधरा मुर्मू)

क्षतिपूर्ति वनरोपण निधि अधिनियम 2016 (सीएएफ) को संसद में पारित हुए एक साल से ज्यादा हो चुका है फिर भी पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय (एमओईएफएंडसीसी) ने इसे कार्यान्वित करने के अनिवार्य नियम अभी तक नहीं बनाए हैं। यहां तक कि मंत्रालय ने इन नियमों को अंतिम रूप देने के लिए अधीनस्थ विधायन संबंधी राज्य सभा समिति से 3 जनवरी, 2018 तक का समय मांगा है जबकि इसकी समय सीमा जून 2017 में समाप्त हो चुकी है। महानिरीक्षण, वन, एमओईएफएंडसीसी तथा क्षतिपूर्ति वनरोपण निधि प्रबंधन एवं योजना प्राधिकरण (सीएएमपीए) के सदस्य डी.के. सिन्हा का कहना है, “प्रस्तावित नियम अभी मंत्रालय के एकीकृत वित्तीय प्रभाग के पास हैं।

नियमों के अभाव में कम से कम 15 राज्यों के वन विभाग एमओईएफएंडसीसी द्वारा 2009 में जारी किए गए राज्य सीएएफ दिशानिर्देशों के अनुसार वनरोपण कर रहे हैं जिसमें इस बुनियादी सवाल का कोई जवाब नहीं दिया गया है कि इस कार्य के लिए किस प्रकार की भूमि का इस्तेमाल किया जा सकता है- वन अथवा राजस्व। परिणामस्वरूप ये वन विभाग सीएएफ के तहत मिलने वाली निधि का इस्तेमाल ऐसी वनभूमि पर अधिकार स्थापित करने के लिए कर रहे हैं जिन पर वन अधिकार अधिनियम, 2006 (एफआरए) के तहत समुदाय का स्वामित्व और प्रबंधन माना जा रहा है। वन्य भूमि को गैर-वन्य कार्यों के लिए इस्तेमाल करने की क्षतिपूर्ति के लिए वनरोपण को अनिवार्य बनाने वाली निधि वर्तमान में 42,000 करोड़ रुपए है जिनमें से 10 प्रतिशत राष्ट्रीय सीएएमपीए के पास होना चाहिए और शेष राज्य सीएएमपीए के पास होना चाहिए।

ओडिशा में आदिवासियों के अधिकारों के संबंध में कार्य करने वाले गैर-सरकारी संगठन वसुंधरा की संघमित्रा दुबे कहती हैं कि ओडिशा का वन विभाग सीएएफ का इस्तेमाल ऐसी भूमि पर बाड़ लगाने के लिए कर रहा है जिस पर स्थानीय समुदाय ने अपना दावा किया है। फिर वे उन भूमि पर पौधारोपण कर रहे हैं। संघमित्रा के आंकड़ों के अनुसार, वन विभाग ने कालाहांडी जिले के कम से कम 10 गावों की वन्यभूमि पर पौधारोपण शुरू कर दिया है। इसका कहना है कि दस में से नौ गांवों के लोगों ने सामुदायिक वन अधिकारों के लिए आवेदन कर दिया है। संघमित्रा ने बताया कि वन विभाग ने क्षतिपूर्ति वनरोपण के लिए भूमि परिवर्तन से पहले एक गांव के अलावा किसी भी गांव की ग्राम सभा से परामर्श नहीं किया।

जब डाउन टू अर्थ ने सीएएमपीए के मुख्य वन संरक्षक सुदीप्तो दास से बात की तो उन्होंने कहा कि उन्होंने अभी विभाग में पदभार संभाला है इसलिए उन्हें इस भूमि परिवर्तन की कोई जानकारी नहीं है। 2016-17 के दौरान राज्य को सीएएफ के तहत 241 करोड़ रुपए प्राप्त हुए थे जिसमें से लगभग 2.97 करोड़ रुपए 48 वनरोपण अभियानों पर खर्च हुए।

नमती एनवायरमेंट जस्टिस प्रोग्राम, सेंटर फॉर  पॉलिसी रिसर्च, नई दिल्ली की विधि अनुसंधान निदेशक कांची कोहली का मानना है, “एक अवधारणा के रूप में क्षतिपूर्ति वनरोपण में जन भागीदारी को भी शामिल नहीं किया गया। एआरए की शुरुआत से यह जटिल हो गया क्योंकि अब लोगों को वन्यभूमि पर अधिकार का दावा कर सकते हैं। अब दो कानूनों के बीच टकराव हो गया है।”

एक अन्य घटना में ओडिशा वन अधिकारियों ने 300 हेक्टेयर की वन्यभूमि का घेराव करके उस पर सागौन के 60,000 पौधे लगा दिए। यह वन्यभूमि पिडिकिया गांव के लोगों की आजीविका का साधन है। ग्राम सभा ने राज्य के अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति विकास विभाग को पत्र लिखा जिसके बाद वन विभाग ने गांव वालों को जंगल में प्रवेश करने की इजाजत दे दी। संघमित्रा कहती हैं कि परंपरागत रूप से इस जंगल में महुआ के पेड़ होते हैं। अब सागौन के पेड़ लगाने से पारिस्थितिकी तंत्र पर बुरा असर पड़ सकता है। इसके अलावा गांव वाले सागौन नहीं बेच सकते क्योंकि भारत में इसे विनियमित किया जाता है और केवल वन विभाग ही इसे बेच सकता है। दास कहते हैं, सीएएफ के तहत पौधारोपण को संचालन समिति का अनुमोदन प्राप्त है और सभी नियमों का पालन किया जा रहा है।

झारखंड में भी पौधारोपण की ऐसी घटनाएं हो रही हैं। जुलाई 2017 में गुमला जिले में 50 एकड़ वन्यभूमि को वनरोपण परियोजना के तहत लाया गया था।  जिले के प्रभारी फॉरेस्ट रेंजर महादेव उरांव ने बताया, यहां सागौन, कीकर और शीशम के लगभग 50,000 पौधे लगाए गए हैं। यह पौधारोपण सीएएफ के तहत किया गया है।

इस बीच उत्तराखंड में वन विभाग वन पंचायत के अधिकार क्षेत्र में आने वाली जमीन पर पौधारोपण की योजना बना रहा है। उत्तराखंड के वन अधिकार कार्यकर्ता तरुण जोशी कहते हैं, जंगलों की कमी है इसलिए यह विचार उठा। अगस्त में प्रधान मुख्य वन संरक्षक और राज्य के वन मंत्री के बीच हुई बैठक में इस विचार पर चर्चा हुई थी। उत्तर गुजरात के साबरकांठा जिले, कर्नाटक के मैसूर जिले और छत्तीसगढ़ के कांकेर जिले में भी सामुदायिक वन्य भूमि पर वनरोपण अभियान चलाए जा रहे हैं। हालांकि कार्यकताओं का कहना है कि अभी यह पता नहीं चला है कि पौधारोपण सीएएफ के तहत किया जा रहा है अथवा नहीं।

यदि समय पर नियम बना दिए जाते तो राज्य के वन विभागों द्वारा किए जा रहे इस शोषण को रोका जा सकता था। जब 8 मई, 2015 को राज्य सभा में विधेयक पेश किया गया था तब कई सदस्यों ने एफआरए के साथ इसकी भिन्नता, आजीविका के साधनों के न होने तथा बेदखली और क्षतिपूर्ति वनरोपण अभियानों के दौरान स्थानीय समुदायों की भागीदारी के अभाव पर चिंता प्रकट की थी। इसके जवाब में तत्कालीन केंद्रीय पर्यावरण मंत्री स्वर्गीय अनिल दवे ने आश्वासन दिया था कि नियमों में सभी सुझावों को शामिल किया जाएगा। उन्होंने यह भी वादा किया था कि पौधारोपण के बारे में निर्णय लेते समय ग्राम सभाओं से भी विचार-विमर्श किया जाएगा।

किन्तु अगस्त में महाराष्ट्र वन विभाग की वेबसाइट पर अपलोड किए गए मसौदा नियमों में ग्राम सभाओं के साथ-विमर्श का कोई जिक्र नहीं है। आलोचना होने पर एमओईएफएंडसीसी ने खुद को इस मसौदे से अलग कर लिया। किन्तु मंत्रालय में मौजूद एक सूत्र ने बताया कि अप्रैल में शून्य मसौदा नियम सभी राज्यों के साथ साझा किए गए थे। नियमों पर चर्चा के लिए 31 मई को मंत्रालय के सभी प्रभागों की आंतरिक बैठक बुलाई गई थी। इसमें कई राज्यों के प्रधान मुख्य वन संरक्षक भी उपस्थित थे। बंद कमरे में बैठक करने के बावजूद यह उम्मीद नहीं है कि मंत्रालय 3 जनवरी, 2018 तक बढ़ाई गई समय-सीमा तक भी नियम बना सकेगा क्योंकि मसौदा नियमों को कम से कम दो महीने तक जनता के बीच रखना होगा ताकि इन पर सुझाव प्राप्त किए जा सकें। तब तक जनता के अधिकारों पर तलवार लटकती रहेगी।

दूर तक उम्मीद नहीं
केंद्र ने सीएएफ अधिनियम, 2016 के कार्यान्वयन के लिए अभी तक नियमों को अंतिम रूप नहीं दिया है, ऐसे में वन विभाग सामुदायिक वन्यभूमि पर नियंत्रण के लिए 2009 के दिशानिर्देशों का इस्तेमाल कर रहे हैं
 
 
  • मई 2016 : वन संरक्षण अधिनियम 1980 में क्षतिपूर्ति वनरोपण की अवधारणा सामने आने के 30 वर्ष बाद लोकसभा ने क्षतिपूर्ति वनरोपण निधि (सीएएफ) विधेयक पारित किया
  • जुलाई 2016 : राज्य सभा ने विधेयक पारित किया। पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय द्वारा जुलाई 2017 तक नियम बनाए जाने की संभावना
  • फरवरी 2017 : वन विभाग ने ओडिशा के पिडिकिया गांव में वन अधिकार अधिनियम 2006 के तहत सामुदायिक अधिकार वाली वन्यभूमि पर वनरोपण अभियान शुरू किया
  • मई 2017 : सीएएफ अधिनियम के कार्यान्वयन के नियमों पर चर्चा के लिए एमओईएफएंडसीसी की बैठक हुई
  • जुलाई 2017 : झारखंड के गुमला गांव में सामुदायिक भूमि पर वनरोपण अभियान चलाया गया
  • अगस्त 2017 : नियमों का शुरुआती मसौदा सभी राज्यों को भेजा गया
  • सितंबर 2017 : एमओईएफएंडसीसी ने नियमों को बनाने के लिए अधीनस्थ विधायन संबंधी राज्य सभा समिति से जनवरी 2018 तक का समय मांगा
  • नवंबर 2017 : प्रस्तावित नियम एमओईएफएंडसीसी के एकीकृत वित्तीय प्रभाग को सौंपे गए

Subscribe to Daily Newsletter :

Comments are moderated and will be published only after the site moderator’s approval. Please use a genuine email ID and provide your name. Selected comments may also be used in the ‘Letters’ section of the Down To Earth print edition.