सीबीडी कॉप 15: महाविनाश का हथियार बन गई है मानवता, धरती का 75 प्रतिशत हिस्सा बदला

वैश्विक स्तर पर पौधों व पशुओं की 10 लाख प्रजातियों पर विलुप्त होने का खतरा मंडरा रहा है, जिसके लिए हम इंसान और हमारी बढ़ती महत्वाकांक्षा जिम्मेवार है

By Lalit Maurya
Published: Wednesday 07 December 2022
कहीं दंतकथाओं का महज हिस्सा न बन जाए जीवों की प्रजातियां; फोटो: पिक्साबे

इंसान आज अपनी महत्वाकांक्षा में इतना अंधा हो चुका है कि वो यह भूल चुका है कि जिस प्रकृति का शोषण करने में वो गुरेज नहीं कर रहा है वो भी उस प्रकृति का एक हिस्सा छोटा सा हिस्सा है। लेकिन बढ़ता लालच, आगे जाने की चाह उसे सही गलत में अंतर नहीं देखने दे रही।

हालांकि वैश्विक स्तर पर इसे बचाने के प्रयास भी चल रहे हैं। इसी कड़ी में आज 7 दिसंबर 2022 से जैवविविधता पर संयुक्त राष्ट्र का सबसे महत्वपूर्ण सम्मेलन कॉप 15 (सीबीडी) शुरू हो चुका है जिसका इस बार आयोजन कनाडा के मॉन्ट्रियल शहर में किया जा रहा है। यह सम्मेलन 19 दिसंबर 2022 तक चलेगा। इस सम्मेलन में वार्ताकार इंसानी गतिविधियों के चलते होते प्रकृति के विध्वंस पर लगाम कसने के लिए नए लक्ष्य स्थापित करने पर ध्यान केन्द्रित करेंगे।

इस मौके पर पर संयुक्त राष्ट्र प्रमुख ने जैवविविधता की रक्षा के लिये तीन अहम उपायों पर बल देते हुए आगाह किया है कि प्रकृति के बिना, मानवता के पास कुछ भी नहीं है।

देखा जाए तो इस इस बार कॉप 15 सम्मेलन के दौरान एक नया ‘वैश्विक जैवविविधता फ्रेमवर्क’ पारित किए जाने की सम्भावना है, जिसमें वैश्विक स्तर पर 2030 तक प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण व सुरक्षा से जुड़े उपायों का खाका पेश किया जाएगा।

गौरतलब है कि वैश्विक जैव विविधता पर मंडराते संकट से निपटने के लिए, 2010 में जैव विविधता पर हुए संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन में, लगभग 200 देशों ने 2020 तक अपने स्थलीय क्षेत्रों के कम से कम 17 फीसदी हिस्से को बचाने का संकल्प लिया था। इसे आइची लक्ष्य 11 के रूप में जाना जाता है।

साथ ही इस लक्ष्य के तहत कम से कम 10 फीसदी तटीय और समुद्री क्षेत्र को संरक्षित करने पर सहमति बनी थी। हालांकि देखा जाए तो दुनिया के कई देश अभी भी इस लक्ष्य से मीलों दूर हैं। इन देशों में भारत भी एक है, जिसका अब तक महज 6 फीसदी हिस्सा ही संरक्षित क्षेत्र के रूप में घोषित है। कमोबेश यही स्थिति एशिया के ज्यादातर देशों की है।

यदि संयुक्त राष्ट्र द्वारा जारी रिपोर्ट पर नजर डालें तो अब तक एक भी लक्ष्य पूरी तरह हासिल नहीं किया जा सका है। वहीं दूसरी तरफ डायनासोर युग के बाद से अब तक प्रकृति अपने सबसे बुरे दौर से गुजर रही है, जिसको बड़े स्तर पर क्षति पहुंची है।

इंसानी दबाव में बदल चुका है धरती का 75 फीसदी हिस्सा

अनुमान है कि वैश्विक स्तर पर पौधों व पशुओं की 10 लाख प्रजातियों पर विलुप्त होने का खतरा मंडरा रहा है और जिसके लिए हम इंसान और हमारी बढ़ती महत्वाकांक्षा जिम्मेवार है। वहीं रिपोर्ट में माना गया है कि कृषि पृथ्वी के पारिस्थितिकी तंत्र के लिए सबसे बड़े खतरों में से एक है।

देखा जाए तो धरती पर रहने वाली देशज प्रजातियों में औसतन 20 फीसदी की गिरावट आई है, इसमें से ज्यादातर 19वीं शताब्दी के बाद से दर्ज की गई है। इतना ही नहीं आज 40 फीसदी से ज्यादा उभयचर, 33 फीसदी मूंगे और समुद्र में पाए जाने वाली करीब एक तिहाई स्तनधारियों की प्रजातियां खतरे में हैं।

हालांकि कीटों के लिए तस्वीर पूरी तरह स्पष्ट नहीं है, लेकिन अनुमान है कि इनकी 10 फीसदी से ज्यादा प्रजातियां खतरे में हैं। इसी तरह 16वीं शताब्दी के बाद कम से कम 680 कशेरुक प्रजातियों पर विलुप्त होने का संकट बढ़ गया है। वहीं 2016 तक कृषि और भोजन के लिए उपयोग होने वाले स्तनधारियों की करीब 9 फीसदी प्रजातियां विलुप्त हो चुकी हैं। वहीं एक हजार नस्लें अभी भी खतरे में हैं।

इसी तरह धरती का करीब तीन-चौथाई और समुद्री पर्यावरण का 66 फीसदी हिस्सा इंसानी हस्तक्षेप के चलते अब अपने प्राकृतिक स्वरूप में नहीं बचा है। हालांकि जो हिस्सा अभी भी स्थानीय समुदायों और मूल निवासियों की देख रेख में है, उसमें यह रुझान कम गंभीर है। 

ऐसे में संयुक्त राष्ट्र महासचिव एंटोनियो गुटेरेस ने कॉप 15 सम्मेलन को सम्बोधित करते हुए, इससे निपटने के लिए तत्काल कार्रवाई की आवश्यकता को रेखांकित करते हुए कहा कि प्रकृति के बिना हम कुछ भी नहीं हैं, मगर इंसानों ने सैकड़ों सालों से प्रकृति का शोषण किया है।

संयुक्त राष्ट्र प्रमुख ने वनों विनाश से लेकर मरुस्थलीकरण, रसायन व कीटनाशकों से पर्यावरण को होते नुकसान का उल्लेख किया है। उनके अनुसार जिस तरह भूमि क्षरण का शिकार हुई है उसके चलते बढ़ती वैश्विक आबादी का पेट भरना कठिन हो रहा है। उनके मुताबिक महासागरों पर पड़ते असर के चलते जीवन को सहारा देने वाली प्रवाल भित्तियों और अन्य समुद्री पारिस्थितिकी तंत्रों का तेजी से विनाश हो रहा है। उससे उन समुदायों पर गम्भीर असर पड़ा रहा है, जो अपनी जीविका के लिए महासागरों पर निर्भर हैं। उन्होंने बहुराष्ट्रीय कंपनियों को कटघरे में खड़े करते हुए कहा कि वे अपने बैंक खाते भर रहे हैं, जबकि दुनिया प्रकृति के उपहारों से खाली होती जा रही है।

उन्होंने आगाह करते हुए कहा कि मुनाफा कमाने का मौजूदा ढर्रा, प्रकृति और ज्यादातर लोगों के हितों के विरुद्ध काम कर रहा है। मानवता को समझना होगा कि हमारे पास कोई दूसरी पृथ्वी नहीं है। उन्होंने क्षोभ प्रकट करते हुए कहा कि आज मानवता सामूहिक विनाश का हथियार बन गई है।

वहीं प्रकृति के साथ शौचालय जैसा बर्ताव किया जा रहा है। उन्होंने ने प्रकृति की रक्षा के कारगर समाधान के रूप में वैश्विक जैवविविधता समझौते का उल्लेख किया है। इसमें जैवविविधता को होते नुकसान को रोकने के साथ भूमि व समुद्र पर बढ़ते दबाव को कम करना, प्रजातियों की रक्षा, जलवायु परिवर्तन की रोकथाम और प्रदूषण से निपटने पर बल दिया गया है।

इस क्रम में गैर जिम्मेदाराना तरीके से होता निवेश, नुकसान पहुंचा रही सब्सिडी, खाद्य प्रणालियों में बदलाव के साथ उत्पादन और उपभोग को लक्षित करना शामिल है।

संयुक्त राष्ट्र प्रमुख ने प्रकृति की रक्षा सुनिश्चित करने के लिए तीन अहम उपायों पर जोर दिया है। इनमें पहला, उन राष्ट्रीय योजनाओं को लागू करना, जिनमें प्रकृति को क्षति पहुंचाने वाली गतिविधियों को दी जा रही सब्सिडी और टैक्स में छूट को खत्म कर दिया जाए।

साथ ही पर्यावरण अनुकूल समाधानों को अपनाना जैसे अक्षय ऊर्जा के उपयोग को बढ़ावा देना, प्लास्टिक के इस्तेमाल को सीमित करना, प्रकृति के अनुकूल खाद्य उत्पादन और संसाधनों का समझदारी से उपयोग करना शामिल है। उनके अनुसार इन योजनाओं में मूल निवासियों व स्थानीय समुदायों के अधिकारों को मान्यता दी जाए, जो प्रकृति के सच्चे संरक्षक हैं।

लीपापोती नहीं, तय की जानी चाहिए निजी क्षेत्र की जवाबदेही

दूसरा, निजी क्षेत्र को समझना होगा कि मुनाफे और संरक्षण को साथ लेकर चलना होगा। इसके लिए खाद्य व कृषि उद्योग को सतत उत्पादन, कीटनाशकों के उपयोग में नियंत्रण, और परागण के प्राकृतिक समाधानों ध्यान देना होगा। इसी तरह टिम्बर, केमिकल, निर्माण उद्योगों को अपनी व्यावसायिक योजनाओं में प्रकृति पर होने वाले प्रभावों का आकलन करना होगा, जबकि बायोटेक, औषधि निर्माण और जैवविविधता का दोहन करने वाले अन्य उद्योगों को अपने लाभ का न्यायोचित वितरण सुनिश्चित करना होगा।

उन्होंने पर्यावरण अनुकूल दिखने के लिए की जा रही लीपापोती की प्रवृत्ति की आलोचना की। इस लीपापोती के जरिए कंपनियां प्रकृति संरक्षण के बड़े-बड़े दावे करती हैं। जो महज दावे होते हैं। उनका कहना है कि निजी क्षेत्र की जवाबदेही तय करनी होगी।

तीसरा, समाधान यह है कि विकसित देशों को दक्षिण में स्थित देशों की मदद करनी होगी क्योंकि इसका बोझ केवल विकासशील देशों के कन्धों पर नहीं छोड़ा जा सकता। उन्होंने अन्तरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थाओं और बहुपक्षीय विकास बैंकों से भी आग्रह किया कि उन्हें अपने पोर्टफोलियो जैवविविधता संरक्षण और उसके सतत उपयोग के अनुरूप बनाने होंगे। उन्होंने वैश्विक समुदाय के रूप में उन सभी देशों को एक साथ खड़े होने का आह्वान किया है जो दशकों-सदियों के क्षरण व नुकसान के बाद पारिस्थितिकी तंत्रों की बहाली व संरक्षण के लिए प्रयासरत हैं।

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