कुंभ के बीच बेचैन करते सवाल

अब समय आ चुका है कि धरती की सबसे महान नदियों में से एक के तट पर कुंभ के आयोजन के बदले चुकाई जा रही पर्यावरणीय कीमतों के बारे में पड़ताल की जाए और उसकी भरपाई के लिए कदम उठाए जाएं। 

By Avikal Somvanshi
Published: Wednesday 16 January 2019
Credit: Avikal Somvanshi

करीब 6 साल पहले इलाहाबाद में महाकुंभ शुरुआत से एक दिन पहले मैंने एक लेख में अपने अनुभवों को साझा किया था। तबसे आजतक परिस्थितियों में कुछ खास बदलाव नहीं आया है (सिवाय इलाहाबाद के नाम के)। बल्कि, इस बार उत्साह की तुलना में डर थोड़ा ज्यादा ही है।

मेरा बचपन ऐसे आयोजनों के दौरान हिंदू धर्म के पवित्र शहर में तब्दील हो जाने वाले इलाहाबाद में ही बीता है। मेरे माता-पिता आज भी वहां रहते हैं। कल मेरी मां ने मुझे बताया कि यह अभी तक का सबसे बढ़िया कुंभ है। आयोजन स्थल बहुत साफ-सुथरा है। नदियों का पानी इतना साफ है कि उसमें तैरती मछलियां भी आसानी से दिखाई दे रही हैं। आयोजन स्थल के कोने-कोने में वाईफाई की सुविधा मिल रही है। मैंने उन्हें समझाने की कोशिश की कि मेरी दिक्कत उत्सव के दो महीनों के दौरान इस तरह की सुविधाएं मुहैया कराने को लेकर नहीं है, बल्कि मैं पर्यावरण से जुड़े मुद्दों के कुप्रबंधन और उसके परिणामों से चिंतित हूं। लेकिन, मैं उन्हें समझाने में नाकाम रहा।

2013 के आयोजन की हकीकत

उस साल आयोजन के बाद इंटरनेट पर वायरल हुईं त्रिवेणी संगम की भयावह तस्वीरें देख दुनिया भर के लोग सकते में आ गए और राज्य सरकार पर सफाई अभियान शुरू करने के लिए दबाव डाला गया। 2015 के नासिक कुंभ के बाद सफाई सुनिश्चित करने के लिए हाईकोर्ट को दखल देना पड़ा था। 

आयोजन के दौरान चीजें सबकुछ एकदम सही होने के दावों से कितनी दूर थीं, इसका सीएजी की ऑडिट रिपोर्ट पढ़कर हो जाता है, “ऑडिट में पाया गया कि कुंभ मेला के दौरान पर्यावरण की रक्षा और प्रदूषण नियंत्रण को लेकर कोई प्रभावी योजना नहीं तैयार की गई थी।

आयोजन के दौरान निकले 25,000 टन ठोस कचरे का कोई प्रबंधन नहीं किया गया और यह नदियों और शहर के नालों में बहा दिया गया, जिससे उनका बहाव रुक गया।

2013 में 33,903 अस्थायी शौचालयों का निर्माण किया गया था, जिन्हें मल संग्रहण के लिए बनाए गए अस्थायी गड्ढों से जोड़ा गया था। सीएजी ने पाया कि इन गड्ढों में भरे मल को भूगर्भ जल के संपर्क में आने से रोकने की कोई व्यवस्था नहीं की गई थी, ताकि इससे शहर की घरेलू जल आपूर्ति को दूषित होने से बचाया जा सके (वहां की दो तिहाई से अधिक आबादी अपनी रोजमर्रा की जरूरतों को पूरा करने के लिए शहर के भूगर्भ जल पर ही निर्भर है)। साथ ही यह भी पाया गया कि उत्सव के दौरान नदियों के पानी की गुणवत्ता नहाने के लायक नहीं थी। सुरक्षित स्नान के लिए पानी में बायोकेमिकल ऑक्सीजन डिमांड (बोओडी) की अधिकतम मात्रा 3.0 मिलीग्राम प्रति लीटर होनी चाहिए, लेकिन आयोजन के दौरान विभिन्न स्नान घाटों पर इसकी मात्रा 3.4 से 8.5 मिलीग्राम प्रति लीटर पाई गई। इसी तरह से बैक्टीरियल कोलीफॉर्म की रेंज 3,300 से लेकर 39,000 एमपीएन/100  मिलीलीटर दर्ज की गई, जबकि मानकों के अनुसार नहाने के पानी में इसकी अधिकतम स्वीकृत सीमा 500 एमएनपी/100 मिलीलीटर है।

वायु प्रदूषण के मामले में इलाहाबाद का नाम अक्सर देश के सबसे प्रदूषित शहरों में बना रहता है, लेकिन सीएजी ने पाया कि आयोजन के दौरान वायु प्रदूषण को नियंत्रित करने के लिए कोई उपाय नहीं उठाए गए। बल्कि, हवा की गुणवत्ता को मापने के लिए तय किए गए तीनों स्थानों में से एक भी मेला परिसर में नहीं था। सीएजी ने यह भी पाया कि मुख्य स्नान वाले दिनों में वायु की गुणवत्ता ही नहीं जांची गई और बाकी दिनों में वायु प्रदूषण मानक से चार गुना तक अधिक रहा। इस सबके बावजूद शहर में आज तक कोई ऐसी व्यवस्था नहीं की गई है, जिससे हवा की गुणवत्ता को वास्तविक समय में परखा जा सके, उसका पल-पल का हाल जाना जा सके। 

2019 के स्वच्छ कुंभ का हाल

इस बार का कुंभ, तीर्थयात्रियों के धार्मिक महत्व और यूनेस्को द्वारा इसको सांस्कृतिक धरोहर के तौर पर दी गई मान्यता से कहीं ज्यादा, केंद्र व राज्य की वर्तमान भाजपा सरकारों का राजनीतिक मंच बन गया है। वास्तविक कुंभ का आयोजन 2025 में होना है और अभी चल रहे कुंभ का महत्व 12 वर्ष के चक्र के मध्य में पड़ने भर तक ही है। 

राजनीतिक मंच के तौर पर ही आयोजन का जोर-शोर से प्रचार किया जा रहा है, ताकि ज्यादा से ज्यादा लोगों को यहां आने के लिए आकर्षित किया जा सके। यही नहीं, यह सरकार के सबसे प्रमुख अभियानों में से एक स्वच्छ भारत की प्रदर्शनी भी बना हुआ है। ओडीएफ यानी खुले में शौचमुक्त कुंभ का शोर है। सैकड़ों हजार शौचालय बनाए जा चुके हैं। कथित तौर पर यह मल प्रबंधन के लिए आधुनिक तकनीकों से लैस हैं। ठोस कचरे को जमा करने के लिए 20,000 कूड़ेदान भी पहुंचाए जा रहे हैं। मेला परिसर से कूड़ा बाहर पहुंचाने के लिए छोटे ट्रक व अन्य वाहन भी वहां तैनात होंगे। लेकिन, इस बात की कोई जानकारी सार्वजनिक नहीं की गई है कि इतनी भारी मात्रा में निकलने वाला यह कूड़ा आखिर कहां और कैसे निस्तारित किया जाएगा।

लोगों को उनकी रोजमर्रा की जिंदगी में साफ-सफाई की आदतों को शामिल करने, उनके आसपास सफाई बनाए रखने की कोशिशों से जोड़ने के लिए 15 अक्टूबर 2018 से स्वच्छ कुंभ चैंप कैंपेन चलाया जा रहा है। आधिकारिक तौर पर यह अभियान 4 मार्च 2019 को खत्म होगा। लेकिन, 2013 की तरह ही इस बार भी साधुओं और शौकिया फोटोग्राफरों के आयोजन स्थल से चले जाने के बाद वहां की सफाई करने की कोई योजना नहीं दिखाई दे रही है।

पारिस्थितिकीय तंत्र चुका रहा कीमत

लाखों की आबादी वाले शहर के लिए पर्यावरणीय प्रभावों का सटीक आकलन और आयोजन स्थल पर प्रबंधन योजना का होना जरूरी है। जब यह शहर संवेदनशील पारिस्थितिकी तंत्र वाले इलाके, जैसे कि नदी किनारे और उसके बहाव वाले इलाके में बस रहा हो, तब इस तरफ ध्यान देना और जरूरी हो जाता है। मुझे इस बार भी ऐसी कोई योजना नहीं दिखाई दे रही है।

50 हेक्टेयर से बड़े किसी भी क्षेत्र में बसने वाली बस्ती के लिए पहले पर्यावरणीय मंजूरी लेनी कानूनी तौर पर जरूरी है। कुंभ में बसने वाला तंबुओं का यह शहर इससे कई गुना बड़ा होता है।

उदाहरण के तौर पर 2016 में दिल्ली के यमुना के किनारे हुए तीन दिवसीय आर्ट ऑफ लिविंग के आयोजन पर गौर करें। इस आयोजन के बाद जल संसाधन, नदी विकास एवं गंगा संरक्षण मंत्रालय द्वारा गठित विशेषज्ञों की एक समिति ने अपनी रिपोर्ट में बताया कि महज तीन दिन के भीतर ही आयोजन से वहां हुए नुकसान की भरपाई में करीब एक दशक का समय लग जाएगा। त्रिवेणी के तट और यमुना के तट में अंतर नहीं है। बस अंतर है तो ऐसे कार्यक्रमों का विरोध करने वाली आवाजों को जो दिल्ली में बहुत है।

अब समय आ चुका है कि धरती की सबसे महान नदियों में से एक के तट पर कुंभ के आयोजन के बदले चुकाई जा रही पर्यावरणीय कीमतों के बारे में पड़ताल की जाए और उसकी भरपाई के लिए कदम उठाए जाएं। आज की तकनीक और राजनीतिक इच्छाशक्ति इतनी सक्षम है कि वह गंगा और यमुना की असली हकीकत को आम लोगों से छुपा ले जाएं और कृत्रिम तरीकों से पानी प्रवाहित करके उन्हें नदियों जैसा ही दिखा सकें। 

आज मुझे एक सवाल बार-बार परेशान कर रहा है कि क्या गर्मियों के दौरान मेरी मां मुझे संदेश भेजकर बता सकेंगी कि उन्हें उस समय भी पवित्र नदियों में तैरती मछलियां दिखाई दे रही हैं।  

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