Economy

दुनिया से असमानता खत्म हो सकती है लेकिन सरकारें ऐसा नहीं चाहतीं

आर्थिक संकट के दौर में भी अमीर अधिक अमीर हो रहे हैं जबकि गरीब गरीबी के दलदल में धंसते जा रहे हैं

 
By Richard Mahapatra
Published: Wednesday 27 March 2019
Credit: Vikas Choudhary

संजीत / सीएसई

साल में एक वक्त ऐसा आता है जब हम दुनियाभर में आर्थिक असमानता को लेकर भावुक हो जाते हैं। इसके लिए हमें गैर लाभकारी संगठन ऑक्सफेम का शुक्रगुजार होना चाहिए जो लगातार हमें आय सृजन की कड़वी सच्चाई से रूबरू कराता रहता है। साथ ही वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम (डब्ल्यूईएफ) भी हमें धरती के सबसे अमीर लोगों की हर साल जानकारी देता है।

ऑक्सफेम की अंतरराष्ट्रीय रिपोर्ट “पब्लिक गुड ओर प्राइवेट वेल्थ” सुर्खियों में है। पिछले कुछ सालों से रिपोर्ट में एक ही बात दोहराई जा रही है। अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष की प्रमुख क्रिस्टीन लागार्ड ने डब्ल्यूईएफ की प्रारंभिक प्रेस कॉन्फ्रेंस में कहा कि एक अर्थव्यवस्था को “लचीला, समावेशी, सहयोगपूर्ण” होना चाहिए। इससे किसी को विरोध नहीं होगा। दरअसल वह वैश्विक अर्थव्यवस्था के कमजोर होने के साथ वैश्वीकरण के खिलाफ पनप रहे असंतोष से चिंतित थीं।

अमीरों और गरीबों के बीच चौड़ी होती खाई की खबर अब बासी हो चुकी है। असमानता से अधिक चिंता की बात यह है कि दोनों पक्षों का प्रतिनिधित्व करने वाले विशेषज्ञ लोगों के बीच बोल रहे हैं। संपत्ति वितरण में असमानता का यह तात्कालिक और दीर्घकालिक प्रभाव है जो अमीर को अमीर और गरीब को गरीब बना रहा है।

यह 2008 की वैश्विक मंदी का दसवां साल है। इसने भी मुक्त बाजार के मॉडल को चोट नहीं पहुंचाई बल्कि उसकी रक्षा जरूर की है। एक के बाद एक देशों ने स्थिति से उबरने के लिए राहत पैकेज जारी किए। लोगों की बेलगाम संपत्ति बढ़ने का अनुभव दुनिया के सबसे अमीरों के लिए सबसे बुरा रहा। मंत्र था कि संपत्ति रिसकर गरीबों तक पहुंचेगी जिससे उनके जीवनस्तर में सुधार होगा। लेकिन क्या यह मंत्र सच्चाई में तब्दील हो पाया?

ऑक्सफेम की रिपोर्ट में वास्तविकता की पड़ताल की गई है। 2008 के बाद अरबपतियों की संख्या लगभग दोगुनी हो गई है। रिपोर्ट बताती है कि इसी समय में विश्व के आधे गरीबों की संपत्ति 11 प्रतिशत घट गई है। स्पष्ट है कि अमीरों की संपत्ति रिसकर नीचे तक नहीं पहुंची है क्योंकि ऐसी संपत्ति से महज 4 प्रतिशत कर ही प्राप्त होता है। ब्राजील और ब्रिटेन जैसे देशों में आय कर और उपभोग कर (मूल्य संवर्धन कर) पर विचार किया जाता है जहां 10 प्रतिशत अमीर 10 प्रतिशत गरीबों के मुकाबले कम दर से कर का भुगतान कर रहे हैं।

सबसे अमीर (सुपर रिच) प्राधिकरणों से 7.6 ट्रिलियन डॉलर छुपा रहे हैं। असमानता अपरिहार्य नहीं है। रिपोर्ट में कहा गया है, “अर्थशास्त्र में ऐसा कोई नियम नहीं है जो कहे कि अमीर को और अमीर होना चाहिए, वह भी तब जब गरीब दवा के अभाव में मर रहे हों। उस स्थिति में इतने कम लोगों के हाथों में इतनी अधिक संपत्ति का कोई औचित्य नहीं है जब संसाधनों का प्रयोग मानवता के लिए हो सकता है। असमानता राजनीतिक और नीतिगत पसंद है।” इससे स्पष्ट होता है कि आखिर क्यों गरीबी या संपत्ति तक पहुंच धर्मनिरपेक्ष नहीं है। यह इस पर निर्भर है कि पहले से कौन कितना संपन्न है।

डब्ल्यूईएफ से पहले आईएमएफ के उप प्रबंध निदेशक डेविड लिप्टन ने ब्लॉग लिखकर संकेत दिया कि वैश्वीकरण के दौर में मतदाता भरोसा खो रहे हैं। उन्होंने दलील दी कि इनमें अंतरराष्ट्रीय आदेश को ध्वस्त करने की क्षमता है। यह ईमानदारी से भरा आकलन है लेकिन उन्होंने उन लोगों के नजरिए से ऐसा कहा जिन्हें 2008 की मंदी से फायदा मिला है। उन्होंने लिखा, “इस नाराजगी के कारण करदाताओं के पैसों से संकट की अगली घड़ी में बैंकों का मजबूत करना मुश्किल हो जाएगा। अगर भविष्य में मंदी कामगारों और छोटे व्यापारियों को नुकसान पहुंचाएगी तो राज्यों पर उन्हें आर्थिक मदद पहुंचाने दबाव बढ़ जाएगा। ठीक वैसी जैसी मदद उन्होंने 2008 में बैंकों की थी। इससे सार्वजनिक क्षेत्र कर्ज के खतरनाक स्तर पर पहुंच जाएगा।”

हालांकि संपत्ति का सृजन गरीबों तक रिसकर नहीं पहुंचा है लेकिन मुक्त बाजार के पैरोकार फिर मंदी की चेतावनी दे रहे हैं। दुनिया उनकी रक्षा के लिए फिर से तैयारी करेगी, लेकिन उन लोगों पर ध्यान नहीं देगी जो इसके सबसे बड़े शिकार होंगे।

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