भारत में जलवायु परिवर्तन, मॉनसून, बाढ़ और कुपोषण का है गहरा नाता: अध्ययन

हाल के वर्षों में कुपोषण की रोकथाम के लिए भारत में कुछ प्रगति हुई है। पर उसकी रफ़्तार अभी भी अन्य विकासशील देशों की तुलना में काफी धीमी है। ऊपर से जलवायु में आ रहा बदलाव स्थिति को और बदतर बना रह

By Lalit Maurya
Published: Wednesday 15 April 2020

क्लाइमेट चेंज भारत के लिए एक बड़ी समस्या है। जिसके चलते देश में बाढ़ और सूखा जैसी आपदाओं का आना आम बात होता जा रहा है। देश के किसी हिस्से में कभी बाढ़ आती है तो कभी दूसरे में सूखा पड़ रहा होता है। यह अर्थव्यवस्था को तो नुकसान पहुंचा ही रही है। साथ ही स्वास्थ्य के लिए भी एक बड़ा खतरा बनती जा रही हैं। यह आपदाएं बड़े स्तर पर जन-जीवन को प्रभावित करती हैं। जिनका सबसे ज्यादा असर बच्चों के स्वास्थ्य और विकास पर पड़ता है।

इस सन्दर्भ में हाल ही में इंटरनेशनल इंस्टिट्यूट ऑफ एप्लाइड सिस्टम एनालिसिस (आईआईएएसए) द्वारा एक शोध किया गया है जिससे पता चला है कि मानसून के मौसम में आने वाली बाढ़ पांच वर्ष या उससे कम आयु के बच्चों के लिए एक बड़ा खतरा हैं। जोकि उनके स्वास्थ्य को बुरी तरह प्रभावित करती है। यही कारण है कि बाढ़ ग्रस्त क्षेत्रों में बच्चों के स्वास्थ्य पर अधिक ध्यान देने की जरुरत है। आंकड़ें दिखाते हैं कि भारत में करीब 50 फीसदी बच्चे कुपोषित हैं| कुपोषण की यह समस्या सीधे तौर पर खाद्य सुरक्षा से जुडी हुई है।  

पब्लिक हेल्थ फाउंडेशन ऑफ इंडिया, आईसीएमआर और नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ न्यूट्रेशन द्वारा भारत के सभी राज्यों में कुपोषण की स्थिति पर एक रिपोर्ट जारी की थी । जिसके अनुसार वर्ष 2017 में देश में कम वजन वाले बच्चों के जन्म की दर 21.4 फीसदी रही। जबकि जिन बच्चों का विकास नहीं हो रहा है, उनकी संख्या 39.3 फीसदी, जल्दी थक जाने वाले बच्चों की संख्या 15.7 फीसदी, कम वजनी बच्चों की संख्या 32.7 फीसदी, अनीमिया पीड़ित बच्चों की संख्या 59.7 फीसदी और अपनी आयु से अधिक वजनी बच्चों की संख्या 11.5 फीसदी पाई गई थी। शोध के अनुसार इनसे निपटने के लिए बाढ़ ग्रस्त क्षेत्रों में अधिक मदद देने की जरुरत है। जिससे गर्भवती महिलाओं और शिशुओं के स्वास्थ्य पर अधिक ध्यान दिया जा सके।

बाढ़ और कुपोषण के बीच क्या है सम्बन्ध

इस अध्यन में पहली बार क्षेत्रीय स्तर पर जलवायु सम्बन्धी डेटा और राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण 2015-16 के आंकड़ों का विश्लेषण किया गया है। जिसमें यह जानने का प्रयास किया गया है कि क्या भारत के अलग-अलग हिस्सों में होने वाली भारी बारिश और बच्चों में होने वाले कुपोषण के बीच कोई सम्बन्ध है। इसके निष्कर्ष के अनुसार भारत के विभिन्न हिस्सों में भारी बारिश अलग-अलग प्रभाव डालती है। साथ ही अलग-अलग परिस्थितियों में इसका अलग प्रभाव पड़ता है।

शोधकर्ताओं के अनुसार जा बच्चा गर्भ में होता है या फिर उसकी आयु एक वर्ष से कम होती है तो ऐसे में भारी बारिश से बच्चे के कुपोषित होने का खतरा कहीं ज्यादा होता है। यह सीधे तौर पर भविष्य में उसके विकास पर असर डालती है। वहीं साफ-सफाई के आभाव में पलने वाले बच्चों पर भारी मानसूनी बारिश के कारण स्टंटिंग का खतरा अधिक रहता है। गौरतलब है कि स्टंटिंग से तात्पर्य बच्चों में कुपोषण की उस अवस्था से है जब उसकी लम्बाई आयु के अनुपात में नहीं बढ़ पाती है। इसके साथ ही स्वच्छता के आभाव में संक्रमण और दस्त जैसी बीमारियों का होना स्वाभाविक ही है जो बच्चों में कुपोषण का कारण बनती हैं।

भारत के लिए एक बड़ी समस्या है कुपोषण

इस अध्ययन की प्रमुख शोधकर्ता अन्ना दिमित्रोवा न बताया कि "हालांकि भारत में कुपोषण की रोकथाम के लिए कुछ प्रगति हुई है। पर अभी भी वो अन्य विकासशील देशों की तुलना में काफी धीमी है। ऊपर से जलवायु में आ रहा बदलाव इसे और मुश्किल बना रहा है। भारत में आधे से अधिक घरों में स्वच्छता का आभाव है। जिसके कारण दस्त जैसे संक्रामक रोगों का खतरा हमेशा बना रहता है। ऐसे में भारी बारिश के दिनों में यह खतरा और बढ़ जाता है। जिसके कारण बच्चों के स्वास्थ्य पर अधिक असर पड़ता है और कुपोषण का खतरा बना रहता है।"

इस अध्ययन के सह लेखक और इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ दलित स्टडीज से जुड़े शोधकर्ता जयंत बोरा न बताया कि उष्णकटिबंधीय और उपोष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में जहां आद्रता अधिक होती है, वहां मानसून के दौरान भारी बारिश होती है। और बाढ़ आने की सम्भावना अधिक होती है। परिणामस्वरूप यहां फसलें नष्ट हो जाती हैं और पानी दूषित हो जाता है। जिससे बच्चों में कुपोषण और डायरिया जैसी बीमारियों का खतरा बढ़ जाता है।

वहीं इसके विपरीत उत्तरी भारत के शुष्क पर्वतीय क्षेत्रों में जहां भारी बारिश होती है, तुलनात्मक रूप से कुपोषण और डायरिया से होने वाली बीमारियों का खतरा कम होता है। उनके अनुसार ऐसा इसलिए होता हैं क्योंकि इन क्षेत्रों में भारी बारिश के कारण पैदावार बढ़ जाती है। साथ ही यहां साफ पानी की उपलब्धता भी बढ़ जाती है।

शोधकर्ताओं के अनुसार इस शोध के परिणाम नीतिनिर्माताओं के लिए मददगार हो सकते हैं। जिसकी मदद से वे बच्चों के लिए बाढ़ के संभावित खतरों को बेहतर तरीके से समझ सकते हैं और उससे निपटने के लिए पहले ही तैयारी कर सकते हैं। उन्होंने स्वास्थ्य के दृष्टिकोण से गर्भवती महिलाओं और शिशुओं पर अधिक ध्यान देने की बात कही है।

इसमें स्वास्थ्य सुविधाओं की बेहतर व्यवस्था, टीकाकरण, साफ पानी और स्वच्छता जैसी बुनियादी जरूरतों को ध्यान में रखने की बात कही है। इसके अलावा शोधकर्ताओं न जलवायु परिवर्तन से जुड़े खतरों को सीमित करना, उनसे बचाव और निपटने के लिए चेतावनी प्रणाली जैसे उपायों पर जोर देने को कहा है। उनके अनुसार यह बच्चे ही हमारा भविष्य हैं यदि वो स्वस्थ और सुरक्षित होंगे तो देश का भविष्य भी सुरक्षित रहेगा।

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