भारत में मवेशियों में लम्पी त्वचा रोग के पीछे वायरस के कई वेरिएंट: अध्ययन

शोध के मुताबिक, मवेशियों में उन क्षेत्रों में अधिक गंभीर लक्षण विकसित हुए जहां अत्यधिक विविध नस्लें थी। इससे पता चलता है कि आनुवंशिक विविधताएं वायरस को बढ़ा सकती हैं।

By Dayanidhi
Published: Thursday 04 April 2024
लम्पी त्वचा रोग पहली बार 1931 में जाम्बिया में पाया गया था, फोटो साभार : रोहित पराशर

मई 2022 में, भारत भर में मवेशी एक रहस्यमय बीमारी से मरने लगे थे। तब से, लगभग 1,00,000 गायें इसके विनाशकारी प्रकोप से अपनी जान गंवा चुकी हैं, वैज्ञानिकों ने इसकी पहचान लम्पी या गांठदार त्वचा रोग के रूप में की। इस प्रकोप ने भारत के कृषि क्षेत्र को बुरी तरह प्रभावित किया, जिससे भारी आर्थिक नुकसान हुआ।

अध्ययन में शोधकर्ता ने कहा कि यह कुछ मायनों में एक आपदा थी, जिसे एक राष्ट्रीय आपातकाल भी कह सकते हैं।

शोधकर्ता उस टीम का हिस्सा थे जिन्होंने प्रकोप के कारण की जांच करने का निर्णय लिया। यह अध्ययन इस रोग को फैलाने वाले वायरस और उनके वेरिएंटों के विकास और उत्पत्ति में महत्वपूर्ण जानकारी प्रदान करता है।

क्या होता है लम्पी त्वचा रोग, कब और कहां से शुरू हुआ यह रोग?

बीएमसी जीनोमिक्स नामक पत्रिका में प्रकाशित अध्ययन में लम्पी स्किन डिजीज वायरस (एलएसडीवी) के कारण होने वाला एक संक्रामक संक्रमण, यह बीमारी मक्खियों और मच्छरों जैसे कीड़ों से फैलती है। यह बुखार और त्वचा पर गांठों का कारण बनता है और मवेशियों के लिए घातक हो सकता है।

लम्पी त्वचा रोग पहली बार 1931 में जाम्बिया में पाया गया था और 1989 तक उप-अफ्रीकी क्षेत्र तक ही सीमित रहा, जिसके बाद दक्षिण एशिया में फैलने से पहले यह मध्य पूर्व, रूस और अन्य दक्षिण-पूर्व यूरोपीय देशों में फैलना शुरू हो गया। भारत में इस बीमारी के दो बड़े प्रकोप हुए, पहला 2019 में और दूसरा 2022 में अधिक गंभीर प्रकोप, जिसने 20 लाख से अधिक गायों को संक्रमित किया।

वर्तमान प्रकोप की जांच करने के लिए, टीम ने पशु चिकित्सा संस्थानों के सहयोग से गुजरात, महाराष्ट्र, राजस्थान और कर्नाटक सहित विभिन्न राज्यों में संक्रमित मवेशियों से त्वचा की गांठें, रक्त और नाक के नमूने एकत्र किए। उन्होंने 22 नमूनों से निकाले गए डीएनए की उन्नत संपूर्ण-जीनोम अनुक्रमण का प्रदर्शन किया।

अध्ययन में शोधकर्ता बताते हैं, सबसे बड़ी चुनौती एक स्थापित लम्पी त्वचा रोग वायरस जीनोम अनुक्रमण और विश्लेषण की कमी थी। अध्ययनकर्ताओं को कोविड-19 शोध के तकनीकों को अपनाना पड़ा। आंकड़े भी सीमित थे, इसलिए शोधकर्ताओं ने अध्ययन के हवाले से बताया कि अपने विश्लेषण को मजबूत बनाने के लिए सभी उपलब्ध वैश्विक लम्पी स्किन डिजीज वायरस (एलएसडीवी) जीनोम अनुक्रमों को जमा किया।

अध्ययन के मुताबिक, जीनोमिक विश्लेषण से पता चला कि भारत में दो अलग-अलग एलएसडीवी वेरिएंट घूम रहे हैं, एक कम संख्या में आनुवंशिक विविधता वाला और दूसरा अधिक संख्या में आनुवंशिक विविधता वाला। कम विविधताओं वाला अनुक्रम आनुवंशिक रूप से 2019 रांची और 2020 हैदराबाद में पाए गए वेरिएंट के समान था जिन्हें पहले अनुक्रमित किया गया था। हालांकि, उच्च विविधता वाले नमूने 2015 में रूस में फैलने वाले एलएसडीवी वेरिएंटों के समान निकले।

अध्ययन में कहा गया है कि भारत में इस तरह के अत्यधिक विविध एलएसडीवी वेरिएंटों की कोई पिछली रिपोर्ट नहीं है। जिन वायरसों में आनुवंशिक सामग्री के रूप में डीएनए होता है, जैसे एलएसडीवी वे आमतौर पर आरएनए वायरस की तुलना में अधिक स्थिर होते हैं। इसलिए, इतनी सारी आनुवंशिक विविधताएं ढूंढना काफी कठिन था जिससे बीमारी की गंभीरता को समझा जा सके।

अध्ययन में कहा गया है कि टीम को बड़ी संख्या में आनुवंशिक विविधताएं मिलीं जो 1,800 से अधिक थी। इनमें विभिन्न जीनों में विलोपन और सम्मिलन, डीएनए में एकल-अक्षर परिवर्तन (एसएनपी कहा जाता है) और जीन के बीच के क्षेत्रों में आनुवंशिक भिन्नताएं शामिल हैं।

महत्वपूर्ण बात यह है कि उन्होंने संक्रमित जीन में बड़ी संख्या में आनुवंशिक विविधताएं पाई जो पशु कोशिकाओं से जुड़ने, प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया से बचने और कुशलतापूर्वक अपने आप को दोगुना करने के लिए महत्वपूर्ण हैं। इससे हो सकता है वायरस की बीमारी पैदा करने की क्षमता बढ़ गई।

अध्ययन में शोधकर्ता ने कहा मवेशियों में उन क्षेत्रों में अधिक गंभीर लक्षण विकसित हुए जहां अत्यधिक विविध नस्लें थी। इससे पता चलता है कि आनुवंशिक विविधताएं विषाणु को बढ़ा सकती हैं।

इस तरह की जानकारी पशुधन और आजीविका को खतरे में डालने वाली उभरती संक्रामक बीमारियों से निपटने के लिए बेहतर जांच, टीके और हस्तक्षेप का मार्ग प्रशस्त कर सकती है। शोध टीम ने महामारी के दौरान कोविड​​-19 पर और हाल ही में रेबीज वायरस पर इसी तरह के अध्ययन किए हैं।

अध्ययन के मुताबिक, जीनोमिक आंकड़े आणविक हॉटस्पॉट और लक्ष्य के लिए आनुवंशिक विविधताओं को प्रकट करके वैक्सीन विकास के लिए अहम साबित होगा। यह राष्ट्रीय स्तर पर भारत के प्रकोप के दौरान एलएसडीवी के जीनोमिक परिदृश्य को चित्रित करने वाला पहला मामला है।

अध्ययन में कहा गया है कि  यह वन हेल्थ दृष्टिकोण का एक उदाहरण प्रस्तुत करता है जिसमें आणविक जीव विज्ञानी, कम्प्यूटेशनल विशेषज्ञ और पशु चिकित्सा डॉक्टरों सहित अलग-अलग विषयों की टीमें राष्ट्रीय प्रासंगिकता के मुद्दों को हल करने के लिए एक साथ आती हैं।

अध्ययन में शोधकर्ता ने इस बात पर भी जोर दिया कि देश भर में वेरिएंट का पता लगाने के लिए पशु चिकित्सा विशेषज्ञों और कई वैज्ञानिक संस्थानों के बीच सहयोग बहुत महत्वपूर्ण था। अध्ययन के हवाले से शोधकर्ता ने यह भी बताया कि उन्होंने पशु चिकित्सकों से बहुत कुछ सीखा। वे स्थानीय ज्ञान को समझते हैं और बीमारी के बारे में उनकी धारणा बहुत महत्वपूर्ण थी।

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