अच्छी खबर यह है कि जलवायु परिवर्तन एक बार फिर से मुख्य एजेंडा बन चुका है। बुरी खबर यह है कि हम गलत चीजों पर चर्चा कर रहे हैं और एक अच्छा मौका फिर से जाया करने जा रहे हैं।
अप्रैल में जलवायु परिवर्तन के विषय में काफी गहमा-गहमी का माहौल रहा है। नहीं, मैं जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए उठाए गए कदमों की बात नहीं कर रही हूं। इस विषय में अब तक केवल बहसों का दौर भर चला है। भारत को नेट-जीरो लक्ष्य घोषित करते हुए कैसा रुख अख्तियार करना चाहिए, इसे लेकर भी काफी कुछ लिखा गया है। बंद दरवाजों के पीछे इन मुद्दों पर काफी विचार विमर्श हुआ है।
अमेरिकी जलवायु राजदूत जॉन केरी 22 एवं 23 अप्रैल को राष्ट्रपति जो बाइडेन की अध्यक्षता में हुई क्लाइमेट लीडर्स समिट को ध्यान में रखते हुए दिल्ली में थे। उनका लक्ष्य हमें कुछ ठोस कदम उठाने के लिए प्रेरित करना था। वह चाहते थे कि जब सब मिलें तो कोई बड़ी बात बने, कोई फैसला लिया जाए।
अच्छी खबर यह है कि जलवायु परिवर्तन एक बार फिर से मुख्य एजेंडा बन चुका है। बुरी खबर यह है कि हम गलत चीजों पर चर्चा कर रहे हैं। हम जलवायु परिवर्तन के खिलाफ की जाने वाली कार्रवाई में महत्वाकांक्षा एवं समानता की आवश्यकता को समझने के मौके को एक बार फिर जाया करने की राह पर हैं।
दिल्ली में क्या हुआ, उस पर विचार करें। पेरिस समझौते (इस दशक में ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को कम करने के लिए विभिन्न देशों द्वारा मिलकर निर्धारित किया गया स्वैछिक लक्ष्य) को पूरा करने के लिए क्या किया गया है या नहीं किया गया है, इसका जायजा लेना इस बैठक का उद्देश्य नहीं था।
पेरिस समझौते में निर्धारित लक्ष्य कितने असमान एवं बेपटरी हैं, इस पर विचार भी मीटिंग का एजेंडा नहीं था। जलवायु परिवर्तन की तबाही से बचने के लिए अपने उत्सर्जन में भारी कटौती करने के लिए विभिन्न देश किन एमिशन पाथवेज का इस्तेमाल कर रहे हैं , इसे लेकर भी कोई बात नहीं हुई। दरअसल किसी भी जरूरी मुद्दे पर बहस हुई ही नहीं।
इसके उलट, नेट जीरो पर हुई अर्थहीन चर्चा ने इस मीटिंग को मुद्दे से भटका दिया था। यह लगभग मानी हुई बात है कि इस समिट में जो बाइडेन अपने देश के लिए वर्ष 2050 तक का नेट-जीरो लक्ष्य घोषित करने वाले हैं। सवाल यह था कि क्या भारत को इस नेट-जीरो डेट का पालन करना चाहिए? क्या हम ऐसा कर पाने की स्थिति में हैं और अगर हां तो क्या हम ऐसा करेंगे भी?
आखिर मैं क्यों कह रही हूं कि यह अर्थहीन है? सबसे पहले, यह स्पष्ट कर दूं कि देशों द्वारा घोषित किए गए नेट-शून्य लक्ष्य कोई बड़ी चीज नहीं है। यह केवल एक महत्वाकांक्षी विचार भर है जिसे फलीभूत करने की वे कोशिश करेंगे।
यह भव्य घोषणाएं करने वाले अधिकांश देशों के पास वर्ष 2050 (चीन के लिए 2060) तक नेट जीरो लक्ष्य हासिल करने के लिए कोई योजना नहीं है।अतः इसका कोई अर्थ नहीं रह जाता। यह दरअसल लक्ष्य तक पहुंचने का विचार भर है, वह भी इस उम्मीद के साथ कि तब तक कुछ ऐसी “डिसरप्टिव” तकनीकें तैयार हो जाएंगी जो इस क्षेत्र में हमारी मदद कर सकें।
दूसरा, नेट जीरो का विचार ही अपने आप में त्रुटिपूर्ण हैं। इसका अर्थ है कि देश उत्सर्जन जारी तो रखेंगे लेकिन उसके प्रबंधन की व्यवस्था भी करेंगे। यह व्यवस्था आखिर क्या होगी?
इसके दो तरीके हैं। एक, पेड़ लगाओ जो कार्बन डाईऑक्साइड को पुन: व्यवस्थित करेंगे जिसे हम दोबारा उत्सर्जित करते रहेंगे और दूसरा, कार्बन डाइऑक्साइड को धरती के अंदर जमा करने की कार्बन कैप्चर और स्टोरेज तकनीक। लेकिन इस दृष्टिकोण के बारे में अब भी कई अनुत्तरित प्रश्न हैं। “ट्री सोक” का अनुमान लगाना चुनौतीपूर्ण तो है ही, इसके अलावा भी नेगेटिव एमिशन नाम से जानी जाने वाली इस तकनीक में कई खामियां हैं। अतः कम से कम वर्तमान में इस तकनीक को हमारे एकमात्र औजार के रूप में घोषित करना एक घोटाले से अधिक कुछ नहीं है।
आप तर्क दे सकते हैं कि ये तथाकथित डिसरप्टिव तकनीकें कभी न कभी तो आएंगी ही इसलिए हमें इन्हें पूरी तरह से खारिज नहीं करना चाहिए। मैं इस बात से सहमत होती लेकिन अपने भविष्य की रक्षा के लिए ऐसे प्रायोगिक स्तर की तकनीकों पर आश्रित होना वर्तमान की चुनौतियों से हमारा ध्यान भटका सकता है। यह हमारी बातचीत का असली मुद्दा होना चाहिए। नेट-जीरो नहीं।
तीसरा, नेट-जीरो अपने आप में एक असमान लक्ष्य है। यह जलवायु परिवर्तन पर अंतर सरकारी पैनल (आईपीसीसी ) था जिसने कहा था कि कार्बन डाईऑक्साइड के वैश्विक शुद्ध मानव-निर्मित उत्सर्जन को 2030 तक 2010 के स्तर से 45 प्रतिशत तक गिराना होगा और 2050 तक नेट जीरो का लक्ष्य प्राप्त हो जाएगा।
इस तथ्य को देखते हुए कि पुरानी विकसित दुनिया और अब नए विकसित चीन और दुनिया के बाकी हिस्सों के उत्सर्जन में एक बड़ा और पूरी तरह से अनुपातहीन अंतर है। अंत: यह कहना तर्कसंगत होगा कि अगर 2050 तक दुनिया को नेट जीरो होने की जरूरत है, तो इन देशों को साल 2030 तक ही नेट जीरो का लक्ष्य प्राप्त करना होगा, बाद में नहीं। 4
फिर भारत जैसे देशों की बारी आएगी जो ऐतिहासिक उत्सर्जन और वर्तमान उत्सर्जन, दोनों में पीछे हैं। तब जाकर ही वर्ष 2050 तक नेट जीरो के लक्ष्य का कोई मतलब बनता है। आज के परिदृश्य में भारत क्या कर सकता है और हमें क्या करना चाहिए? क्या 2070 तक नेट-जीरो घोषित किया जाए? अमेरिका और यूरोप के बीस साल बाद और चीन के 10 साल बाद। क्या इसका कोई मतलब भी रह जाता है?
वर्तमान में जैसे हालात हैं, उसे देखते हुए जो बाइडेन अपने देश को 2050 की नेट-जीरो दुनिया में ले जाने की घोषणा करें तो तालियां बजाने की आवश्यकता नहीं है। खुश होने की कोई बात नहीं है, यह बिल्कुल भी पर्याप्त नहीं है। किसी भी स्तर से नहीं।
आप केवल यह पूछें कि क्या उनका देश हास्यास्पद रूप से कमजोर पेरिस प्रतिबद्धताओं को वर्ष 2025 तक पूरा करेगा? अमेरिका को 2025 तक 2005 के अपने चरम स्तर से 26-28 प्रतिशत नीचे होना चाहिए। सच्चाई यह है कि 2019 के अंत में अमेरिका का ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन 2016 की तुलना में अधिक था।
हमें 2030 तक असली महत्वकांक्षा एवं इच्छाशक्ति का प्रदर्शन करने की आवश्यकता है। 2050 की बात बेमानी है। जो बाइडेन जलवायु परिवर्तन को सच मानते हैं, यह एक अच्छी खबर है। लेकिन यह पर्याप्त नहीं है। हमारे पास अब इतना समय नहीं रहा कि हम जलवायु परिवर्तन की इस समस्या पर बहस करने में एक और दशक बिता दें।अब कुछ निर्णायक करने का समय आ चुका है।
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