भाग 2 : यहां जानिए कॉप 28 के अहम फैसले और देशों की राय

कॉप 28 के पहले दिन 30 नवंबर को संयुक्त अरब अमीरात (यूएई) की अध्यक्षता ने हानि और क्षति निधि (लॉस एंड डैमेज फंड - एलडीएफ) को चालू करके एक बड़ी जीत हासिल की।

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ग्लोबल स्टॉकटेक वर्ष 2015 में पेरिस समझौते के तहत स्थापित किया गया तंत्र था, जिसका काम पेरिस समझौते के बिंदुओं और तक्ष्यों के अमल में लाए जाने की प्रगति की समीक्षा करना है।  इस कॉप में इसका पहला मसौदा 1  दिसंबर, 2023 को आया तब उस पर कई देशों की राय अलग-अलग थीं। इसलिए देशों को आपस में अनौपचारिक चर्चा करनी पड़ी, ताकि मतभेद सुलझाए जाएं और एक व्यापक सुझाव पेश किया जा सके।

5 दिसंबर को आए दूसरे मसौदे में कुछ पैराग्राफ नो-टेक्स्ट यानी बिना-संदर्भ के छोड़े गए थे। इसका मतलब है कि अगर किसी पैराग्राफ पर सहमति नहीं बनती तो उसे पूरी तरह हटा दिया जाएगा। कई महत्वपूर्ण पैराग्राफ जैसे “जीवाश्म ईंधन धीरे-धीरे बंद करने” से जुड़ा पैराग्राफ 35 भी नो-टेक्स्ट विकल्प थे। भारत ने दो टूक कहा कि वह इसे पूरी तरह से हटा देना चाहता है, जैसा कि सऊदी अरब ने “समान विचार के विकासशील देशों” यानी लाइक-माइंडेड डिवेलपिंग कंट्रीज (एलएमडीसी) की ओर से किया। यूरोपीय संघ ने इस पैराग्राफ का स्वागत किया।

तमाम अलग-अलग राय मिलने के बाद, सह-अध्यक्षों ने 8 दिसंबर को एक तीसरा मसौदा दिया, जिसे बातचीत करने वालों के सुझावों के साथ प्रेसीडेंसी को आगे बढ़ाया गया।

11 दिसंबर को प्रेसीडेंसी की तरफ से जारी चौथे मसौदे ने हंगामा खड़ा कर दिया। इसमें जीवाश्म ईंधन को धीरे-धीरे बंद करने को विकल्पों के एक मेनू के तौर पर पेश किया गया, जिसे देश अपने हिसाब से चुन सकते हैं। इसकी छोटे द्वीपसमूह देशों के गठबंधन, जर्मनी और यूरोपीय संघ ने आलोचना की। पोलिटिको समेत तमाम मीडिया रिपोर्टों ने तुरंत भारत और चीन सहित विकासशील देशों को कमजोर भाषा के लिए जिम्मेदार ठहरा दिया। कई विकसित देशों ने पूरी की पूरी बातचीत के दौरान जीवाश्म ईंधन पैराग्राफ का जिक्र ही नहीं किया (देखें, “दो पाटों के बीच”)।  वहीं, कुछ देशों ने जीवाश्म ईंधन सब्सिडी और कोयले पर मुख्य तौर पर फोकस किया। कॉप सम्मेलन में आखिरी दिन से एक दिन पहले हुआ हंगामा एक रणनीति लगती है, जिसका मकसद ग्लोबल साउथ देशों के पीछे छिपना और अमेरिका जैसे देशों के लिए तेल उत्पादन जारी रखने के अधिकार को बचाना लगता है।

बढ़ते विरोध के बाद कॉप 28 की प्रेसीडेंसी ने चर्चा की और 13 दिसंबर के शुरुआती घंटों में ग्लोबल स्टॉकटेक का फाइनल वर्जन अपलोड किया गया। ये सभी देशों को उत्सर्जन कम करने के वैश्विक प्रयासों में शामिल होने के लिए आह्वान करता है। ये अब जीवाश्म ईंधन कम करने को सिर्फ एक विकल्प नहीं, बल्कि सुधार के लिए जरूरी कदम मानता है। पहली बार, जीवाश्म ईंधन और उत्सर्जन कम करने में उसकी भूमिका का जिक्र भी किया गया है। लेकिन पूरे टेक्स्ट में सिर्फ कोयला का स्पष्ट उल्लेख है, तेल और गैस का नहीं। पिछले संस्करण में “जीवाश्म ईंधन” के उत्पादन और इस्तेमाल को खत्म करने का ज़ोरदार शब्द था जो पूरी तरह स्पष्ट था। फाइनल वर्जन में जीवाश्म ईंधन के “फेज आउट” (खत्म करने) के बजाय उसकी जगह पर “ट्रांजिशनिंग अवे” शब्द का इस्तेमाल किया गया। यानी जीवाश्म ईंधन को खत्म करने के बजाय रिन्यूएबल एनर्जी बढ़ाने की बात कही गई है जो धीरे-धीरे जीवाश्म ईंधन की जगह लेंगी। आगे के पैराग्राफ में “ट्रांजिशनल फ्यूल्स” की भूमिका का भी जिक्र है, जो प्राकृतिक गैस की ओर इशारा करता है। साथ ही उत्पादन का कोई संदर्भ नहीं होने की वजह से देशों के लिए ईंधन का उत्पादन जारी रखने का रास्ता खुला रहता है।

जी 77, चीन और कम विकसित देशों ने विकासशील देशों की बढ़ती जरूरतों को पहचानने और अनुकूलन वित्त (अडैप्टेशन फाइनेंस) को दोगुना करने को पहला कदम बताने की मांग की थी। हालांकि, मसौदे के पहले चार संस्करणों में यह अडैप्टेशन सेक्शन में था, लेकिन अंतिम संस्करण में इसे फाइनेंस सेक्शन में डाल दिया गया, जो विकसित देशों की पुरानी मांग थी। विकसित देशों का कहना है कि सभी वित्तीय संदर्भों को फाइनेंस सेक्शन में शामिल करना ही समझदारी है। साथ ही साथ, वे हर सेक्शन में क्षमता बढ़ाने के संदर्भों को भी शामिल करना चाहते हैं। ऐसा लगता है कि वे ऐसे हर सेक्शन में तभी सहज महसूस करते हैं जब ऐसे संदर्भ ग्लोबल नॉर्थ की फाइनेंस जैसी जिम्मेदारी की ओर इशारा न करें। विकसित देशों से वित्त तक पहुंच पर निर्भर एनडीसी (राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान) उपलब्धियों के विशिष्ट संदर्भ अमेरिका की मांग के बाद हटा दिए गए। फिर भी अधिक रियायती, गैर-ऋण जलवायु वित्त की जरूरत को स्वीकार करने वाला एक पैराग्राफ है, जो ग्लोबल साउथ के लिए महत्वपूर्ण है।

कुल मिलाकर, ग्लोबल स्टॉकटेक में कुछ अच्छे बदलाव देखने को मिले हैं, लेकिन कुछ महत्वपूर्ण सवाल भी स्पष्ट तौर पर बचे हैं। जीवाश्म ईंधन बदलाव को न्यायसंगत ढंग से लागू करने में सबसे बड़ा सवाल ये है कि विकसित और विकासशील देशों के लिए अलग-अलग समयसीमा क्या हैं? विकास के लिए जीवाश्म ईंधन का उपयोग करने का अधिकार अभी भी किसके पास है और किसने कार्बन बजट का अपने उचित हिस्से से ज्यादा इस्तेमाल किया है? इन सवालों का जवाब दिए बिना, एक निष्पक्ष और न्यायसंगत ट्रांजिशन को हासिल करना मुश्किल होगा।

 

बड़ी जीत 

कॉप 28 के पहले दिन 30 नवंबर को संयुक्त अरब अमीरात (यूएई) की अध्यक्षता ने हानि और क्षति निधि (लॉस एंड डैमेज फंड - एलडीएफ) को चालू करके एक बड़ी जीत हासिल की। देशों ने तमाम विकसित देशों और यहां तक कि यूएई जैसे विकासशील देशों की तरफ से फंड के पूंजीकरण के लिए लगभग 65.59 करोड़ अमेरिकी डॉलर के वित्त पोषण का स्वागत भी किया। पहले दिन एलडीएफ से जुड़े फैसले के पाठ को अपनाना अध्यक्षता के लिए आसान नहीं था क्योंकि संयुक्त राज्य अमेरिका 3-4 नवंबर के बीच अबू धाबी में ट्रांजिशनल कमेटी की पांचवी बैठक (टीसी5) में एलडीएफ सिफारिशों के दस्तावेज पर आम सहमति से पीछे हट गया था। उनका मुख्य मुद्दा यह था कि उन्हें दस्तावेज की भाषा से लगा कि सिफारिशों में केवल विकसित देशों को एलडीएफ में भुगतान करने के दायित्व के बारे में कहा गया है।

 

लॉस एंड डैमेज फंड

ट्रांजिशन कमेटी (टीसी) की स्थापना मिस्र के शर्म अल-शेख में कॉप 27 में अपनाए गए एलडीएफ के डिसीजन टेक्स्ट के जरिए की गई थी, ताकि फंड के शासन, पात्रता, पहुंच, स्रोतों और पैमाने के बारे में विवरण तैयार किया जा सके। विभिन्न वार्ता समूहों के 14 विकासशील देशों के सदस्यों और 10 विकसित देशों के सदस्यों वाली टीसी की मार्च से अक्टूबर के बीच 4 निर्धारित बैठकें हुईं लेकिन आम सहमति नहीं बन पाई। फिर एक पांचवी टीसी बैठक की व्यवस्था करनी पड़ी। मुख्य विवाद अन्य विकसित देशों के समर्थन से विश्व बैंक में वित्तीय मध्यस्थ फंड यानी फाइनेंशियल इंटरमीडियरी फंड (एफआईएफ) के रूप में एलडीएफ की मेजबानी के लिए अमेरिकी प्रस्ताव था। सभी विकासशील देशों को एलडीएफ को विश्व बैंक में रखने पर आपत्ति थी क्योंकि उसका विकासशील देशों को धन देने का अच्छा ट्रैक रिकॉर्ड नहीं है, खासकर वित्त तक पहुंच की शर्तों के संदर्भ में। एक और मुद्दा विश्व बैंक के होस्टिंग शुल्क के साथ था जो 17-24 प्रतिशत जितना अधिक हो सकता है। यह वह शुल्क है जो विश्व बैंक एलडीएफ के सचिवालय की मेजबानी के लिए लेगा। वे इस बात से भी चिंतित थे कि संयुक्त राज्य अमेरिका का विश्व बैंक पर कितना नियंत्रण है।

आखिरकार टीसी5 में विकासशील देशों ने एक बड़ा समझौता किया जिसमें 4 साल की अंतरिम अवधि के लिए विश्व बैंक को एलडीएफ की मेजबानी करने दी गई। लेकिन बैंक पर पांच अहम शर्तें लगाईं। पहली शर्त है फंड के बोर्ड को अपने कार्यकारी निदेशक के चयन में पूर्ण स्वायत्तता सुनिश्चित करना और 2015 पेरिस समझौते के पक्षकारों के मार्गदर्शन के आधार पर अपनी पात्रता के मानदंड लागू करना।  वहीं, दूसरी  शर्त रखी गई कि जो देश विश्व बैंक के सदस्य नहीं हैं, उनकी भी फंड तक पहुंच हो। तीसरी शर्त यह रही कि विकासशील देशों के लिए फंड तक सीधी पहुंच, यहां तक कि उप-राष्ट्रीय और क्षेत्रीय इकाइयों के माध्यम से और समुदायों के लिए छोटे अनुदान के माध्यम से भी पहुंच बने। चौथी शर्त रखी गई कि अगर जरूरत पड़े तब विश्व बैंक की नीतियों के ऊपर एलडीएफ अपनी नीति को तरजीह देगा। पांचवीं शर्त है कि अगर विश्व बैंक चार साल में किसी भी बिंदु पर या चार साल बाद समीक्षा के बाद इन शर्तों से सहमत नहीं हुआ या उन्हें पूरा नहीं करता है तो एलडीएफ के सचिवालय को स्थानांतरित कर दिया जाएगा और उसे संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन फ्रेमवर्क कन्वेंशन के तहत स्वतंत्र बना दिया जाएगा। लेकिन कई विशेषज्ञों को लगता है कि कहना तो आसान है, करना मुश्किल है।

एक और विवाद सभी विकासशील देशों की एलडीएफ तक पहुंच की पात्रता के आसपास था। फ्रांस जैसे कई विकसित देशों ने प्रस्ताव दिया था कि फंड को अल्प विकसित देशों और छोटे द्वीपीय विकासशील देशों तक सीमित किया जाना चाहिए, लेकिन अंत में सभी विकासशील देशों को फंड तक पहुंच के लिए पात्र बनाया गया।

कई विशेषज्ञों का मानना है कि एलडीएफ का वर्तमान फंडिंग कहीं भी उन जरूरतमंद विकासशील देशों की जरूरतों के आस-पास नहीं है, जिन्हें हर साल नुकसान और क्षति का सामना करना पड़ता है। कुछ अनुमानों के अनुसार, यह राशि 400 अरब अमेरिकी डॉलर तक हो सकती है। फंड में और अधिक धन की आवश्यकता है, जबकि अमेरिका जैसे कुछ विकसित देशों का योगदान बहुत ही कम है। एलडीएफ में अमेरिका का योगदान सिर्फ 1.75 करोड़ डॉलर है।

 

प्रतिबद्धता की जगह प्रयास

दुबई में हुए कॉप 28 के दौरान जलवायु परिवर्तन के अनुकूलन के लिए वैश्विक लक्ष्य (जीजीए) के फ्रेमवर्क को अपनाया गया। यह लक्ष्य 2015 के पेरिस समझौते के तहत तय किया गया था ताकि सभी देश जलवायु परिवर्तन के असर से निपटने के लिए उठाए गए कदमों की प्रगति का आकलन कर सकें। इस सम्मेलन में जीजीए फ्रेमवर्क को मंजूर किया ही जाना था। विकासशील देशों के कुछ समूहों, जैसे अफ्रीकी वार्ताकार समूह (एजीएन) के लिए जीजीए पर एक मजबूत परिणाम हर हाल में जरूरी था। एजीएन अफ्रीका के सभी 54 देशों का प्रतिनिधित्व करता है।  कॉप में यह मंजूर किया गया कि जीजीए के बड़े लक्ष्य को हासिल करने के लिए सभी देश मिलकर काम करेंगे। साथ ही जलवायु परिवर्तन के अनुकूलन से जुड़े विषयगत लक्ष्यों को 2030 तक हासिल करने का प्रयास होगा। कॉप के मसौदे में अनुकूलन फाइनेंस अंतराल को कम करने पर भाषा को हल्का करते हुए “प्रतिबद्ध” की जगह “प्रयास” लिख दिया गया। विषयगत लक्ष्यों को प्राप्त करने की समय सीमा जो पहले हटा दी गई थी, उसे भी शामिल कर लिया गया और 2030 की समयसीमा तय कर दी गई। वहीं, यह तय हुआ कि अनुकूलन के लिए उठाए जाने वाले कदमों का एक क्रम जैसे जोखिम आंकलन, योजना बनाना, क्रियान्वयन और निगरानी पर काम होगा। अनुकूलन फाइनेंस गैप कम करने की कोशिश होगी। यानी विकसित देश विकासशील देशों को उतना पैसा दें ताकि वे जलवायु परिवर्तन से बेहतर ढंग से निपट सकें। इसके अलावा स्थानीय समुदायों और उनके ज्ञान का उपयोग किया जाएगा। जीजीए के तहत यह नहीं तय हुआ कि कितना पैसा और क्या संसाधन चाहिए। विकसित देशों को कितना पैसा देना चाहिए, इस पर सहमति नहीं हुई। उत्तरदायित्वों और संबंधित क्षमताओं यानी डिफरेंशिएटेड रिस्पॉन्सिबिलिटीज एंड रिस्पेक्टिव कैपैबिलिटीज (सीबीडीआर-आरसी) पर भी बात नहीं बनी।

 

 यहां जानिए किस देश समूह ने जीवाश्म ईंधन को लेकर क्या कहा  

एलएमडीसी (समान विचार वाले विकासशील देश): पैराग्राफ 35 पर अपनी स्थिति समझाने का झंझट नहीं लेंगे, यह तो पहले ही साफ हो चुका है।

एजीएन (अफ्रीका समूह)- जीवाश्म ईंधन पर इस्तेमाल की गई भाषा में ऐतिहासिक बोझ पर विचार किया जाना चाहिए।

एआईएलसी (लैटिन अमेरिका और कैरेबियन देश)- जीवाश्म ईंधन के न्यायपूर्ण और समान रूप से बंद करने की प्रतिबद्धता चाहते हैं।

ईयू (यूरोपीय संघ) - जीवाश्म ईंधन को धीरे-धीरे कम करने/बंद करने के जिक्र का स्वागत किया। उन्होंने कहा कि टेक्स्ट में पहले से मौजूद कोयला ऊर्जा और प्रभावहीन सब्सिडी पर ऐसी ही भाषा नहीं हो सकती।

कनाडा-  कोयला बंद करने पर बहुत ज्यादा जोर दिया।

भारत - पूरे पैराग्राफ 35 को  “नो टेक्स्ट” विकल्प में डालने यानी पूरी तरह से हटाने का सुझाव दिया। उन्होंने कहा कि "नीति न बताने" के निर्देश का सम्मान किया जाए।

चीन - पैराग्राफ 35 को हटाने के लिए कहा।

इराक- जीवाश्म ईंधन और जीवाश्म ईंधन सब्सिडी को बंद करना या कम करना कन्वेंशन के विपरीत है।

पाकिस्तान- कोयला और प्रभावहीन सब्सिडी बंद करने का ज़िक्र कॉप के अनुरूप नहीं है। उन्होंने सहमत भाषा से तनिक भी आगे न बढ़ने की गुजारिश की।

रूस- जीवाश्म ईंधन को बंद करने का उन देशों पर पड़ने वाले असर को प्रमुखता से बताने को कहा जो जीवाश्म ईंधन से कमाई करते हैं

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