देशी प्रजातियों पर विदेशी हमला, भाग-पांच: लैंटाना जैसी प्रजातियों के समूल नाश के लिए राष्ट्रीय नीति का अभाव

जंगली जानवरों को जंगल में ही रहने और उन्हें उनका पसंदीदा भोजन उपलब्ध कराना बेहद जरूरी हो गया है, इसके लिए एक राष्ट्रीय नीति का होना बहुत जरूरी है

लैंटाना अच्छी रोशनी वाले क्षेत्रों में झाड़ी की तरह व्यवहार करता है (इनसेट) और पेड़ों की छाया वाले जंगलों में बेल की तरह व्यवहार करके रोशनी जमीन पर पहुंचने से रोकता है (फोटो: इंदिरा श्रीनिवासन)

भारत के जंगल तेजी से आक्रामक विदेशी प्रजातियों से भरते जा रहे हैं, जिससे न केवल जंगल की जैव विविधता खतरे में पड़ गई है बल्कि जानवरों के मौलिक आवास स्थल शाकाहारी और मांसाहारी जीवों को पर्याप्त भोजन मुहैया कराने में नाकाम साबित हो रहे हैं। आक्रामक प्रजातियां देसी और मौलिक वनस्पतियों को तेजी से बेदखल कर जीवों को भोजन की तलाश में जंगल से बाहर निकलने को विवश कर रही हैं। इससे जीवों की खानपान की आदतें बदल रही हैं, साथ ही मानव बस्तियों में उनके पहुंचने से मानव-पशु संघर्ष भी तेज हो रहा है। नई दिल्ली से हिमांशु एन के साथ तमिलनाडु से शिवानी चतुर्वेदी, असम से अनुपम चक्रवर्ती, केरल से केए शाजी, कर्नाटक से एम रघुराम और उत्तराखंड से वर्षा सिंह ने जंगली जानवरों पर मंडरा रहे अस्तित्व के इस संकट का विस्तृत आकलन किया। इसे चार कड़ी में प्रकाशित किया जा रहा है। पहली कड़ी में आपने पढ़ा: जंगली जानवरों को नहीं मिल रहा उनका प्रिय भोजन । दूसरी कड़ी में आपने पढ़ा: भूखे जानवरों और इंसानों के बीच बढ़ा टकराव । अगली कड़ी में आपने पढ़ा: आक्रामक प्रजातियों को खाने के लिए विवश हुए जंगली जानवर । पढ़ें अंतिम कड़ी    

 

राष्ट्रीय नीति का अभाव
वन विभाग जंगल की मूल वनस्पतियों को बचाने और वन पारिस्थितिकी तंत्र को बहाल करने के लिए कड़ी मशक्कत कर रहे हैं। नागरहोल, अनाशी, कुद्रेमुख राष्ट्रीय उद्यान और भीमगढ़ सहित कई वर्षावन परिसरों ने हर साल देसी प्रजातियों के बीजों के फैलाव और घास के मैदान विकास कार्यक्रम जैसी पहल की है। कर्नाटक के सहायक वन संरक्षक एवी सतीश बताते हैं, “राष्ट्रीय उद्यान के अंदर वन्यजीवों को बनाए रखने के लिए हम स्थानीय फल वाले पेड़ लगाने को प्रोत्साहित करते हैं। हम जानवरों को जंगलों के पास मानव आवास में रहने से रोकने के लिए जंगली आम, काले बेर, कटहल और जंगली जैक की किस्मों के पौधे लगाते हैं।” उनका कहना है कि विभाग ने फलदार पेड़ लगाने के लिए ऐसे क्षेत्रों में स्थित ग्राम वन समितियों को सक्रिय किया है। वन विभाग ने पश्चिमी घाट के क्षेत्रों में 45 से अधिक स्थानों पर नर्सरी बनाई है।

पश्चिमी घाट की तलहटी से सिर्फ 15 किलोमीटर दूर पुत्तूर वन डिवीजन के कनकमजालु में विभिन्न फल देने वाले पेड़ों के 65,000 से अधिक पौधे तैयार किए जाते हैं और सीमांत क्षेत्रों में मामूली दर पर ग्रामीणों को वितरित किए जाते हैं। यहां घास के मैदानों की बहाली पर जोर दिया जा रहा है। घास के बीज वीएफसी स्वयंसेवकों और वन पर्यवेक्षकों द्वारा साल में कम से कम दो बार शाकाहारी जानवरों के आवासों में फैलाए जाते हैं।

वरिष्ठ वन्यजीव अधिकारी बीपी रवि (मैसूर में चामराजेंद्र चिड़ियाघर के पूर्व ईडी) ने डाउन टू अर्थ को बताया “हमारे जंगलों में लैंटाना का मौजूदगी 200 साल से है। कर्नाटक में ही नहीं बल्कि पश्चिमी घाट के कई हिस्सों में इस यह फैल चुका है। प्राकृतिक घास के मैदानों के विकास के लिए जरूरी है कि हाथ से इसे हटाया जाए।” डी वेंकटेश कहते हैं, “2021 में हमने प्रोसोपिस जूलीफ्लोरा को हटाना शुरू किया और गलियारे क्षेत्र में 370 हेक्टेयर से इन प्रजाति को समाप्त कर दिया। अब हम देसी घास की प्रजातियां उगा रहे हैं और हाथी फिर से इस क्षेत्र की ओर आकर्षित हो रहे हैं। इस पहल का मुख्य उद्देश्य घास के मैदानों के साथ प्राकृतिक वन पारिस्थितिकी तंत्र को बहाल करना और जंगली जानवरों के आवास में सुधार करना है।”

तमिलनाडु की पर्यावरण, जलवायु परिवर्तन और वन की मुख्य अतिरिक्त मुख्य सचिव सुप्रिया साहू का कहना है कि आक्रामक पौधों और पारिस्थितिक बहाली पर तमिलनाडु नीति (टीएनपीआईपीईआर) का उद्देश्य आक्रामक प्रजातियों को हटाना और पारिस्थितिक बहाली है। वह आगे बताती हैं, “तमिलनाडु में हमने 493 हेक्टेयर वन भूमि से सेन्ना स्पेक्टाबिलिस को सफलतापूर्वक हटाया है। यह एक जहरीली आक्रामक खरपतवार है जो देसी वनस्पति को नष्ट कर देती है। घास की लगभग 15 और फलियों की 5 प्रजातियां उस क्षेत्र से निकलती पाई गई हैं जहां सेन्ना को हटाया गया है। लगभग एक साल पहले जहरीली आक्रामक खरपतवार से ढका हुआ क्षेत्र अब हरी-भरी घास से भर गया है। इस क्षेत्र अब यह गौर, हाथियों, हिरणों और अन्य जानवरों को भोजन प्रदान करता है।”

इस तरह के अलग-अलग और छुटपुट प्रयासों के बावजूद भारत के पास आक्रामक प्रजातियों के प्रसार का प्रबंधन करने के लिए कोई राष्ट्रीय नीति नहीं है। इंटरगवर्नमेंटल साइंस पॉलिसी प्लेटफॉर्म ऑन बायोडायवर्सिटी एंड ईकोसिस्टम सिर्विसेस (आईपीबीईएस) के अनुसार, केवल 17 प्रतिशत देशों में इनके नियंत्रण और प्रबंधन के लिए राष्ट्रीय कानून हैं।

मुंगी का कहना है कि वनों के कोर क्षेत्रों सहित आक्रामक पौधों के फैलाव को देखते हुए इन वन्यजीव आवासों को समझना और यहां तक कि उन्हें वन कहना भी मुश्किल है क्योंकि वे पारिस्थितिकी तंत्र सेवाएं उतनी कुशलता से प्रदान करने में विफल हो रहे हैं जितना उन्हें सक्षम होना चाहिए था। वह कहते हैं, “तकनीकी रूप से मनुष्य जंगल में जंगली शाकाहारी जीवों के अस्तित्व के लिए खेती कर रहा है और यहां तक कि पानी भी उपलब्ध करा रहा है। लेकिन ये स्वतंत्र प्रयास हैं और इन्हें राष्ट्रीय नीति के माध्यम से बढ़ाने की जरूरत है।” वह कहते हैं कि इसके बिना वन्यजीवों के लिए भोजन उगाकर उन्हें बनाए रखना काफी हद तक भविष्य के गर्भ में है।

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