उत्तराखंड में बांधों का निर्माण, सड़क चौड़ीकरण, ऑल वेदर रोड, भव्य भवन निर्माण और अब रेल लाइन निर्माण आदि कार्यों से विनाश के दरवाजे खोले जा रहे हैं।
उत्तराखंड जैसे संवेदनशील क्षेत्र में यह प्रश्न हमेशा उठता है कि विकास एवं पर्यावरण संरक्षण में सामंजस्य कैसे बनाया जा सकता है। यदि ध्यान दिया जाए तो विकास एवं पर्यावरण संरक्षण साथ-साथ किया जा सकता है किंतु उत्तराखंड जैसे हिमालयन राज्य में चल रहे निर्माण कार्यों जैसे बड़े बांधों का निर्माण, सड़क चौड़ीकरण, ऑल वेदर रोड, भव्य भवन निर्माण और अब रेल लाइन निर्माण आदि कार्यों में विकास के नाम पर विनाश के दरवाजे खोले जा रहे हैं।
ये विशालकाय निर्माण धरा को प्राकृतिक प्रकोपों के प्रति और संवेदनशील बना रहे हैं। भूमि के साथ उथल-पुथल भरा विकास आने वाले समय में भारी प्राकृतिक आपदा का कारण बन सकता है। हाल के कुछ महीनों में इसकी आहट भी महसूस की गई है। पिछले साल 28 दिसंबर को गढ़वाल क्षेत्र में 4.8 तीव्रता का भूकंप महसूस किया गया जिसका केंद्र रूद्रप्रयाग जिले के ऊखीमठ से करीब 10 किलोमीटर दूर हिमालय की तरफ बताया गया। दिसंबर माह में ही पर्वतीय क्षेत्र उत्तराखंड में यह दूसरा भूकंप था।
मैं पर्वतीय क्षेत्र जनपद टिहरी गढ़वाल, उत्तराखंड का रहने वाला हूं और बचपन से भूकंप का अनुभव करता रहा हूं। पर्वतीय क्षेत्र के लोगों में भूकंप की दहशत फैली रहती है। आंकड़ों पर नजर डालने पर पता चलता है कि 2017 में ही उत्तराखंड में 14 भूकंप के झटके 3 से अधिक के रिक्टर स्केल पर आ चुके हैं। 3 फरवरी 2017 को 3.5, 6 फरवरी को 5.8, पुनः 6 फरवरी को 3.6, 16 अप्रैल को 3.5, 12 जून को 3.0, 10 जुलाई को 3.8, 22 अगस्त को 4.2, 6 दिसंबर को 5.5 एवं 28 दिसंबर को 4.8 रिक्टर स्केल का भूकंप उत्तराखंड में आया।
हाल ही में मैंने ऋषिकेश से चंबा (टिहरी गढ़वाल) नेशनल हाइवे (एनएच- 94) पर हो रहे सड़क चौड़ीकरण को देखा। ऑल वेदर रोड के अंतर्गत रोड अत्यधिक चौड़ी (लगभग 12 मीटर) की जा रही है जिससे हजारों की संख्या में पर्यावरण रक्षी वृक्षों की कटाई की जा रही है। रोड के चौड़ीकरण हेतु वनों की इस प्रकार कटाई देख कदापि प्रतीत नहीं होता है कि विकास और पर्यावरण संरक्षण साथ-साथ चल रहे हैं।
मैं कुछ दिन पूर्व ऋषिकेश से चंबा जा रहा था जो जनपद टिहरी के ऋषिकेश-धरासू (एनएच-94) मार्ग पर है। मैंने देखा कि ऑल वेदर रोड के अंतर्गत रोड का चौड़ीकरण किया जा रहा है। नागनी में वर्षों पूर्व सड़क के किनारे लगाए गए अति मनमोहक सिल्वर ओक के पेड़ों की लम्बी कतार नदारद थी। पता चला कि मनमोहक सिल्वर ओक के पेड़ों को एक साथ काट दिया गया है। यह सब चारधाम हेतु ऑल वेदर रोड चौड़ीकरण के अंतर्गत हो रहा है। इस परियोजना के तहत 889 किमी रोड का चौड़ीकरण होना है जो उत्तराखंड के 8 जिलों में होगी तथा जिसकी लागत 12 हजार करोड़ रुपए है।
परियोजना के अंतर्गत रोड चौड़ीकरण में मुख्य 9 पड़ाव हैं जो विभिन्न पर्वतीय राष्ट्रीय मार्गों में आते हैं, जैसे ऋषिकेष-धरासू (एनएच-94), ऋषिकेष-रूद्रप्रयाग (एनएच-58), रूद्रप्रयाग- माना-बद्रीनाथ (एनएच-58), धरासू-गंगोत्री (एनएच-108), धरासू-यमनोत्री (एनएच-94), रूद्रप्रयाग-गौरीकुंड (एनएच-109) एवं टनकपुर-पिथौरागढ़ (एनएच-125)। ये ऋषिकेश से लेकर धरासू, रूद्रप्रयाग, गंगोत्री, यमुनोत्री, केदारनाथ, बद्रीनाथ, गौरीकुंड एवं टनकपुर से पिथौरागढ़ के पड़ावों मे आते हैं। इस रोड चौड़ीकरण परियोजना के अंतर्गत 2 टनल, 15 फ्लाईओवर, 13 भूक्षरण वाले स्थानों पर एलाइनमेंट, 25 बड़े पुल, यात्रियों हेतु 18 सुविधा स्थान एवं 13 बाईपास शामिल हैं। इस परियोजना के अंतर्गत 30,000 से अधिक वृक्षों का कटाव किया जा रहा है। मात्र ऋषिकेश- धरासू मार्ग पर ही हजारों पेड़ काटे जा रहे हैं जिसका काफी भाग नरेन्द्रनगर वन प्रभाग के अंतर्गत आता है।
इस विषय पर जाने-माने समाजसेवी व बीज बचाव आंदोलन के जनक विजय जड़धारी ने बताया कि पर्वतीय क्षेत्रों में पृथ्वी के साथ इस तरह का छेड़छाड़ कदापि उचित नहीं है। उन्होंने कहा कि रोड चौड़ीकरण के समय कुछ वृक्षों को बचाया भी जा सकता था किंतु ऐसा नहीं किया जा रहा। जड़धारी ने कहा कि पहाड़ की महत्ता वहां की संकरी रोड व प्राकृतिक सुंदरता के कारण है। यह जरूरी नहीं है कि पहाड़ में भी मैदानी भागों की तरह अत्यंत चौड़ी सड़कें हों।
जड़धारी ने कहा कि हम सब जानते हैं कि हिमालय भूकंप, भूक्षरण, बाढ़, बादल फटना, सूखा, जंगली आग आदि के लिए अत्यंत संवेदनशील है। अत्यधिक पेड़ कटने से पानी के स्रोत पूर्ण रूप से सूख जाएंगे। पहाड़ों का अस्तित्व जंगलों से है और जंगलों का मतलब पेड़ होता है। यदि ऋषिकेश से चंबा कस्बे के मध्य देखा जाए तो विभिन्न प्रकार के वृक्ष जैसे चीड़, बांझ, बेडू, पईयां, भीमल, खड़ीक, गुरियाल आदि बहुपयोगी वृक्ष भी इस रोड चौड़ीकरण में अपनी आहुति दे रहे हैं।
जब मैंने ऋषिकेश-धरासू मार्ग में नागिनी के निकट के कस्बे कुकरबागी के भरतू से संपर्क किया तो उन्होंने कहा कि रोड चौड़ीकरण में हमारी जमीन भी जा रही है। भरतू ने कहा कि मेरा मकान रोड से नजदीक होने के कारण इसकी जद में है। वह मुआवजा मिलने से इतने खुश नहीं है जितना घर उजड़ने से चिंतित हैं। अधिकतर रोड चौड़ीकरण के निकटवर्ती गांव वाले चिंतित हैं क्योंकि काम से मिट्टी गिरने से खेत खराब हो रहे हैं। पर्वतीय क्षेत्रों में रोजगार की ज्यादा संभावना न होने के कारण यहां के युवा मैदानी क्षेत्रों में रोजगार हेतु पलायन करते हैं।
वैसे भी जहां तक पर्वतीय कृषि का सवाल है तो वह पूर्णतः वर्षा पर आधारित है एवं कृषि उत्पादकता भी बहुत कम है। इससे पर्वतीय क्षेत्रों में अच्छा खासा भू-भाग होने के बावजूद लोग रोजगार की तलाश में पहाड़ छोड़ देते हैं। इसलिए कहा भी जाता है कि पहाड़ का पानी और पहाड़ की जवानी पहाड़ के काम नहीं आती। यदि हम वैश्विक स्तर पर बात करें तो अतिसंवेदनशील पर्वतीय क्षेत्रों में वृहद स्तर का भूमि कटाव कम किया जा रहा है। साथ ही पर्यावरणरक्षी तकनीकी का भी पूर्ण प्रयोग किया जा रहा है, किंतु इस ऑल वेदर रोड परियोजना के अंतर्गत इस तरह की पर्यावरण रक्षक तकनीकों का प्रयोग किया जा रहा है, यह ज्ञात नहीं है। यह भी ज्ञात है कि पेड़ काटने के बाद भविष्य में जितने पेड़ काटे जाएंगे उससे कई गुना अधिक पेड़ अन्य क्षेत्रों में रोपित भी किए जाएंगे।
यह एक ज्ञात तथ्य है किंतु किसी स्थान की पारिस्थितिकी एवं उसमें विभिन्न प्रकार के जंगली जानवरों, कीट पतंगों एवं सूक्ष्म जीवाणुओं का एसोसिएशन जो इकोलॉजी बनाता है, उसे बनने में हजारों वर्ष लगते हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि यदि आप किसी स्थान से निर्माण हेतु सौ पेड़ काटते हैं और किसी दूसरे स्थान पर पांच सौ पेड़ भी लगा दें तो भी आप उस नए स्थान की पारिस्थितिकी उन सौ पेड़ वाले स्थान की तरह नहीं बना सकते।
सर्वप्रथम नए स्थान पर लगाए पेड़ों को बड़े होने में समय लगेगा, उनके साथ सूक्ष्म जीवाणु एवं जंगली जानवरों का तालमेल बनने में समय लगेगा। नए पेड़ उस स्थान की मिट्टी व जल को संरक्षित करने में भी समय लेंगे लेकिन क्या ये पेड़ उस दूसरे स्थान पर उस तरह की प्राकृतिक पारिस्थितिकी बना पाएंगे? यह लाख टके का सवाल है। सौ पेड़ों को काटने में सौ मिनट भी नहीं लग रहे हैं किंतु उन सौ पेड़ों ने जो पारिस्थितिकी बनाई है, उसको बनाने में हजारों वर्ष लगे होंगे। अतः एक सुनियोजित एवं सामंजस्य पूर्ण विकास एवं सोच की नितांत आवश्यकता है।
उत्तराखंड में लगभग 889 किमी. लंबी सड़कों को इतना चौड़ा किया जा रहा है कि पहाड़ भी अपने लिए जगह नहीं बना पा रहे हैं अर्थात इतनी चौड़ी सड़कें संवेदनशील पहाड़ों पर उचित नहीं लगतीं।
कई पर्वतीय देशों में विकास हुए हैं। सड़क निर्माण की बेहतरीन तकनीकें देश-विदेश में उपलब्ध हैं। क्या उनका इस्तेमाल किया जा रहा है? ऐसा कुछ भी प्रतीत नहीं होता। और क्या पर्वतीय क्षेत्रों को इस तरह खोदना प्रकृति के साथ अनर्गल छेड़छाड़ नहीं है? पृथ्वी के अंदर की टेक्टोनिक प्लेटों में पहले से ही सरकाव एवं हलचल है और हम इस तरह से रोड चौड़ीकरण कर (पेड़ों का अत्यधिक कटान) इस अति संवदेनशील क्षेत्र में भूकंप को न्यौता दे रहे हैं।
ऋषिकेश से बद्रीनाथ, केदारनाथ, गंगोत्री यमुनोत्री आदि स्थानों पर विगत वर्षों में आए भूकंपों से दरारें अब भी पड़ी हुई हैं। रोड चौड़ीकरण से कई गुणा क्षति पहाड़ों में घाटी या ढलाव के तरफ के क्षेत्र में होती है। इसकी जद में आने वाले लोगों के पहाड़ी सीढ़ीनुमा खेत आ जाते हैं जिससे उनकी जीविका प्रभावित होती है। क्या यह आवश्यक है कि मैदानी क्षेत्रों की तरह पहाड़ों पर भी वाहन 60 किमी प्रति घंटे की रफ्तार से चलें? मैं पहाड़ों पर रेल पहुंचाने का पक्षधर भी नहीं हूं क्योंकि पहाड़ में रेल झटके का द्योतक हो सकती है, यातायात का नहीं। मैंने शिमला की कालका-शिमला रेल देखी है, वह यातायात के लिए कम व टूरिज्म के लिए अधिक जानी जाती है। पहाड़ों पर रेलमार्ग बनाने के लिए कई सुरंगों को बनाना होता है जो पहाड़ के निवासियों एवं पहाड़ की सेहत के लिए कदापि हितकर नहीं होगा।
मैंने एशिया के बड़े रॉक व अर्थ फिल डैमों/ बांधों में से एक टिहरी डैम से होने वाली पर्यावरणीय क्षति एवं वहां रहने वालों की जीविका की उथल-पुथल को बचपन से देखा है। टिहरी डैम उत्तराखंड के जनपद टिहरी में बना है एवं इसकी विद्युत क्षमता (कोटेश्वर बांध को मिलाकर) 2,400 मेगावाट है किंतु इस टिहरी डैम को बनने से जो पर्यावरणीय, सामाजिक, ऐतिहासिक एवं भौगोलिक क्षति हुई है वह मापी नहीं जा सकती। टिहरी डैम की खातिर 202 वर्ष पुराने टिहरी शहर को डुबा दिया गया जो इस क्षेत्र की संस्कृति का संगम था। साथ ही कई दर्जन गांवों एवं गांव वालों को विस्थापन का दंश झेलना पड़ा। इसने अत्यधिक उपजाऊ भूमि एवं पेड़-पौधे को भी डुबा दिया।
आज इस क्षेत्र के लोग अपनी पहचान खो चुके हैं। यहां तक कि डूब क्षेत्र के निवासियों को पूर्णतः विस्थापित भी नहीं किया जा सका। खैर, विकास के लिए कुछ कुर्बानियां देनी होती हैं किंतु यह जानते हुए भी कि टिहरी भूंकप की दृष्टि से अति संवेदनशील क्षेत्र है और यह हाई रिस्क जोन 4 एवं 5 में आता है, इतने बड़े बांध बनाने की ज्यादा जरूरत नहीं थी। टिहरी डैम भागीरथी नदी पर बना है जो कि गंगोत्री से निकलती है एवं टिहरी में मिलंगना नदी में मिलती है। इस बांध के बनने से टिहरी जनपद के सीमांत जिले उत्तरकाशी के चिनियालीसौंन से लेकर टिहरी के धनसाली, थौलधार एवं समस्त प्रताप नगर ब्लॉक प्रभावित हुए हैं। इस क्षेत्र में बांध से 42 वर्ग किलोमीटर की झील बनी हुई है। इस झील के बनने से यहां मौसम अकारण बदल जाता है। प्रताप नगर ब्लॉक के ग्राम भौन्याणा के 73 वर्षीय भवानी दत्त का कहना है कि यहां हम लोग पहले ही परेशान थे, टिहरी बांध की झील बनने से हम अत्यन्त परेशान हो गए हैं। क्षेत्र जनपद टिहरी मुख्यालय से झील की वजह से पूर्णतः कट गया है। टिहरी बांध में कितने वृक्षों ने अपनी आहुति दी है, इसका पूर्णतः आकलन मुश्किल है।
भू वैज्ञानिकों द्वारा उत्तराखंड को भूकंप की दृष्टि से अति संवेदनशील बताया गया है। भू वैज्ञानिकों एवं भूकंप विशेषज्ञों के अनुसार, इन हिमालयी क्षेत्रों में बड़े भूकंप आने की आशंका है जो रिक्टर स्केल पर 8 तक का हो सकते हैं। ये भूकंप 700 किमी. तक के क्षेत्र को प्रभावित कर सकते हैं। इतना ही नहीं उत्तराखंड की धरती पर बड़े-बड़े बांधों का निर्माण कर ऊर्जा प्रदेश बनाने की कल्पना पर्यावरण की दृष्टि से कितनी कारगर होगी, यह तो पता नही किंतु भू-कटाव, भूक्षरण एवं पहाड़ वनस्पति विहीन एवं नंगे जरूर हो जाएंगे जो भविष्य में भयावह त्रासदी को न्यौता दे सकते हैं।
वर्तमान में उत्तराखंड के पिथौरागढ़, चंपावत एवं अल्मोड़ा जिलों के महाकाली नदी में पंचेश्वर बांध प्रस्तावित है जिसकी जद में लगभग 134 गांव आएंगे एवं प्रारंभिक अवस्था में 1,583 हेक्टेयर वन भूमि वनस्पति सहित अपनी भेंट देगी। इस बांध में भारत का 120 वर्ग किमी. और नेपाल का 12 वर्ग किमी. क्षेत्र आ रहा है। पंचेश्वर बांध टिहरी बांध से लगभग दुगनी विद्युत क्षमता अर्थात 4,800 मेगावाट बिजली के लक्ष्य के साथ प्रस्तावित है। बांध की ऊंचाई 311 मीटर होगी। अभी टिहरी बांध का दंश कम नहीं हुआ कि पंचेश्वर बांध का प्रस्ताव उत्तराखंड के संवदेनशील पर्यावरण को लीलने के लिए तैयार है।
(लेखक भोपाल स्थित भारतीय वन प्रबंध संस्थान में सहायक प्राध्यापक हैं)
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