आवरण कथा: क्या प्रशासनिक सख्ती से रुक जाएंगे असम में बाल विवाह?

असम में मातृ मृत्यु दर पर अंकुश लगाने के नाम पर बाल विवाह के खिलाफ सख्त कार्रवाई हो रही है। लेकिन इस समस्या के पीछे छिपे तमाम दूसरे कारणों की अनदेखी की जा रही है

By Taran Deol, Himanshu Nitnaware
Published: Monday 01 May 2023


असम के धेमाजी जिले के एक दूर-दराज के गांव (पहचान गोपनीय बनाए रखने के लिए गांवों के नाम नहीं लिखे गए हैं) में रहने वाली 17 साल की मेनका डोले पातिर (बदला हुआ नाम) पहली बार गर्भवती हुईं। लेकिन, उनके पहले बच्चे की यह खुशी बहुत जल्द डर और परेशानियों में बदल गई।

उनके गर्भवती होने की खबर के कुछ ही दिन बाद राज्य सरकार ने 23 जनवरी, 2023 को बाल विवाह निषेध अधिनियम (पीसीएमए), 2006 और प्रोटेक्शन ऑफ चिल्ड्रेन फ्रॉम सेक्सुअल ऑफेंसेस एक्ट 2012 (पोक्सो एक्ट) के जरिए बाल विवाह करने वालों पर कार्रवाई शुरू कर दी।

एक महीने के भीतर असम पुलिस ने पूरे राज्य में 3,000 से अधिक लोगों को गिरफ्तार कर लिया, जिनमें ज्यादातर नाबालिग दुल्हनों के पति और उनके परिवार के पुरुष सदस्य शामिल हैं। यह आंकड़ा लगातार बढ़ रहा है।

मेनका की उम्र आधिकारिक तौर पर शादी के लिए तय 18 साल से एक वर्ष कम है। इसलिए उनके पति को पोक्सो के तहत गिरफ्तार करने के साथ ही यौन उत्पीड़न के आरोप में 20 साल तक की कैद हो सकती है। इस वजह से उनके परिवार को मेनका का गर्भपात कराने का तकलीफदेह फैसला लेना पड़ा।

दरअसल वे गर्भावस्था की वजह से बहुत डर गए थे, क्योंकि उन्हें पता था कि मेनका की उम्र नहीं छिपा पाएंगे। बाल विवाह के खिलाफ कार्रवाई के लिए सरकार ने अस्पतालों और स्थानीय स्वास्थ्य कर्मियों को आदेश दिया है कि गर्भावस्था और प्रसव से जुड़े मामलों में महिला की उम्र भी दर्ज की जाए।

इस जानकारी का इस्तेमाल अधिकारी कम उम्र में हुईं शादियों का पता लगाने के लिए कर रहे हैं। इसके साथ ही सरकार ने फरवरी में ग्राम पंचायत सचिव को चाइल्ड मैरिज निषेध अधिकारी बना दिया। यह अधिकारी देखेगा कि कहां बाल विवाह हो रहा है, फिर वह पुलिस को सूचना देगा।

कार्रवाई के तेज होने से राज्य में भय व्याप्त है। छापेमारी करने वाले अधिकारियों को चकमा देने के लिए परिवार कम उम्र की दुल्हनों को उनके माता-पिता के घर या अन्य जगहों पर भेज रहे हैं। कई गर्भवती महिलाएं अधिकारियों से बचने के लिए घर पर ही बच्चे को जन्म देने का फैसला कर रही हैं। कम उम्र में मां बनीं लड़कियों ने पहचान उजागर होने के डर से अपने बच्चों को अस्पतालों में ले जाना भी बंद कर दिया है।

धेमाजी जिले के एक अन्य गांव की प्रणिता फूकन (बदला हुआ नाम) अपने बीमार बच्चे को नजदीकी स्वास्थ्य केंद्र ले जाने से पहले 4 दिन तक इंतजार करती रही। तब तक बच्चा इतना कमजोर हो गया कि उसे जिला सिविल अस्पताल रेफर करना पड़ा।

धेमाजी के एक अन्य गांव के जापान डोले (बदला हुआ नाम) कहते हैं, “इस गांव की चार से अधिक विवाहित लड़कियां अपने मायके लौट आई हैं। वे सभी नाबालिग हैं। सभी परिवारों में दहशत का माहौल है।” उनकी पत्नी एक आंगनवाड़ी कार्यकर्ता हैं। उनके पास गांव में महिलाओं के स्वास्थ्य और प्रसव की निगरानी की जिम्मेदारी हैं। डोले कहते हैं, “मेरी बहुएं अब वयस्क हो गई हैं। लेकिन शादी के समय वे कम उम्र की थीं। इसलिए मुझे और मेरे बेटों को अब भी गिरफ्तार किया जा सकता है।”

सख्त कार्रवाई

बाल विवाह को भले ही 1929 में ही प्रतिबंधित कर दिया गया था, लेकिन आज भी यह पूरे भारत में बड़ी समस्या बनी हुई है। केंद्रीय स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय की ओर से जारी राष्ट्रीय परिवार और स्वास्थ्य सर्वेक्षण के 5वें दौर के आंकड़ों के अनुसार, 2019-21 में 20 से 24 वर्ष की आयु के बीच की हर 4 में से एक महिला (23.3 प्रतिशत) की शादी 18 साल की उम्र से पहले हो गई। बाल विवाह सबसे अधिक पश्चिम बंगाल (41.6 प्रतिशत) में प्रचलित है। इसके बाद बिहार (40.8 प्रतिशत), त्रिपुरा (40.1 प्रतिशत) और झारखंड (32.2 प्रतिशत) का नंबर आता है। असम में यह आंकड़ा 31.8 फीसदी है।

इन आंकड़ों से इतर असम में बाल विवाह को रोकने के लिए हो रही कार्रवाई स्तब्ध करने वाली है। देश में पहली बार कोई राज्य सरकार बाल विवाह में शामिल लोगों पर पीसीएमए के तहत कार्रवाई तो कर ही रही है, साथ ही उन्हें नाबालिग लड़कियों के यौन उत्पीड़न, वेश्यावृत्ति, तस्करी और पोर्नोग्राफी पर अंकुश लगाने वाले कानून पॉक्सो के तहत गिरफ्तार भी कर रही है।

असम में गौहाटी विश्वविद्यालय में राजनीति विज्ञान विभाग के पूर्व प्रमुख अखिल रंजन दत्ता कहते हैं, “पीसीएमए का विषय और कॉन्सेप्ट पुलिसिंग और कार्रवाई करना नहीं है, बल्कि पीड़ितों को बचाना और अपराधियों निर्धारित प्रक्रियाओं के माध्यम से दंडित करना है। इसलिए पुलिस की कार्रवाई अधिनियम के प्रावधानों का उल्लंघन करती है” (देखें, “गलत उपचार”,)।

गलत उपचार

बाल विवाहों पर युद्ध स्तर पर कार्रवाई करने के लिए मातृ और शिशु मृत्यु दर एकमात्र आधार नहीं हो सकता

अखिल रंजन दत्ता

असम में मातृ और शिशु मृत्यु दर चिंताजनक है। बाल विवाह की बढ़ती घटनाओं ने स्थिति को और खराब कर दिया है। इस वजह से असम सरकार ने बाल विवाह पर राज्यस्तरीय कार्रवाई शुरू की और प्रोटेक्शन ऑफ चिल्ड्रन फ्रॉम सेक्शुअल ऑफेंसेज एक्ट, 2012 (पॉक्सो) और बाल विवाह निषेध अधिनियम, 2016 (पीसीएमए) के तहत हजारों लोगों को गिरफ्तार कर लिया गया।

हालांकि, मातृ मृत्यु दर (एमएमआर) और शिशु मृत्यु दर (आईएमआर) के मुद्दों से निपटने में सरकार की ओर से किए गए दावों की जांच करने के लिए दो बड़े प्रश्नों पर गौर किया जाना चाहिए।

पहला दावा यह है कि एमएमआर और आईएमआर बाल विवाह से जुड़े लोगों पर कार्रवाई करने के वैध आधार हैं। बाल विवाह के अलावा, एमएमआर और आईएमआर दर के बढ़ने की वजह खराब स्वास्थ्य सेवा, पोषण की कमी और जन्म नियंत्रण के बारे में वैज्ञानिक जानकारी की सीमित पहुंच है। असम की जनसंख्या और महिला सशक्तिकरण नीति, 2017 में गरीबी और निरक्षरता से लेकर बाढ़, कटाव व जलवायु परिवर्तन तक को जीवन की घटती गुणवत्ता और जनसंख्या विस्फोट से जोड़ा गया।

बाल विवाह के साथ-साथ आजीविका के स्रोतों, बेरोजगारी और निरक्षरता जैसे मुद्दों पर प्रकाश डालते हुए उच्च आईएमआर और एमएमआर को जनसांख्यिकीय और विकास संबंधी जटिलताओं के लिए जिम्मेदार ठहराया गया। नीति आयोग सहित विभिन्न सरकारी एजेंसियों द्वारा प्रकाशित रिपोर्टों की एक श्रृंखला ने असम में मानव सुरक्षा और दीर्घकालिक विकास की खराब स्थिति को उजागर किया है। राज्य ने स्वास्थ्य और कल्याण में भी खराब प्रदर्शन किया है।

दूसरा सवाल बाल विवाह पर नकेल कसने में पीसीएमए और पोक्सो के प्रावधानों की गलत व्याख्या का है। कोई भी अधिनियम पुलिस को कथित रूप से बाल यौन शोषण में लिप्त लोगों पर बड़े पैमाने पर कार्रवाई करने या उन्हें दंडित करने का अधिकार नहीं देता। पोक्सो वर्तमान मामलों में लगभग अनुपयुक्त है। पीसीएमए के तहत निर्धारित समय सीमा के भीतर, अनुबंध करने वाले पक्षों को ऐसी शादी को रद्द करने के लिए याचिका दायर कर कानूनी प्रक्रिया अपनानी होती है। इसके साथ ही इस अधिनियम के जरिए अधिकारियों को कुछ जिम्मेदारियां भी सौंपी गई हैं, जिनके तहत उन्हें बाल विवाह की कुरीति को रोकने के उपाय करने होते हैं और साथ ही लोगों को जागरूक भी करना पड़ता है।

इस अधिनियम का विषय और कॉन्सेप्ट पुलिसिंग और कार्रवाई करना नहीं है, बल्कि पीड़ितों को बचाने और अपराधियों केवल निर्धारित प्रक्रियाओं के माध्यम से ही दंडित करना है। इसलिए पुलिस की कार्रवाई अधिनियम के प्रावधानों और भावना का उल्लंघन करती है।

इस अधिनियम के तीन महत्वपूर्ण आयाम हैं: अ) बाल विवाह के खिलाफ कॉन्ट्रैक्ट करने वाले पक्षों द्वारा याचिका दायर करने की प्रक्रिया और निर्धारित समय सीमा; ब) बाल विवाह की कॉन्ट्रैक्ट करने वाली महिला पक्षकार के भरण-पोषण व निवास का प्रावधान; बाल विवाह से पैदा हुए बच्चों के संरक्षण और भरण-पोषण और ऐसे बच्चों की वैधता; और स) समाज के हितधारकों के सहयोग से जागरूकता पैदा करने, साक्ष्य एकत्र करने, और बाल विवाह के खिलाफ पहल करने की दिशा में बाल विवाह निषेध अधिकारियों की भूमिका और जिम्मेदारियां।

दिलचस्प बात यह है कि असम के मुख्यमंत्री ने पुलिस कार्रवाई के खिलाफ गुवाहाटी उच्च न्यायालय की कड़ी टिप्पणियों के बाद ही बाल विवाह के खिलाफ एक ईकोसिस्टम बनाने पर जोर दिया। 17 फरवरी को राज्य के अधिकारियों के साथ एक समीक्षा बैठक में मुख्यमंत्री ने कहा, “सरकारी अधिकारी, कानून प्रवर्तन एजेंसियां, गांव के बुजुर्ग, ग्राम पंचायत सचिव, स्वयं सहायता समूह और ग्राम रक्षा दल इस पारिस्थितिकी तंत्र के हितधारक होंगे।”

(अखिल रंजन दत्ता असम के गुवाहाटी विश्वविद्यालय में राजनीति विज्ञान विभाग के पूर्व प्रमुख हैं। वह पुस्तक “हिंदुत्व रेजीम इन असम: सैफरन इन द रेनबो” 2021 के लेखक हैं)



पीसीएमए विभिन्न प्रकार के बाल विवाहों के बीच के महीन अंतर को ध्यान में रखता है। इसमें कहा गया है कि ऐसे मामलों में जहां बच्चे को धोखे से शादी के लिए “मजबूर” किया गया था या शादी के उद्देश्य से “बेचा” गया था, ऐसे विवाह कानूनी तौर पर मान्य नहीं हैं। अन्य सभी मामलों में शादी केवल तभी अमान्य है, जब बच्चा वयस्क होने के 2 साल के भीतर अदालत का दरवाजा खटखटाता है। इस कानून में बाल विवाह से बचाने के लिए कई तरह की व्यवस्थाएं हैं। इसमें नाबालिग दुल्हन और ऐसे विवाह से पैदा हुए बच्चों की भलाई सुनिश्चित करने के प्रावधान भी हैं। कानून के मकसद के अलावा पोक्सो और पीसीएमए के बीच एक प्रमुख अंतर सजा का भी है। पीसीएमए के तहत एक व्यक्ति को दो साल तक की कैद और एक लाख रुपए का जुर्माना लगाया जा सकता है। जबकि पोक्सो के तहत, दोषी को “पेनीट्रेटिव सेक्शुअल असॉल्ट” के लिए 20 साल तक की कैद हो सकती है।

असम के मुख्यमंत्री हिमंत बिस्वा सरमा ने सभी बाल विवाहों को अवैध बताते हुए इन दोनों कानूनों का एक साथ उपयोग करने के कदम को सही ठहराया है। लेकिन गौहाटी उच्च न्यायालय को भी यह बात सही नहीं लगी। उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति सुमन श्याम ने 14 फरवरी को कार्रवाई के तहत दर्ज 9 मामलों में याचिकाकर्ताओं को अग्रिम जमानत देते हुए कहा, “यहां पोक्सो लगाने के पीछे क्या मकसद है? केवल इसलिए कि पोक्सो लगा हुआ है, तो क्या न्यायाधीश यह नहीं देखेंगे कि वहां क्या हुआ है?” अदालत ने यह भी कहा, “यह लोगों के निजी जीवन में तबाही मचा रहा है। बच्चे, बुजुर्ग, और परिवार के अन्य सदस्य भी इससे प्रभावित हैं। जाहिर है कि बाल विवाह एक कुरीति है। हम अपने विचार रखेंगे लेकिन फिलहाल मुद्दा यह है कि क्या उन सभी को गिरफ्तार कर जेल में डाल देना चाहिए।”

हालांकि छापेमारी अभी भी जारी है। 10 मार्च 2023 तक राज्य पुलिस ने बाल विवाह के 4,300 से अधिक मामले दर्ज किए थे। इसके विपरीत, राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के अनुसार, 2021 में पीसीएमए के तहत केवल 155 मामले दर्ज किए गए थे। 2021 में राष्ट्रीय स्तर पर 1,050 मामले दर्ज हुए थे। उस वर्ष राज्य में पोक्सो के तहत 1,926 मामले दर्ज किए गए थे, लेकिन वे नाबालिगों पर किए गए यौन हमलों के लिए थे, न कि बाल विवाह के लिए।

गलत तर्क

मुख्यमंत्री सरमा ने मीडिया को बताया कि इस कार्रवाई के माध्यम से उनकी सरकार ने राज्य में मातृ और शिशु मृत्यु को रोकने की योजना बनाई है। असम में मातृ मृत्यु दर (एमएमआर) देश में सबसे ज्यादा है। भारत के रजिस्ट्रार जनरल द्वारा जारी सैंपल रजिस्ट्रेशन सिस्टम रिपोर्ट 2018-20 के अनुसार, प्रति एक लाख जीवित जन्म (लाइव बर्थ) पर 195 मांओं की जान चली जाती है। 23 फरवरी, 2023 को संयुक्त राष्ट्र द्वारा जारी “ट्रेंड्स इन मैटर्नल मॉर्टैलिटी” रिपोर्ट के अनुसार, भारत का राष्ट्रीय औसत 97 है। मातृ मृत्यु दर के मामले में नाइजीरिया के बाद भारत दूसरे स्थान पर है।

बाल विवाह से मातृ मृत्यु दर का खतरा बढ़ जाता है, क्योंकि नाबालिग लड़कियां बच्चे के जन्म के लिए मानसिक या शारीरिक रूप से तैयार नहीं होतीं। दिसंबर 2019 में साइंस डायरेक्ट में प्रकाशित एक शोध पत्र के अनुसार, असम में मातृ मृत्यु के 23.3 प्रतिशत मामलों में लड़कियां नाबालिग थीं। “एपिडीमिओलॉजिकल स्टडी ऑफ मैटरनल डेथ इन असम” नामक अध्ययन के मुताबिक, कम एमएमआर वाले जिलों की तुलना में ज्यादा एमएमआर वाले जिलों में गर्भवती किशोरियों की संख्या ज्यादा है। हालांकि, इस संबंध में विशेषज्ञों ने चेतावनी दी है कि केवल बाल विवाह पर नकेल कस कर एमएमआर पर अंकुश लगाने की योजना एकतरफा है, जिसमें नतीजों की उम्मीद करना दूर की कौड़ी साबित होगा। बाल विवाह के अलावा और भी कई बड़े कारणों से मातृ मृत्यु दर में बढ़ोतरी होती है (देखें, “हकीकत से दूरी”,)।

हकीकत से दूरी

असम की कार्रवाई दीर्घकालिक बदलाव नहीं लाएगी, क्योंकि बाल विवाह संस्कृति और सामाजिक मानदंडों में निहित है

घासीराम पांडा

2007 में लागू किए गए बाल विवाह निषेध अधिनियम, 2006 के तहत लड़कियों के लिए विवाह की न्यूनतम आयु 18 वर्ष और लड़कों के लिए 21 वर्ष निर्धारित है। इसके तहत बाल विवाह का कॉन्ट्रैक्ट करने, प्रदर्शन करने, संचालित करने, निर्देशित करने या इसके लिए उकसाने वाले पुरुष वयस्कों को दंडित किया जाएगा। इस अधिनियम के अंतर्गत कैद का भी प्रावधान है। अभियोजन केवल तभी एक विकल्प है जब आवश्यक हो, खासकर तब जब बच्चे को बहला-फुसलाकर, बलपूर्वक या कपटपूर्ण साधनों के उपयोग द्वारा अपने वैध अभिभावक से दूर ले जाया गया हो या विवाह के उद्देश्य से उन्हें बेचा या उनकी तस्करी की गई हो।

यह सही बात है कि बाल विवाह कई कारणों से होता है, जैसे गरीबी, परंपराएं और पितृसत्तात्मक मानदंडों पर आधारित मूल्य। यह एक प्रमाणित तथ्य है कि बालिकाओं के लालन-पालन के पीछे के अर्थशास्त्र ने अक्सर गरीब परिवारों को बाल विवाह को एक सहज समाधान मानने के लिए प्रेरित किया है।

यह कानून प्रत्येक राज्य में बाल विवाह निषेध अधिकारियों (सीएमपीओ) की नियुक्ति की मांग करता है, ताकि समाज को संवेदनशील बनाया जा सके, उनमें जागरूकता पैदा की जा सके, बाल विवाह को रोका जा सके और पीड़ितों की रक्षा की जा सके। यह बच्चों को विवाह को रद्द करने का विकल्प देकर बाल विवाह को निरस्त करने योग्य बनाता है। यह कम उम्र की दुल्हन के भरण-पोषण और निवास की व्यवस्था करता है। यह बाल विवाह से पैदा हुए सभी बच्चों को कानूनी दर्जा देता है और उनकी संरक्षण और भरण-पोषण के लिए प्रावधान लागू करता है। बच्चों को मुक्त कराने के बाद यह कानून उन्हें चिकित्सीय सहायता, कानूनी सहायता, परामर्श और पुनर्वास सहित सभी प्रकार की सहायता प्रदान करता है। बाल विवाह निषेध अधिकारी को बाल विवाह पीड़ितों को आवश्यक सहायता उपलब्ध कराने और बाल कल्याण समिति के समक्ष देखभाल और संरक्षण की आवश्यकता वाले बच्चों को प्रस्तुत करने के अधिकार दिए गए हैं।

इस कानून के तहत राज्य को एक मुख्य सीएमपीओ नियुक्त करना चाहिए, जो बाल विवाह को समाप्त करने के लिए राज्यव्यापी रणनीति विकसित करने, बाल विवाह पर वार्षिक रिपोर्ट तैयार करने, और कानून के प्रभावी कार्यान्वयन की निगरानी के लिए जिम्मेदार हो। रोकथाम और संरक्षण सुनिश्चित करने से एक प्रतिक्रियाशील प्रणाली स्थापित करने, सर्वसम्मति बनाने, और सार्वजनिक निवेश बढ़ाने के प्रति राज्य की जवाबदेही बनती है, जबकि अभियोजन की वजह से जनता पर बोझ बढ़ता है। असम में अभियोजन पर ध्यान केंद्रित कर शॉर्टकट अपनाया गया है।

(घासीराम पांडा गैर-लाभकारी संस्था एक्शन एड इंडिया के एंडिंग चाइल्ड मैरिज प्रोग्राम के प्रोग्राम मैनेजर हैं)



असम के डिब्रूगढ़ में आदित्य अस्पताल में स्त्री रोग और इन-विट्रो फर्टिलाइजेशन विशेषज्ञ, हिरणमयी गोगोई कहती हैं, “उच्च रक्तचाप और एनीमिया भारत में मातृ मृत्यु दर के मुख्य कारण हैं।” राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ सर्वेक्षण-5 के अनुसार भारत में आधे से अधिक गर्भवती महिलाएं एनीमिक हैं।

लोगों में जागरुकता की कमी और स्वास्थ्य सेवा के बुनियादी ढांचे तक उनकी पहुंच न होना समस्या को और बढ़ा देती है। धेमाजी जिले के बाल रोग विशेषज्ञ जयंत बोर गोहेन कहते हैं, “गर्भावस्था के दौरान महिलाओं को नियमित रूप से स्वास्थ्य केंद्र जाना चाहिए। लेकिन, वे अस्पताल तभी जाती हैं, जब परेशानी बढ़ जाती है।” विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार, गर्भवती महिलाओं को सही जांच के लिए प्रसव पूर्व कम से कम 4 बार स्वास्थ्य केंद्र जाना चाहिए। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ सर्वेक्षण-5 के अनुसार, भारत में केवल 58.1 प्रतिशत गर्भवती महिलाएं ही 4 बार स्वास्थ्य केंद्र जाती हैं। वहीं, 74 प्रतिशत गर्भवती महिलाएं एनीमिया की आशंका को कम करने के लिए जरूरी आयरन-फोलिक एसिड दवाओं का कम से कम 180 दिनों तक सेवन नहीं करतीं। असम में कम से कम 180 दिनों तक आयरन-फोलिक एसिड दवाओं का सेवन न करने वाली गर्भवतियों की हिस्सेदारी 82 प्रतिशत है, जो खतरनाक तौर पर बहुत ज्यादा है।

असम के सामने एक और चुनौती भी है। ग्रामीण विकास संगठन एक्शन नॉर्थईस्ट ट्रस्ट के डॉक्टर और सह-संस्थापक सुनील कौल कहते हैं, “राज्य में जनसंख्या घनत्व प्रति वर्ग किमी केवल 398 लोगों का है, जो काफी कम है। नतीजतन, लोगों को स्वास्थ्य केंद्रों तक पहुंचने के लिए लंबी दूरी तय करनी पड़ती है, कठिन इलाकों से होकर गुजरना पड़ता है।”

भारत में स्वास्थ्य केंद्र नागरिकों और सरकारी स्वास्थ्य संस्थानों के बीच की कड़ी होते हैं। हर 3,000-5,000 की आबादी पर एक स्वास्थ्य केंद्र होना चाहिए। केंद्रीय स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय द्वारा जारी “ग्रामीण स्वास्थ्य सांख्यिकी 2021-2022” के अनुसार, असम में प्रत्येक उप केंद्र पर 5,000-7,000 लोगों के इलाज का भार है। हर केंद्र पर आमतौर पर एक महिला और एक पुरुष स्वास्थ्य कार्यकर्ता मौजूद होते हैं।

लगभग ऐसी ही स्थिति प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों की भी है। आमतौर पर 6 उपकेंद्रों के ऊपर एक प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र होता है। उपकेंद्रों से प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र पर ही मरीजों को रेफर किया जाता है। इनमें 4 से 6 बिस्तर होते हैं, जिनका प्रबंधन एक चिकित्सा अधिकारी और कर्मचारी करते हैं। आदर्श स्थिति में एक प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र पर 20,000-30,000 की आबादी के इलाज की व्यवस्थाएं होनी चाहिए, लेकिन असम में प्रत्येक प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र 30,000-40,000 लोगों की जरूरतें पूरा कर रहा है। असम के सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र, जिनमें स्त्री रोग विशेषज्ञ जैसे विशेषज्ञ डॉक्टर होते हैं, वे भी मरीजों के बोझ से दबे हुए हैं। इन सामुदायिक केंद्रों पर 80,000 से 120,000 मरीजों के इलाज की व्यवस्था होती है। लेकिन, इन केंद्रों पर 100,000 से 200,000 मरीजों को स्वास्थ्य सेवाएं मुहैया कराई जा रही हैं।

स्वास्थ्य केंद्रों का खराब बुनियादी ढांचा मामले को और बदतर बना देता है। असम में चल रहे 4,667 उपकेंद्रों में से 37.6 प्रतिशत में बिजली नहीं है। ग्रामीण स्वास्थ्य सांख्यिकी 2021-22 के अनुसार, 920 कार्यरत प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों में से 17 प्रतिशत के पास बिजली नहीं है और 59 प्रतिशत के पास सभी मौसम में वाहन चलाने योग्य सड़कें नहीं हैं।

कौल कहते हैं, “समस्या सिर्फ इंफ्रास्ट्रक्चर तक सीमित नहीं है। बल्कि, आपातकालीन परिस्थितियों से निपटने के लिए प्रशिक्षित कर्मचारियों की भी कमी है।” वह बताते हैं कि अधिकतर ग्रामीण इलाकों में सूरज ढलने के बाद आपातकालीन सेवाएं नहीं मिल पातीं। राज्य में पोस्टपार्टम हेमरेज के कारण प्रसूताओं की जान चली जाना आम बात है। यह एक ऐसी चिकित्सा स्थिति है, जिसमें प्रसव के 24 घंटे के भीतर बहुत ज्यादा ब्लीडिंग जानलेवा साबित होती है।

कौल कहते हैं, “मेरा अनुभव बताता है कि सरकारी अस्पतालों में तैनात अधिकतर डॉक्टर जनरल प्रैक्टिशनर हैं, जो ऐसी परिस्थितियों से निपटने के लिए प्रशिक्षित नहीं हैं।” ये अप्रशिक्षित डॉक्टर पोस्टपार्टम हेमरेज की शिकार मरीजों का इलाज करते वक्त उन्हें ड्रिप लगा देते हैं। यह एक ऐसी कॉमन गलती है, जिसके कारण मरीज का हार्ट फेल हो जाता है। वह कहते हैं, “असम के दूर-दराज के इलाकों में अच्छी आपातकालीन सेवाओं की बहुत जरूरत है।”

डॉक्टरों और महिला अधिकार विशेषज्ञों के साथ बातचीत के आधार पर डाउन टू अर्थ ने मातृ मृत्यु दर के 4 मापदंडों की पहचान की है। ये मापदंड हैं- बाल विवाह, बहुआयामी गरीबी (जिसके तहत स्वास्थ्य, शिक्षा और जीवन स्तर में गरीबी को ध्यान में रखा गया है), प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों में कमी और गर्भवतियों में एनीमिया की व्यापकता। यह विश्लेषण देश के सभी 28 राज्यों के लिए किया गया था। निष्कर्ष बताते हैं कि एमएमआर के मामले में सबसे खराब प्रदर्शन करने वाले राज्य 4 मापदंडों में भी सभी या अधिकतर में अच्छा नहीं कर रहे हैं।

इसके विपरीत सबसे कम एमएमआर स्तर वाले राज्य एक या दो मापदंडों में ही खराब प्रदर्शन कर रहे हैं। उदाहरण के लिए 28 भारतीय राज्यों में बाल विवाह, गरीबी और प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों में कमी के मामले में असम 24वें स्थान पर है। एनीमिया से पीड़ित गर्भवती महिलाओं को ध्यान में रखते हुए इसका सूची में 21वां स्थान है।

मध्य प्रदेश, जो देश में एमएमआर के मामले में दूसरे नंबर पर हैं, बाल विवाह (रैंक 20), गरीबी (25), एनीमिया, और प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र की कमी (18) के मामले में भी खराब प्रदर्शन कर रहे हैं। अगले तीन राज्य उत्तर प्रदेश, छत्तीसगढ़ और ओडिशा में बाल विवाह का प्रचलन भारत के राष्ट्रीय औसत से कम है, लेकिन बाकी तीनों मापदंडों में उनका प्रदर्शन कोई खास नहीं है।

इसके विपरीत, सबसे कम मातृ मृत्यु दर वाले 5 राज्यों का प्रदर्शन अधिकतर पैमानों पर भारत के दूसरे हिस्सों की तुलना में कहीं बेहतर है। सबसे कम मातृ मृत्यु दर वाला केरल सभी 4 मापदंडों में से 3 में टॉप पर है। महाराष्ट्र में बाल विवाह के मामले काफी ज्यादा आते हैं और प्राइमरी स्वास्थ्य केंद्र की भी कमी है, इसके बावजूद यह देश का दूसरा सबसे कम मातृ मृत्यु दर वाला राज्य है। एनीमिया और गरीबी के मामले में महाराष्ट्र की स्थिति देश के अधिकतर राज्यों से बेहतर है। देश में सबसे ज्यादा बाल विवाह पश्चिम बंगाल में होते हैं और मातृ मृत्यु दर के मामले में यह 11वें नंबर पर है। प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों के अभाव और बहुआयामी गरीबी के मामले में पश्चिम बंगाल की हालत बेहद खराब है। इन चार वजहों के अलावा राज्य में मौजूद कुछ विशेष परेशानियों के कारण भी यहां मातृ मृत्यु दर बढ़ रही है।

असम की जनसंख्या विविधता भरी है और यहां खासकर आदिवासी जनजातियों की पहुंच स्वास्थ्य सुविधाओं तक नहीं है। 2011 की जनगणना के मुताबिक, असम की कुल जनसंख्या में 12.45 हिस्सा आदिवासियों का है। मुंबई स्थित इंटरनेशनल इंस्टीट्यूट फॉर पॉपुलेशन स्टडीज में पब्लिक हेल्थ एंड मॉर्टैलिटी स्टडीज की प्रोफेसर नंदिता सैकिया कहती हैं, “असम लंबे समय तक संघर्षों से जूझता रहा है, जिसका इतिहास विद्रोह से भरा हुआ है। इसका लोगों की सेहत पर सीधा असर पड़ा।”

असम के बारपेटा में फखरुद्दीन अली अहमद मेडिकल कॉलेज के प्रसूति एवं स्त्री रोग विभाग के डॉक्टरों द्वारा 2013 में प्रकाशित एक अध्ययन के अनुसार, “मातृ मृत्यु और प्रसूति-संबंधी बीमारियों के दर को कम करने के लिए बुनियादी और विस्तृत आपातकालीन प्रसूति सेवा को लागू करने पर मुख्य जोर दिया जाना चाहिए। सामुदायिक स्तर (मौखिक शव परीक्षण) या संस्थागत स्तर पर ऑडिट के माध्यम से प्रत्येक मातृ मृत्यु का विश्लेषण किया जाना चाहिए। यह मातृ मृत्यु के वास्तविक कारण और स्वास्थ्य सेवा वितरण प्रणाली में कमियों की पहचान करने में मदद करेगा, जो गर्भावस्था से संबंधित मौतों को कम करने के लिए निवारक उपायों को तैयार करने में योगदान दे सकता है।”



बाल विवाह की कई वजह

एमएमआर को प्रभावित करने वाले कारक बाल विवाह को भी प्रभावित करते हैं। सदियों पुरानी प्रथा सामाजिक रीति-रिवाजों, गरीबी और अशिक्षा से करीबी तौर पर जुड़ी हुई है। असम के सोनितपुर और मोरीगांव जिलों में काम करने वाली महिला और बाल कार्यकर्ता हेमा दास कहती हैं, “हम अभी भी एक पितृसत्तात्मक समाज में रह रहे हैं जहां लड़कियों को परिवार पर बोझ समझा जाता है। गरीब परिवारों के लिए प्राथमिकता लड़कियों की शादी करवाना है।”

असम के लखीमपुर जिले के धुनागुरी-बहगढ़ा पंचायत के अध्यक्ष जिबकांत कुटुम कहते हैं कि आदिवासी समुदायों में बाल विवाह सामाजिक रूप से स्वीकृत है और यह प्राचीन काल से चलन में है। राज्य के चाय बागानों में आदिवासी समुदायों के साथ काम करने वाली एक गैर-लाभकारी संस्था आदिवासी साहित्य सभा के अध्यक्ष विल्फ्रेड टोपनो कहते हैं, “कई आदिवासी क्षेत्रों में स्कूल नहीं हैं। बच्चों को निःशुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा का अधिकार अधिनियम, 2009 के तहत कक्षा 8 तक बच्चों को उनकी मातृभाषा में पढ़ाया जाना चाहिए, जो नहीं हो रहा है।

इसके परिणामस्वरूप ड्रॉपआउट की दर ज्यादा है और शादी काम उम्र में ही हो जाया करती है।” उन्होंने आगे कहा कि संवेदनशीलता और जागरुकता से ही समस्या का समाधान किया जा सकता है। 2020 में गैर-लाभकारी संस्था चाइल्ड राइट्स एंड यू द्वारा जारी “स्टेटस एंड डिकैडल ट्रेंड्स ऑफ चाइल्ड मैरिज इन इंडिया” रिपोर्ट के अनुसार, 2001-2011 के दशक में लड़कियां, खासकर वो जो अपनी प्रारंभिक किशोरावस्था में थीं, बाल विवाह के चपेट में आ गईं। बाल विवाह को एक जटिल सामाजिक-सांस्कृतिक घटना मानते हुए इस अध्ययन में कहा गया है कि भारत में कम उम्र में होने वाली कुल शादियों में लगभग आधी लड़कियां 15 और 19 वर्ष की आयु के बीच होती हैं और ग्रामीण क्षेत्रों में रहती हैं। इसके अनुसार शहरी क्षेत्रों में यह प्रथा बढ़ रही है।

डाउन टू अर्थ ने राजस्थान के चार जिलों- बाड़मेर, जैसलमेर, टोंक और भीलवाड़ा का दौरा किया। ये जिले देश के सबसे गरीब क्षेत्रों में से हैं। अपने दौरों में डाउन टू अर्थ ने पाया कि यहां बाल विवाह बड़े पैमाने पर हो रहे हैं। बाड़मेर शहर के बाहरी इलाके के एक गांव में एक परिवार ने गरीबी के चलते अक्टूबर 2022 में अपनी 10 और 12 साल की बेटियों की शादी एक साथ कर दी।

उनकी मां ने बताया कि बच्चों की दादी के गुजर जाने के बाद उनके रिश्तेदार परिवार से मिलने आए थे। उन्होंने कहा, “हमने सोचा कि इस अवसर पर लड़कियों की शादी करने से हमारे पैसे बचेंगे।” जयपुर में बाल अधिकार विभाग आयुक्तालय की आयुक्त और प्रमुख सचिव अनुप्रेर्णा कुंतल का कहना है कि हाल के वर्षों में कृषि में हुए नुकसान से भी राज्य में बाल विवाह को बढ़ावा मिला है। कुंतल बताती हैं, “कुछ समुदायों में चरी नाम की एक पुरानी परंपरा है, जहां शादी के दौरान लड़की के पिता को पैसा मिलता है, जिसका इस्तेमाल वे अपना कर्ज चुकाने के लिए करते हैं।”

कोविड-19 महामारी ने इस समस्या को और बढ़ाया है। संयुक्त राष्ट्र बाल कोष (यूनिसेफ) के अनुसार, दुनिया भर में एक करोड़ किशोरियों पर अगले दशक में दुल्हन बनने का खतरा है, क्योंकि महामारी ने गरीबी पैदा कर दी है और बच्चों को स्कूल छोड़ने पर मजबूर कर दिया है। राजस्थान में बच्चों और महिलाओं के अधिकारों पर काम करने वाली कार्यकर्ता कृति भारती कहती हैं कि ये कारण भारत में भी मौजूद हैं और जबरन बाल विवाह को बढ़ावा दे रहे हैं। वह कहती हैं, “मेरे पास इसे साबित करने के लिए कोई आधिकारिक या दस्तावेजों में दर्ज आंकड़ा नहीं है। मैं जो जमीनी तौर पर देख रही हूं, उसके आधार पर यह दावा कर रही हूं।” कई गरीब परिवार अपनी बेटियों की सुरक्षा और सुरक्षा को लेकर चिंतित थे। नतीजतन, उन्होंने बड़ी संख्या में 14 और उससे अधिक उम्र के किशोर लड़के-लड़कियों की शादी कर दी।

17 फरवरी को असम के मुख्यमंत्री ने एक माइक्रो-ब्लॉगिंग साइट पर लिखा, “असम के विभिन्न हिस्सों से रिपोर्ट आ रही हैं कि कई परिवारों ने इस तरह की अवैध प्रथाओं के खिलाफ हमारे अभियान के बाद कम उम्र के बच्चों के बीच पूर्व-निर्धारित विवाह को रद्द कर दिया है। यह निश्चित रूप से बाल विवाह के खिलाफ हमारी दो सप्ताह की लंबी कार्रवाई का सकारात्मक प्रभाव है।”

डाउन टू अर्थ धेमाजी जिले के एक गांव में अपने बच्चों को लेकर घर लौट रहीं मांओं के एक समूह से यात्रा के दौरान मिला। मिशिंग समुदाय के लोगों से भरा ये गांव हर साल बाढ़ से जूझता है, जिसकी वजह से यहां जीवन काफी कठिन है। फिर भी लोग संपन्न हो रहे हैं। महिलाएं स्वीकार करती हैं कि इस समुदाय में बाल विवाह होता है, लेकिन वे जल्दी से यह भी जोड़ देती हैं कि बदलाव शुरू हो चुका है। गांव के कई लड़के और लड़कियां अब निजी कॉलेजों में पढ़ते हैं और अपने समुदाय को सकारात्मक रूप से प्रभावित कर रहे हैं। इन्हीं में से एक महिला कहती हैं, “हमें अवसरों तक बेहतर पहुंच की आवश्यकता है। इसके बजाय, सरकार पुलिस के जरिए छापे मरवा रही है।”

(इनपुट: असम के धेमाजी से मनोज गोगोई )

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