असोला भाटी वन्यजीव अभयारण्य में मिली पक्षियों की 250 प्रजातियां, दो पर मंडरा रहा गंभीर संकट

असोला भाटी वन्यजीव अभयारण्य में पाई गई पक्षियों की इन 250 प्रजातियों में गंभीर संकट में पड़े सफेद पूंछ वाले गिद्ध और व्हाइट रम्प्ड वल्चर जैसी दुर्लभ प्रजातियां भी शामिल हैं

By Lalit Maurya
Published: Tuesday 07 March 2023

2014 से 2022 के बीच आठ वर्षों तक किए गए अध्ययन से पता चला है कि असोला भाटी वन्यजीव अभयारण्य में पक्षियों की 250 प्रजातियां और दो उपप्रजातियां हैं। इतना ही नहीं यदि इन प्रजातियों पर मंडराते विलुप्ति के खतरे के आधार पर देखें तो इनमें से पक्षियों दो प्रजातियां ऐसी हैं जिनपर विलुप्त होने का गंभीर रूप से खतरा है।

यह दो प्रजातियां सफेद पूंछ वाला गिद्ध (व्हाइट रम्प्ड वल्चर) और लाल सिर वाला गिद्ध जिसे एशियाई राजा गिद्ध, भारतीय काला गिद्ध और पौण्डिचैरी गिद्ध भी कहते हैं। यह भारतीय उपमहाद्वीप में पाए जाने वाले गिद्ध की एक प्रजाति है।

गौरतलब है कि व्हाइट रम्प्ड वल्चर इतना ज्यादा दुर्लभ है कि इसे 23 वर्ष पहले ही इंटरनेशनल यूनियन फॉर कंजर्वेशन आईसीयूएन ऑफ नेचर (आईसीयूएन) ने अपनी संकट ग्रस्त प्रजातियों की रेड लिस्ट में शामिल कर लिया था। सामान्य बोलचाल में गिद्ध की इस प्रजाति को बंगाल का गिद्ध भी कहते हैं। यह प्राय भारतीय उपमहाद्वीप के अलावा म्यांमार, थाईलैंड, लाओस, कंबोडिया के साथ-साथ नेपाल में भी पाया जाता है।

इसी तरह इनमें स्ट्रीक-थ्रोटेड कठफोड़वा और उत्तरी गोशावक (नॉर्दन गॉसहोक) भी हैं जो दिल्ली में देखे जाने वाले पक्षियों की सूची में नए जुड़े हैं। यह दोनों ही हिमालय क्षेत्र में मिलने वाले पक्षी हैं, जिन्हें पहली बार 2018 और 2021 में इस अभयारण्य में देखा गया था।

पाई गई प्रजातियों में दुर्लभ सफेद गिद्ध भी शामिल

इसके अलावा असोला भाटी वन्यजीव अभयारण्य में पक्षियों की तीन संकटग्रस्त प्रजातियों का भी पता चला है जिनमें दुर्लभ सफेद गिद्ध (इजिप्शियन वल्चर) और  चील (स्टेपी ईगल) शामिल हैं, जोकि सर्दियों में प्रवास करने वाला पक्षी है।

इजीप्शियन वल्चर की गर्दन में सफेद बाल होते हैं। इनका आकार थोड़ा छोटा होता है। यहां पाए जाने वाले इजीप्शियन वल्चर दो प्रकार के होते हैं। एक तो स्थाई रूप से रहने वाले और दूसरे वो जो सर्दियों के दौरान अन्य क्षेत्रों से यहां प्रवास के लिए आते हैं। इन्हें संस्कृत साहित्य में शकुंत भी कहा गया है ।

असोला भाटी वन्यजीव अभयारण्य में मिले पक्षियों की प्रजातियों में सात ऐसी हैं जो अब भी असुरक्षित हैं जबकि इनमें आठ पक्षी प्रजातियां ऐसी हैं जो संकटग्रस्त प्रजातियों की सूचि में शामिल होने के करीब हैं। आठ वर्षों तक चला यह अध्ययन बॉम्बे नेचुरल हिस्ट्री सोसाइटी और जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं द्वारा किया गया है।

इनमें 250 प्रजातियों में से 115 ऐसी हैं जो यहां की स्थानीय प्रजातियां हैं, जबकि 42 स्थानीय प्रवासी हैं। वहीं इजीप्शियन वल्चर जैसी सर्दियों के दौरान प्रवास करने वाली 58 प्रजातियां है। इसी तरह 18 पक्षी प्रजातियां ऐसी हैं जो एक जगह से दूसरी जगह जाते हुए यहां आसरा लेती हैं। इसी तरह इनमें गर्मियों के दौरान प्रवास करने वाली छह प्रजातियां और छह घुमन्तु प्रजातियां शामिल हैं। वहीं सात प्रजातियां ऐसी हैं जिनके बारे में सही तौर पर नहीं कहा जा सकता।

वहीं यदि वन्यजीव संरक्षण अधिनियम 1972 में इन पक्षियों की स्थिति के आधार पर देखें तो इनमें से 25 प्रजातियां ऐसी हैं जो अनुसूची I में शामिल हैं। इस तरह इन प्रजातियों को कानूनी तौर पर संरक्षित किया गया है। वहीं इनमें से 226 प्रजातियों को अनुसूची IV और एक प्रजाति को अनुसूची V में शामिल है।

इस सर्वेक्षण के दौरान तीन प्रजातियां जीवों द्वारा छोड़े गड्ढों में जबकि 13 प्रजातियां चट्टानी पहाड़ियों में पाई गई। वहीं 24 प्रजातियां जंगली क्षेत्रों में जबकि 67 प्रजातियां नीली झील के आसपास देखने को मिली थी।

इसी तरह 66 प्रजातियां मौसमी वेटलैंड्स के पास और 33 सीईसी-दिल्ली परिसर के आसपास देखी गई थी। वहीं 47 प्रजातियां का आवास झाड़ियां थी, जबकि 70 ऐसी प्रजातियां थी जो सब जगह पाई गई। वहीं 17 प्रजातियां ऐसी थी जिनके आवास के बारे में कोई सही जानकारी नहीं है।

देखा जाए तो असोला भट्टी वन्यजीव अभयारण्य, दिल्ली-एनसीआर के शहरी क्षेत्र में बना एकमात्र अभयारण्य है जो इसे अद्वितीय बनाता है। यह अभयारण्य अरावली के जंगलों में वनस्पतियों और जीवों की अनगिनत प्रजातियों को आश्रय देता है। अरावली के यह पहाड़ दुनिया की सबसे पुरानी पर्वत श्रंखलाओं में से एक हैं। यही वजह है कि यहां वनस्पति और वन्यजीवों का एक लम्बा इतिहास है।

देखा जाए तो यह क्षेत्र खनन और पानी की कमी से जूझता रहा है। ऐसे में अध्ययन का सुझाव है कि यहां पूरे वर्ष पानी उपलब्ध हो इसके लिए प्राकृतिक और कृत्रिम जल स्रोतों के निर्माण के साथ उनकी भूजल की बहाली भी जरूरी है।

साथ ही यहां बहने वाली जलधाराओं के साथ ही स्वदेशी पौधों पर भी ध्यान देना जरूरी है, जिससे यहां के पारिस्थितिक तंत्र को दोबारा बहाल किया जा सके। इसके अलावा इस क्षेत्र में इंसानी प्रभाव को सीमित करना भी इन दुर्लभ प्रजातियों के लिए अत्यंत जरूरी है। भेड़ और अन्य मवेशियों के चरने से यहां वनस्पतियों के दोबारा पनपने और आक्रामक पौधों के प्रसार का खतरा भी बढ़ रहा है, जिसपर ध्यान देना भी जरूरी है।

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