चिकन में कोलिस्टिन पर प्रतिबंध का विरोध कर रही हैं बड़ी कंपनियां

मुर्गीपालन उद्योग आर्थिक लाभ के लिए मुर्गियों को कम समय में और कम खाना देकर जल्दी मोटा करने के लिए एंटीबायोटिक का इस्तेमाल करता है।

By Chandra Bhushan
Published: Wednesday 18 September 2019

स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय (एमओएचएफडब्ल्यू) ने खाद्य उत्पादक पशुओं, मुर्गीपालन, एक्वा फार्मिंग (जल कृषि) और पशुचारा अनुपूरक आहार में कोलिस्टिन और इसके फॉर्म्युलेशन की बिक्री, विनिर्माण और वितरण पर रोक लगा दी है। इसके अलावा, इसमें कोलिस्टिन और इसकी फॉर्म्युलेशन विनिर्माताओं को यह निर्देश भी दिया गया है कि पैकेज और प्रचारक सामग्री पर स्पष्ट रूप से यह लिखना होगा कि यह खाद्य उत्पादक पशुओं, मुर्गीपालन, एक्वा फार्मिंग और पशुचारा अनुपूरक आहार में उपयोग के लिए नहीं है।

विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) के अनुसार, कोलिस्टिन मनुष्यों के लिए “सर्वाधिक प्राथमिकता वाला अति महत्वपूर्ण” एंटीबायोटिक है। इसका अर्थ है कि कोलिस्टिन अनेक दवाओं के प्रतिरोधक बैक्टीरिया द्वारा होने वाले संक्रमण जैसे गंभीर संक्रमणों का आखिरी इलाज या आखिरी दवाइयों में से एक है। इसलिए कोलिस्टिन पर प्रतिबंध कुछ प्रमुख एंटीबायोटिक को मनुष्यों के लिए बचाए रखने की दिशा में सरकार द्वारा उठाया गया अहम कदम है। लेकिन क्या यह कदम काफी है?

भारत में कोलिस्टिन जैसे एंटीबायोटिक का बड़े पैमाने पर दुरुपयोग हो रहा है। इसका इस्तेमाल खाद्य पशुओं के विकास के लिए और महामारी रोकने के लिए किया जाता है। उदाहरण के लिए, मुर्गीपालन उद्योग आर्थिक लाभ के लिए मुर्गियों को कम समय में और कम खाना देकर जल्दी मोटा करने के लिए एंटीबायोटिक का इस्तेमाल करता है। पक्षियों में बीमारी के लक्षण नजर न आने के बावजूद बीमारी की रोकथाम के नाम पर सभी पक्षियों को यह सामान्य आहार के साथ दिया जा रहा है। मुर्गियों की आपूर्ति करने वाली देश की कुछ सबसे बड़ी कंपनियों द्वारा इसका समर्थन किया जा रहा है। भारत में केएफसी, मैकडॉनल्ड, पिज्जा हट और डॉमिनोज जैसे प्रमुख फास्ट फूड ब्रांड्स को चिकन की आपूर्ति करने वाले वैंकीज द्वारा किसानों को कोलिस्टिन दिया गया था, ताकि मुर्गियों को जल्द मोटा किया जा सके। अनेक वैज्ञानिक अध्ययन दर्शाते हैं कि इस दुरुपयोग से एंटीबायोटिक प्रतिरोध (एबीआर) बैक्टीरिया पनप रहे हैं और वातावरण में फैल रहे हैं। उदाहरण के लिए, नई दिल्ली स्थित गैर-लाभकारी संगठन सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट की प्रदूषण निगरानी प्रयोगशाला ने वर्ष 2017 में मुर्गीपालन केंद्रों और उसके आसपास के इलाके में प्रतिरोध की मात्रा का पता लगाने के लिए व्यापक अध्ययन किया था।

इसमें मुर्गीपालन केंद्रों में ई-कोली जैसे बहु औषधी प्रतिरोधी बैक्टीरिया पाया गया। इस अध्ययन ने साबित किया कि खाद के रूप में निपटाए गए कचरे के जरिए बहु औषधी प्रतिरोधी ई-कोली इन केंद्रों से खेतों तक पहुंच रहा है जिससे मनुष्यों के इन बैक्टीरिया से संक्रमण का खतरा बढ़ गया है। अन्य देशों में किए गए अध्ययन इसकी पुष्टि करते हैं।

यद्यपि कोलिस्टिन को हटाना एबीआर से लड़ने की दिशा में उठाया गया पहला कदम है, तथापि यह लड़ाई काफी लंबी और कठिन है। काफी अधिक संभावना है कि उद्योग कोलिस्टिन की जगह किसी अन्य एंटीबायोटिक का इस्तेमाल शुरू कर देगा और इसका दुरुपयोग जारी रहेगा। एंटीबायोटिक के दुरुपयोग को खत्म करने के लिए हमें समग्र रूपरेखा की जरूरत है। सौभाग्य से हमारे पास ऐसी रूपरेखा इंडियन नेशनल प्‍लान ऑफ एंटी बायोटिक रेजिस्टेंस (एनएपी-एएमआर) के रूप में है। एनएपी-एएमआर का लक्ष्य पशुओं के लिए अति महत्वपूर्ण एंटीबायोटिक के इस्तेमाल को समाप्त करना है। इसका अंतिम लक्ष्य खेतीहर पशुओं में गैर-चिकित्सीय उपयोग के लिए इसके इस्तेमाल का सीमित और समाप्त करना है। लेकिन इसका कार्यान्वयन सुस्त है।

पशुपालन क्षेत्र में एनएपी-एएमआर के कार्यान्वयन के लिए जिम्मेदार पशुपालन, डेयरी और मछलीपालन विभाग पशुओं के विकास के लिए एंटीबायोटिक पर रोक लगाने संबंधी कानून बनाने में नाकाम रहा है। इसी प्रकार, यह पशुओं में एंटीबायोटिक के इस्तेमाल का पता लगाने की प्रणाली बनाने में भी असफल रहा है। यह अन्य अहम एंटीबायोटिक के इस्तेमाल को चरणबद्ध रूप से समाप्त करने की कार्य योजना भी नहीं बना सका है। एनएपी-एएमआर के कार्यान्वयन की नोडल एजेंसी एमओएचएफडब्ल्यू भी काफी सुस्त है। इसके पास पैसा भी काफी कम है। वास्तव में एनएपी-एएमआर के कार्यान्वयन के लिए अलग से बजट भी नहीं है। लेकिन सच्चाई यह है कि हम एनएपी-एएमआर के कार्यान्वयन में देरी नहीं कर सकते। लोग एबीआर की वजह से मर रहे हैं। अगर हमने जल्द कुछ नहीं किया तो हम लाखों लोगों की जिंदगी खतरे में डाल देंगे।

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