निजीकरण का दंश झेलने को मजबूर मछुआरे, कर रहे हैं पलायन

बरगी जलाशय में मछली का उत्पादन पिछले सात सालों से लगातार कम होने से मछुआरों की लगभग 2500 परिवारों के सामने आजीविका का संकट खड़ा हो गया है

By Anil Ashwani Sharma
Published: Thursday 16 December 2021

मध्य प्रदेश के बरगी बांध यानी जलाशय में 1994-95 में 432 टन मछली का उत्पादन हुआ था, लेकिन यह उत्पादन 2020-21 में घटकर मात्र 28 टन रह गया है। इसका नतीजा यह हो रहा है कि यहां के स्थानीय मछुआरे बड़ी संख्या में पलायन कर आजीविका के लिए दूसरी जगहों पर जाने के लिए मजबूर हो रहे हैं।

इस जलाशय पर मछली मार कर अपनी आजीविका चलाने वाले लगभग 2,500 मछुआरों का परिवार निर्भर रहते हैं। इस संबंध में बरगी बांध विस्थापित मत्स्य उत्पादन एवं विपणन सहकारी संघ के अध्यक्ष मुन्ना बर्मन ने कहा कि यदि इन पलायन करने वाले मछुआरों के आंकड़ों को देखें तो यहां की प्रति समिति से 10  से 15  की संख्या में स्थानीय मछुआरे पलायन कर रहे हैं।

ध्यान रहे कि बरगी बांध में मछुआरों की कुल 54 सहकारी समितियां हैं और प्रति समिति में सदस्यों की संख्या 50 से 55 है। यानी उत्पादन इतना अधिक गिर गया है कि प्रति समिति 10 से 15 मछुआरे पलायन कर रहे हैं। और यह पलायन लगातार बढ़ ही रहा है।

इस संबंध में संघ के सदस्य राजु कुमार सिन्हा ने कहा कि यहां ध्यान देने वाली बात है कि जब तक मत्सय पालन का अधिकार संघ के पास था तब तक लगातार उत्पादन बढ़ा लेकिन जैसे ही राज्य सरकार ने इसे ठेका प्रबंधन को दिया तब से लेकर अब तक उत्पादन गिरता ही गया है।

वह बताते हैं कि इसके कई कारणों में से एक है कि 1994-95 से लेकर 1998-99 तक मत्स्य पालन का काम पूरी तरह से मछुआरों की समिति करती आई थी लेकिन इसके बाद यानी 2000-2001 से लेकर 2020-21 तक यह काम सरकार ने निजी हाथों के हवाले कर दिया।

जहां तक यदि आंकड़ों को देखें तो पता चलता है कि जब तक संघ ने मछली पालन काम किया तब तक मछली के उत्पादन में कभी कमी दर्ज नहीं की गई लेकिन जैसे ही यह काम निजी हांथों में गया उत्पादन में कमी आने लगी। इसके पीछे भी एक बड़ा कारण है कि निजी हाथों में जाने के बाद बरगी जलाशय में प्रति वर्ष 15 जून से 15 अगस्त तक मछली के बीज डाले जाते हैं और यह उनके प्रजनन का समय होता है।

ऐसे समय में मछली मारने पर प्रतिबंध लगा होता है। जब तक मछुआरों के हाथों में मछली मारने का प्रबंधन था, तब तक वे इस समय में किसी हालत में मछली मारने का काम नहीं करते थे, लेकिन जैसे यह निजी हाथों में गया तो यह देखा गया कि मछली के प्रजनन के समय ही मछली मारने का काम शुरू कर देते थे।

ऐसे में जलाशय में मछली पनप ही नहीं पाती थी और साल के खत्म होने के काफी महीने पहले ही मछली न केवल खत्म् हो जाती हैं बल्कि उसका नियमित रूप से उत्पादन भी कम हो जाता है। यही नहीं स्थानीय मछुआरों का कहना कि जब जून से लेकर अगस्त तक मछली के प्रजनन का समय होता है, ठेकेदारों द्वारा जलाशय में रात में ही गैर कानूनी तरीके से मछली मारने का काम किया जाता है।

इसके कारण भी जलाशय में मछली का उत्पादन कम होता जा रहा है। चूंकि जब आप प्रजनन के समय ही मछली का शिकार कर लेंगे तो उनकी संख्या में इजाफा कैसे होगा।

संघ ने गत दिनों राज्य सरकार से इस संबंध में एक पत्र लिख कर इस पर अध्ययन कराने की मांग की है ताकि आगामी सीजन में मछली का उत्पादन बढ़ सके और यहां के मछुआरों को अपनी आजीविका चलाने के लिए यहां से पलायन न करने पड़ा।

ध्यान कि मछुआरों की मंडला-बरगी जलाशय में 54 प्राथमिक मछुआरा सहकारी समिति के लगभग 2,500 मछुआरा सदस्य हैं। जिसमें मंडला जिले की 27 प्राथमिक मछुआरा सहकारी समितियों की सदस्य संख्या लगभग 1,600 है। 

16 हजार 400 हेक्टेयर के बरगी जलाशय में 54 प्राथमिक मछुआरा सहकारी समितियों का फडरेशन बरगी मत्सय उत्पादन एवं विपणन सहकारी संघ द्वारा 1994-95 में 432 टन, 1995-96 में 530 टन,1996-97 में 460 टन,1997-98 में 426 टन और 1998-99 में 492 टन मत्स्य उत्पादन किया जाता था।

जबकि ठेकेदारी व्यवस्था लागू होने के बाद 2000- 01 में  278 टन, 2001-02 में 201 टन और इसके बाद  2017- 18 में 55 टन, 2018-19 में 213 टन, 2019-20 में 95 टन और 2020-21 में 28 टन मात्र मत्स्य उत्पादन हुआ है।

बरगी जलाशय में ऐसा नहीं था कि मछली नहीं थी। यहां पर जब यह बांध नहीं बना था तो यहीं मछुआरे बड़ी मात्रा में मछली मारने का काम करते थे।

यहां तक कि जब 1992 में यह बांध बन गया और इसका मछली मारने का प्रबंधन भी मछुआरों के हाथों में था तब तक मछली की कमी नहीं थी, लेकिन आज के हालात पर मुन्ना बर्मन बताते हैं कि अब इस जालशय में बीस से पच्चीस नावों लेकर मछुआरे जाते हैं और रात-दिन मछली का जाल बिछाने के बाद उनके हिस्से में मछली आती है दस से बारह किलो।

वह कहते हैं कि यह तो एक सामुहिक रूप से गए मुछआरों की कमाई है और यदि कोई अकेले गया तो रात भर जाल बिछाने के बाद सुबह उसके हिस्से में किलो डेड़ किलो की मछली आती है। ऐसे में कैसे वे अपना और अपने परिवार का पेट पालें।

ध्यान रहे कि पारंपरिक रूप से बरगी के आसपास लगभग 13 गांव के लोगों का मछली पालन ही मुख्य व्ययसाय रहा है। लेकिन 1992 में बांध के निर्माण के बाद इस जलाशय में मछली मारने का अधिकार मछुआरों से लेकर यहां पर सहकारी समितियों को सौंप दिया गया। हालांकि राज्य सरकार ने इन समितियों में बांध से विस्थापित मछुआरों को प्राथमिकता दी गई।

इस बांध से मध्य प्रदेश के इस जलाशय के आसपास के तीन जिलों के लगभग एक लाख से अधिक लोग विस्थापित हुए थे। विस्थापित गांवों की संख्या 54 थी और इतनी ही सहकारी समितियां का गठन किया गया और इसमें लगभग 3,000 सदस्य बनाए गए। और मछली मारने का काम यहां अधिकारिक रूप से अक्टूबर, 1994 में शुरू हुआ, जिसे मछुआरों की समितियां अगले सात सालों तक किया।

यहां ध्यान देने की बात है कि इसके बाद 2001 तक मछली का उत्पादन 430 से 530 टन के बीच होता रहा। और संघ ने इस दौरान मछली का रेट 14.50 रुपए प्रतिकिलो तक बढ़ा जबकि शुरू हुआ था छह रुपए प्रतिकिलो। लेकिन इसके बाद इस जलाशय में निजी हांथों में चला गया। और इसके बाद से लगातार उत्पादन गिरता गया।

उत्पादन गिरने का एक और कारण गिनाते हुए सिन्हा बताते हैं कि जब यह काम निजी हाथों द्वारा किया जाने लगा तो वे जलाशय में मछली का बीज नियमित रूप से नहीं डालते हैं। यही कारण है कि उत्पादन में लगातार गिरावट दर्ज की गई है और इसका खामियाजा मुछआरों को उठाना पड़ रहा है।

वे बताते हैं कि प्राइवेट प्लेयर इस संबंध में कुछ भी नहीं करते हैं। कायदे से इस संबंध में उनको इस जालशय का वैज्ञानिक अध्ययन कराया जाना चाहिए लेकिन अब तक नहीं कराया गया है।

वर्मन बताते हैं कि मध्य प्रदेश में अब तक इस बात कोई सबूत नहीं मिला है, जहां प्राइवेट प्लेयर को समितियों को सौंपने के बाद उनहें किसी प्रकार का लाभ मिला हो। यहां तक कि वह कहते हैं कि 2007 में नर्मदा वैली डेवलपमेंट अथॉरिटी ने अपने एक सुझाव में यहां तक कहा था कि बरगी जलाशय में मछली मारने का काम निजी हाथों से लेकर मछुआरों को दे दिया जाना चाहिए।

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