बराबर नहीं हर एक लिए व्यथा की अभिव्यक्ति

हर किसी के लिए कोरोना की आप बीती अलग रही है, इसलिए हर कोई अपने- अपने नजरिये से देखने और समझने का प्रयास कर रहा है

By Swasti Pachauri
Published: Tuesday 01 June 2021
फोटो: विकास चौधरी


बीते दिनों में सोशल मीडिया पर कई लोगों ने कोरोना काल के अपने-अपने दुःखों को बयान किया। कोई किसी से अचानक ही बिछड़ गया, तो किसी के परिजन ने उन्हें वीडियो कालिंग के जरिए अलविदा कहा। डायस्पोरा, जिनमें छात्र, छात्राएं, एवं तमाम अन्य लोग जो विदेश में बसे हैं, भारत में रहने वाले अपने परिजनों के लिए अपनी चिंता व्यक्त करते नजर आये। समय तो वाकई विकट ही था, क्योंकि हमने "भूमंडलीकरण या ग्लोबलाइजेशन" के चाहे जितने गुणगान किए हों, सच तो यही है कि कोई भी कहीं आने- जाने के काबिल नहीं बचा।

भैया के एक दोस्त कैलिफोर्निया, अमेरिका से अपनी जीवन-संगिनी एवं बच्चों को वहीं छोड़कर, भारत अपने बूढ़े माता-पिता की देखभाल करने आये। उन्हें स्वयं कोरोना हो गया। और प्लाज्मा ढूंढ़ते- ढूंढ़ते वे भी अलविदा कह चल बसे।

पिछले दिनों जहां कहीं भी देखा, वहां किसी न किसी के बिछड़ जाने की खबरें आती रहीं। ट्विटर, फेसबुक, अथवा अन्य सोशल मीडिया माध्यम इस दौरान सभी को सहारा देते दिखाई दिए। "राइट टू ग्रीव" के कई रूप हमने देखे। कोई किसी गाने से अपनी व्यथा बयान करता दिखाई  पड़ा। कोई आखिरी बार अपने जन्मदिन की फोटो डाल अपने परिजनों को याद करता नजर आया। कोई किसी के पसंदीदा फूल की फोटो से अपने मन के सन्नाटे को शांत करता रहा।

तो कोई गाना गाकर या अपने बिछड़े हुए किसी परिजन या मित्र के पसंदीदा खाने-पीने या किसी भी अन्य चीज की तस्वीर लगाकर उन्हें अपना आखिरी नमन व्यक्त करता रहा। फिर अपने-अपने मानसिक तनाव को लोगों ने अपने ढंग से सोशल मीडिया पर अभिव्यक्त किया। कोई और चारा भी नहीं बचा था। हर कोई अपने अकेलेपन और प्रलयंकारी समय में संवाद के माध्यम ढूंढ़ रहा था।

हर किसी के लिए कोरोना की आप बीती अलग रही है  और इसलिए हर कोई इसे अपने- अपने नजरिये से देख, समझ, एवं व्यक्त करने का प्रयास कर रहा है।

इन संवेदनशील पोस्ट पर ढेरों "लाइक्स", "रीट्वीट", और "रिएक्शंस" आते रहे। लोग शेयर करते रहे। ऐसा होना स्वाभाविक भी है। आखिर त्रासदी ही ऐसी है, जहां एक- दूसरे का साथ नीरस हो चला है और ऐसे में "वर्चुअल" साथ मिल जाना भी अपने आप में एक "लग्जरी " है। कोरोना से पहले भी समाज एक बंद दरवाजे के भीतर सीमित हो चुका था। यानी एक प्रकार की "गेटेड कम्युनिटी " बन चुका था। बस कोरोना के बाद इस "गेटेड कम्युनिटी" का दायरा हमारे घर के पायदान तक आ पहुंचा।

सोशल मीडिया पर व्यक्त होने वाली इन सब व्याकुलताओं के बीच एक ख्याल मन में आता रहा। तमाम चौकीदार जो अस्पतालों की देख-रेख करते रहे, जिनके सामने कई मरीजों ने दम तोड़ दिया होगा, दरवाजे की दहलीज पर ही, वे सारे सफाई कर्मचारी जो अस्पतालों का एक अहम् हिस्सा हैं, जिनके बिना कोरोना की लड़ाई मुमकिन नहीं, वे सभी ऑटोवाले जिन्होंने नि:स्वार्थ ही अपने-अपने वाहनों की सेवायें मुफ्त ही उपलब्ध करायीं, स्थानीय पत्रकार जो हर जिले-गांव से रिपोर्टिंग करते रहे, एम्बुलेंस ड्राइवर जो शायद मृतकों एवं मरीजों की गिनती भूल गए और खास तौर से श्मशान घाट पर काम करते सभी लोग-- इन सबकी व्यथा की अभिव्यक्तियों का क्या होता होगा ?

एक न्यूज चैनल पर बड़े-बड़े मनोवैज्ञानिकों के साथ एक न्यूज एंकर चर्चा कर रहे थे कि अपना मानसिक तनाव कम करने के लिए सब को क्या करना चाहिए। किसी ने राय दी मैडिटेशन कर लो। तो किसी ने अपनी "अक्सेन्टेड" अंग्रेजी  में फरमाया कि अपनी पसंदीदा किताब पढ़ लो।  किसी ने कहा टी वी, मोबाइल सब बंद कर दो और बस मन में शान्ति बनाये रखो।

यह तो हम सभी को याद है कि कैसे पिछले साल तमाम तरह के लॉकडाउन में अपने को व्यस्त रखने के तरीके हमें सिखलाये जा रहे थे। टीवी पर एक एंकर अपने प्रोग्राम पर किसी गायक को ले आते। तो दूसरी तरफ इंस्टाग्राम पर  "डालगोना कॉफी" और "साड़ी चैलेंज" होता नजर आता। कई लोग "सेल्फी चैलेंज" करते तो कई "फिटनेस चैलेंज" की फोटो डालते नजर आते।

यह सभी संवाद अंग्रेजी में और सभी चैलेंज एक खास तरह की जनता के लिए थे।

हल भी सारे ऐसे ही होते जो वही कर सकता जिसके लिए "वर्क फ्रॉम होम" जायज और मुनासिब था। आखिर "वर्क फ्रॉम होम" अधिकाँश जनता के लिए होता ही क्या है? ९० प्रतिशत लोग जो इनफॉर्मल सेक्टर का हिस्सा हैं, उन्हें कैसे समझाया जाए ? फिर टेक्नोलॉजी, मोबाइल फोन पर मिलने वाले समाधान एवं यूट्यूब पर "मैडिटेशन" वही कर सकते हैं, जिन्हें इनकी जानकारी हो, जो इनका "एक्सेस" अथवा इन तक पहुंच सकें, और इन्हें समझ सकें।

लेकिन तमाम ऐसे लोग जिनके पास यह सोचने का भी समय नहीं है कि मैडिटेशन करें तो कब, या फिर चंद क्षण प्रकृति के बीच बिता सकें तो कब, जो नहीं जानते की डालगोना कॉफी या "जूम पर संगीत कार्यक्रम" क्या हैं - वो क्या करें, कहां जाएं? उनकी व्यथा का तो कोई हिसाब भी नहीं लगा सकता क्योंकि उन्होंने महामारी बहुत करीब से देखी है। किसी अनजान व्यक्ति के खोने का आशय क्या होता है, या इस तरह के अन्धकार और हताशा में अकेलापन किसको कहते हैं, उन्होंने बखूबी समझा है।

उन्हें तो सुकून भी आसानी से नहीं मिल सकता। आखिर गरीब आदमी सुकून तलाशे या रोजी- रोटी ढूंढें?

इतने लम्हे उनके पास नहीं होते, जहां वे आराम से बैठ, पूरे दिन भर बीती हुई घटनाओं पर इत्मीनान से विचार- विमर्श भी कर सकें। क्योंकि अगर सोच में पड़ गए तो उन्ही सोच -विचारों में गोते लगाते रह जाएंगे और अगले दिन काम पर नहीं जा पाएंगे।

इन सभी लोगों ने मौत को बहुत निकटता से देखा है। परन्तु हमारे इन सभी भाई -बहनों के पास अपनी व्यथा को प्रकट, अभिव्यक्त, एवं महसूस करने के साधन ज्यादा नहीं हैं। वे सब ट्वीट नहीं कर सकते । यदि करेंगे तो उनको शायद ही कोई पढ़ेगा। आखिर एक "ब्लू टिक" इकॉनामी भी तो चलती रहनी चाहिए।

यहां कई दरवाजों को लांघना पड़ता है, और फिर भी यह आवश्यक नहीं कि आपकी वो अनजान दरवाजे पर दस्तक किसी के कानों तक पंहुच ही जाए? ऐसे में "टेली काउंसलिंग" और "मेन्टल हेल्थ" की हेल्पलाइन्स के मायने इन सभी लोगों के लिए शून्य के बराबर हैं।  

फिर दृष्टि विहीन लोग, एवं जो सुन या बोल नहीं सकते, उनका क्या हो? सोशल मीडिया पर अनेकों रंगों के मायने उनके लिए क्या हैं? कोरोना के अकेलेपन में संगीत के आशय उनके लिए क्या हैं? कहां जाएं वे सब अपनी व्यथा को लेकर ? कौन सुनेगा, समझेगा? इन सवालों के जवाब तक देने वाला कोई नहीं।

कोरोना का मानसिक प्रहार हर एक पर अलग तरह से हुआ है। एक ऐसा समाज जो समावेशी विकास में यकीन रखता हो, ऐसे में  "डिजिटल इंडिया" के औजार सिर्फ उनके ही पास नहीं होने चाहिए, जो इंटरनेट की सीढ़ी का इस्तेमाल कर उन माध्यमों तक पहुंच सकते हैं।

तमाम श्मशान घाट पर काम करते लोग, एवं अन्य ऐसे लोग जिन्होंने सामने रह कर इस आपदा में सभी का साथ दिया है, उनके लिए सरकारों को विशेष सहायता प्रदान करनी चाहिए जो उनके मानसिक तनाव को कम करने में सहायक बन सके। सिर्फ एक "काउंसलिंग टेलीफोन नंबर" डालने से या इश्तहार निकालने से कुछ नहीं होता। गांव-गांव, शहर-शहर, गरीब तबके तक सन्देश पहुंचाना भी आवश्यक है। उन्हें उनकी भाषा में समझना एवं समझाना अनिवार्य है।

मेन्टल हेल्थ काउन्सलिंग के जितने प्रोग्राम हैं उनके बारे में लोगों को सचेत करना, उन तक इन माध्यमों को पहुंचाना एवं अन्य प्रकार के ऐसे कार्यक्रम जिनसे मानसिक तौर पर सबको थोड़ा इत्मीनान मिल सके इस पर एक अलग नीति होनी चाहिए। इन पर संवाद होना चाहिए। इससे लोगों का खोया विश्वास भी जागेगा और मानसिक तौर पर गरीब और लाचार को मदद मिलेगी।

वे अपनी आप बीती की इन घड़ियों में अपने आप को अनाथ नहीं समझेंगे और अपने आप को, अपनी गाथा को, प्रकट करने का बराबर का हक़दार मानेंगे।

इससे समाज में समानता भी पनपेगी, जो इंटरनेट के चक्कर में हमारी आंखों से ओझल रहती है। वह इसलिए क्योंकि हमारे लिए व्यथा के आशय एवं उसके मायने बस उतने ही हैं, जितने हमें अपने आस-पास या सोशल मीडिया के माध्यम से दिखाई देते हैं।

क्योंकि ब्रॉडबैंड और 4G के उस पार, जमीन पर उमड़ती व्यथा ट्वीट के माध्यम से "चीख" नहीं सकती। कीबोर्ड के जरिये से रो नहीं सकती। लाइक नहीं बटोर सकती। हमें कुछ भी नहीं कह सकती क्योंकि वहां व्यथा शांत रहने की आदी हो चुकी है, रोज-मर्रा के सन्नाटे और रोजी-रोटी की मजबूरियों के बीच कहीं दबी बैठी है।

Subscribe to Weekly Newsletter :