जलवायु परिवर्तन से खतरे में हिमालयी जड़ी-बूटियां

पारंपरिक चिकित्सा पद्धति से जुड़ी ये औषधियां भी जलवायु परिवर्तन की शिकार हो रही हैं

By Varsha Singh
Published: Monday 18 November 2019
जलवायु परिवर्तन की वजह से हिमालयी जड़ी बूटी के अस्तित्व पर खतरा मंडरा रहा है। फोटो: वर्षा सिंह

हिमालय के कम तापमान वाले क्षेत्र जड़ी-बूटियों के लिए भी जाने जाते हैं। जलवायु परिवर्तन का असर इन क्षेत्रों में पाये जाने वाली जड़ी-बूटियों, औषधीय पौधों पर भी पड़ रहा है। पौड़ी-गढ़वाल में वैज्ञानिकों ने अपने शोध में पाया कि कुछ औषधीय पौधे विलुप्त होने के कगार पर आ गए हैं, तो कई की तासीर बदल गई है। पारंपरिक चिकित्सा पद्धति से जुड़ी ये औषधियां भी जलवायु परिवर्तन की शिकार हो रही हैं।

जीबी पंत इंस्टीट्यूट ऑफ हिमालयन इनवायरमेंट एंड सस्टेनेबल डेवलपमेंट के वैज्ञानिक डॉ आरके मैखुरी ने वर्ष 2007 से 2014 के बीच अपने सहयोगियों के साथ उत्तराखंड के पांच हिमालयी जिलों रुद्रप्रयाग, उत्तरकाशी, चमोली, बागेश्वर और पिथौरागढ़ में अध्ययन किया और मौसम में आ रहे उतार-चढ़ाव से औषधीय पौधों पर हो रहे असर को समझने की कोशिश की। ऊंचाई वाले क्षेत्र में पाए जाने वाले औषधीय पौधों के जीवन-चक्र, संख्या, समय से पहले फूल खिलने जैसे बदलाव तो आए ही हैं। कुछ पौधे समय के साथ खत्म भी हो रहे हैं।

रुद्रप्रयाग के त्रिजुगीनारायण में वैद्य रघुनाथ गैरोला बताते हैं कि अब उन्होंने अपने खेतों में औषधीय पौधे उगाने ही बंद कर दिए। वह बताते हैं कि पहले उनके क्षेत्र में बर्फ़ अधिक गिरती थी, इसलिए कम तापमान में जो औषधीय पौधे आसानी से उग जाते थे, मौसम में गर्माहट आने के साथ उनके उगने-खिलने का चक्र बदल गया। वैद्य गैरोला बताते हैं कि कुटकी और कूट जैसे पौधे तो पूरी तरह खत्म हो रहे हैं। इसी तरह वन-ककड़ी भी अब बहुत कम हो रही है। वन ककड़ी फेफड़े की बीमारी में बेहद कारगर होती है। बर्फ़ न पड़ने पर वन ककड़ी जल्दी फूल दे देती है, जिसे पक्षी चट कर जाते हैं। जंगली जानवर इनकी जड़ों को खोद कर खा जाते हैं।

इसी तरह अपने लाल फूल के लिए बेहद लोकप्रिय बुरांश भी समय से पहले खिलने लग गया है। गर्मी बढ़ने से इसकी तासीर पर भी फर्क आ गया है। रघुनाथ गैरोला के मुताबाकि आयुर्वेदिक परंपरा में पौधों के खिलने के समय से बहुत फर्क पड़ता है। उन्हें तोड़ने का समय भी नियत होता है। बुरांश का इस्तेमाल ह्रदय समेत कई बीमारियों में होता है। वे धनरा (चंद्ररुपी या चंद्रा भी कहा जाता है) का उदाहरण भी देते हैं। जिसका इस्तेमाल मधुमेह की बीमारी में इलाज के लिए होता है। जलवायु परिवर्तन ने इनके औषधीय तत्वों को भी कमजोर कर दिया है।

वैद्य गैरोला अपने बगीचे के सेब के पेड़ों के बारे में बताते हैं कि पहले यहां सेब मोटे बकल वाले होते थे, जो कम खराब होते थे। अब उनकी परत पतली हो रही है, साथ ही सेब आकार में भी सिकुड़ रहे हैं। 

श्रीनगर गढ़वाल में चौथी पीढ़ी के पारंपरिक वैद्य रामकृष्ण पोखरियाल अपने खेतों में 40-45 किस्म की जड़ी-बूटियां उगाते हैं। वह कहते हैं कि पहले उनके क्षेत्र में रिस्वक और जीवक नाम की औषधियां खूब होती थीं। लेकिन तापमान में इजाफा होने के चलते ये विलुप्त हो रही हैं। पोखरियाल बताते हैं कि बांज के वृक्ष पर लगने वाली झूला घास, जिसे लाइकेन भी कहते हैं, पिछले 10-15 वर्षों से नहीं हो रही। इसकी वजह बर्फ़बारी का कम होना है। जिसके चलते बर्फ़ ठहरती नहीं। अपनी स्मृतियों को उकेरते हुए वैद्य पोखरियाल कहते हैं कि वर्ष 70-71 में यहां छह फीट तक बर्फ़ गिरती थी, जो अब 4-5 इंच तक सिमट गई है। समुद्र तल से करीब 1800 फीट की ऊंचाई पर तापमान 40 डिग्री के नजदीक पहुंचने लगा है। वह भी बहुत से औषधीय पौधों के खत्म होने के पीछे जलवायु परिवर्तन को जिम्मेदार मानते हैं।

वैज्ञानिक डॉ आरके मैखुरी कहते हैं कि हिमालय के ऊंचाई वाले क्षेत्रों में जलवायु परिवर्तन के चलते औषधीय और सुगंधित पौधों की संख्या प्रभावित हुई। औषधीय पौधों की जगह भी प्रभावित हुई है। जबकि कुछ पौधे ऊंचाई की और शिफ्ट हो गए हैं। वह ये भी जोड़ते हैं कि इन औषधीय पौधों की जानकारी भी वहां रह रहे लोगों तक सीमित है।  बाहर के लोगों को इसके बारे में बहुत कम पता है। जबकि आयुर्वेद की पारंपरिक चिकित्सा पद्धति को बचाए रखने के लिए जितना इन औषधीय पौधों को बचाना जरूरी है, उतना ही इनके बारे में जानकारी इकट्ठा करना। ये जड़ी-बूटियां जैव-विविधता के संरक्षण के लिए तो जरूरी हैं ही, हिमालयी क्षेत्र में रह रहे लोगों की आजीविका का जरिया भी बन सकती हैं। 

आयुर्वेद में शरीर की कई बीमारियों का इलाज करने के सक्षम ऐसे औषधीय पौधे जिन पर विलुप्त होने का खतरा मंडरा रहा है, उनमें शामिल हैं –

Aconitum heterophyllum (अतीश) (पेट दर्द की औषधि),

Angelica glauca (चोरू) (पाचन समस्या की औषधि),

Arnebia benthami (बालछड़ी) (गंजापन दूर करने की औषधि),

Asparagus racemosus (झिरणी) (मिर्गी में इस्तेमाल होने वाली औषधि),

Dactylorrhiza hatagirea (हत्ताजड़ी) (चोट या जख्म के इलाज),

Delphinium denudatum  (जदवार) (सांप के काटने पर),

Nardostachys grandiflora (जटामाफी) (गठिया के इलाज के लिए),

Paeonia emodi (धांधरू) (डायरिया),

Picrorhiza kurrooa (कुटकी) (पीलिया के इलाज के लिए),

Podophyllum hexandrum (वन ककड़ी) (कैंसर के लिए),

Polygonatum verticillatum (सालम मिश्री) (ल्यूकोरिया),

Saussurea costus (कूट) (खुजली),

Saussurea obvallata (ब्रह्म कमल) (ह्रदय से जुड़ी परेशानी),

Selinum tenuifolium (भूतकेशी)  (खांसी),

Swertia chirayita Roxb (चिराइता) (डायबेटीज)।

 

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