डाउन टू अर्थ आवरण कथा: किस हाल में हैं विनोबा भावे के ग्रामदानी गांव?

गांधी के ग्राम स्वराज के सपने को साकार करने के लिए विनोबा भावे ने लोगों को ग्रामदान के लिए प्रेरित किया। देश में ऐसे ग्रामदानी गांवों की संख्या तीन हजार से अधिक है

By Shagun, Raju Sajwan, Monoj Gogoi
Published: Friday 04 August 2023
इलस्ट्रेशन: योगेन्द्र आनंद / सीएसई

"दिल्ली और मुंबई में हमारी सरकार है, लेकिन हमारे गांव में, हम खुद सरकार हैं। महाराष्ट्र के गढ़चिरौली जिले के वन क्षेत्र के अंदर बसे गांव मेंढा (लेखा) में यह वाक्य लिखा एक बोर्ड आपका स्वागत करता है। बोर्ड पर लिखा यह वाक्य जंगल और जमीन के संरक्षण के लिए गांव द्वारा स्थापित स्व-शासन की एक बानगी है। लगभग 500 गोंड आदिवासियों के इस गांव ने वर्षों से अपने जंगलों के लिए संघर्ष किया है। 2006 में वन अधिकार अधिनियम के पारित होने के बाद सामुदायिक वन अधिकार (सीएफआर) को सुरक्षित करने के लिए मेंढा देश में पहले गांव के रूप में लोकप्रिय रहा है। इस गांव के कुल क्षेत्रफल में से 80 प्रतिशत क्षेत्र में घना जंगल फैला है।

लेकिन इन दिनों गांव एक और महत्वपूर्ण लड़ाई लड़ रहा है, वो है ग्रामदान का कार्यान्वयन। दिसंबर 2022 में अपनी इस मांग के लिए गांववासियों ने बॉम्बे उच्च न्यायालय की नागपुर पीठ का रुख किया। एक दुबले-पतले, मुखर, भावुक 66 वर्षीय देवाजी टोफा ने गांव की ओर से अदालत में यह याचिका दायर की है। पूर्व अध्यक्ष रह चुके टोफा कहते हैं, “दिल्ली-मुंबई वाले आदिवासी का विकास नहीं कर सकते। गांववासी अपने विकास के बारे में खुद फैसला लेना चाहते हैं, इसीलिए वह अपने गांव को ग्रामदान का अधिकार की लड़ाई लड़ रहे है।” ग्रामदान 1951 में गांधीवादी विनोबा भावे द्वारा शुरू किए गए भूदान आंदोलन का विस्तार है।

भूदान का मतलब था, बड़े भूस्वामियों द्वारा भूमिहीनों के लिए भूमि का दान, लेकिन ग्रामदान का अर्थ है- पूरे गांव द्वारा अपनी जमीन को एक ट्रस्ट को दान कर देना, जिसे ग्राम सभा या ग्राम समिति कहा जाता है। इसके बाद गांव के बाहर या ग्रामदान में शामिल नहीं हुए गांव के व्यक्ति को जमीन नहीं बेची जाएगी, लेकिन भू-स्वामी इसकी खेती जारी रख सकते हैं और लाभ उठा सकते हैं। विनोबा भावे (जिन्हें महात्मा गांधी ने ब्रिटिश शासन के खिलाफ 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन शुरू करते समय अपना पहला सत्याग्रही चुना था) देश में, खासकर तेलंगाना क्षेत्र में असमान भूमि स्वामित्व को लेकर हो रही हिंसा से बहुत परेशान थे। 1951 में हैदराबाद से 40 किलोमीटर दूर पोचमपल्ली गांव में एक जमींदार के युवा बेटे रामचंद्र रेड्डी ने जब भावे के समक्ष अपने गांव के भूमिहीन लोगों को अपनी जमीन का हिस्सा दान करने की पेशकश की, तब भावे ने फैसला किया कि वह पूरे भारत के भूस्वामियों को प्रेरित करेंगे कि वे स्वेच्छा से अपनी भूमि का एक हिस्सा भूमिहीनों को दान कर दें। इसे उन्होंने भूदान आंदोलन का नाम दिया।

अगले कुछ वर्ष के बाद अपनी भूदान पदयात्रा के दौरान उन्हें अहसास हुआ कि लोगों को ग्रामदान के लिए प्रेरित किया जा सकता है। उन्होंने गांव के लोगों को अपनी जमीन एक ट्रस्ट के पास रखने की अपील की और व्यवस्था की कि हर व्यक्ति न केवल भूमि का एक हिस्सा बल्कि अपनी आय का 1/40वां हिस्सा ट्रस्ट को दान करे, जिससे भूमिहीनों का भला हो सके। इस अवधारणा को ग्रामदान कहा गया जिसे महात्मा गांधी के ग्राम स्वराज परिकल्पना की एक मिसाल बताते हैं। भावे के ग्रामदान आंदोलन ने समुदाय में सभी को समान अधिकार और जिम्मेदारियों का अहसास कराया और उन्हें स्वशासन की ओर बढ़ने के लिए सशक्त बनाकर प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण का मार्ग प्रशस्त किया। मेंढा खुद को ग्रामदानी घोषित करने वाला महाराष्ट्र का अंतिम गांव था।

गांधीवादी विद्वान और ग्रामदान पर शोध और किताबें लिखने वाले पराग चोलकर का कहना है कि 1970 के दशक के अंत से यह आंदोलन फीका पड़ना शुरू हो गया था। चोलकर अपनी पुस्तक द अर्थ इज द लॉर्ड्स, सागा ऑफ भूदान ग्रामदान मूवमेंट में लिखते हैं, “ब्रिटिश राज के दौरान भूमि निजी संपत्ति बन गई और यह किसानों और गांवों की तबाही का एक प्रमुख कारण थी। स्वतंत्र भारत के संविधान ने इस पर स्वीकृति की मुहर लगा दी। भूमि को निजी संपत्ति न मानना, न तो लोकतांत्रिक ढांचे में कानूनी उपायों के माध्यम से संभव था और न ही हिंसा के माध्यम से। भूदान-ग्रामदान ने अहिंसा के माध्यम से ऐसा करने की कोशिश की।”

आज, भारत के सात राज्यों में 3,660 ग्रामदान गांव हैं, जिनमें से सबसे अधिक गांव (1,309) ओडिशा में हैं। इसके अलावा आंध्र प्रदेश, बिहार, महाराष्ट्र, ओडिशा, राजस्थान, तमिलनाडु और उत्तर प्रदेश में ग्रामदानी गांव हैं (देखें, सीमित विस्तार)।

 

इनके अलावा असम में भी ग्रामदानी व्यवस्था थी, लेकिन सितंबर 2022 में असम सरकार ने असम ग्रामदान अधिनियम, 1961 और असम भूदान अधिनियम, 1965 को निरस्त कर दिया। उस समय तक असम में 312 ग्रामदान गांव थे। अलग-अलग राज्यों के अपने-अपने अधिनियम हैं, लेकिन ग्रामदान अधिनियम की कुछ प्रमुख विशेषताएं हैं (देखें, सामुदायिक अधिकार)। 

सामुदायिक अधिकार

किसी भी गांव को ग्रामदान में शामिल करने के लिए मुख्य रूप से तीन शर्तों को पूरा करना होता है
  • गांव के कम से कम 75 प्रतिशत भूस्वामियों को अपनी भूमि का स्वामित्व ग्राम सभा को सौंप देना होगा। ऐसी भूमि गांव की कुल भूमि के मुकाबले कम से कम 60 प्रतिशत होनी चाहिए। कुछ राज्यों में यह प्रतिशत कुछ कम है। जैसे- राजस्थान में गांव की कुल भूमि में से कम से कम 51 प्रतिशत भूमि ग्रामसभा को दान करनी होगी।
  • दान की गई भूमि का पांच प्रतिशत भूमिहीनों को खेती के लिए वितरित किया जाता है, लेकिन जमीन को पाने वाले बिना ग्रामसभा की अनुमति के उसे हस्तांतरित नहीं कर सकते। बाकी जमीन दाताओं के पास ही रहती है। वे और उनके वंशज इस पर काम (खेती या अन्य काम) कर सकते हैं, लेकिन इसे गांव के बाहर या गांव में ऐसे व्यक्ति को नहीं बेच सकते जो ग्रामदान में शामिल न हो।
  • ग्रामदान में शामिल होने वाले सभी काश्तकारों को अपनी आय का 2.5 प्रतिशत हिस्सा ग्रामसभा को देना होता है।

 

गभग सात दशक बाद ग्रामदानी गांव किस स्थिति में हैं, यह जानने के लिए डाउन टू अर्थ ने महाराष्ट्र के पांच, राजस्थान के छह और असम के चार ग्रामदान गांवों की यात्रा की। महाराष्ट्र में, महाराष्ट्र ग्रामदान अधिनियम 1964 में लागू हुआ, जिसे 21 गांवों ने अपनाया। अधिनियम के तहत गांव के प्रशासन, विकास और कल्याण के लिए ग्राम-मंडल (ग्राम सभा) को व्यापक शक्तियां और जिम्मेदारियां दी गई हैं। ग्रामदानी गांव राज्य के 10 जिलों- अकोला (3 गांव), गढ़चिरौली (1), ठाणे (2), वाशिम (1), गोंडी (1), गोंदिया (2), भंडारा (2), पालघर (7), रायगढ़ (1) और कोल्हापुर (1) में फैले हैं। राज्य में जहां 21 गांवों को ग्रामदान का दर्जा मिला, वहीं लगभग एक दशक पहले अधिनियम में आवश्यक सभी शर्तों को पूरा करने के बावजूद मेंढा को अभी तक वह गौरव नहीं मिला है।

मेंढा में सभी ग्रामीणों ने अपनी जमीन दान कर दी है, जो एक अनूठा मामला है। हालांकि महाराष्ट्र ग्रामदान अधिनियम 1964 के तहत अन्य सभी गांवों में 75 से 80 प्रतिशत भूस्वामियों ने ग्रामदान में शामिल होने की सहमति व्यक्त की थी। साथ ही शर्त थी कि शामिल होने वाले काश्तकारों को अपनी अपनी आमदनी का ढाई प्रतिशत ग्रामसभा के ट्रस्ट में जमा कराना होगा, लेकिन मेंढा गांव ऐसा था, जिसमें रह रहे सभी परिवारों ने इन शर्तों को मान लिया।

2013 में जिला कलेक्टर को जब ग्रामीणों ने अपने निर्णय के बारे में बताया तो वे इसकी हकीकत जानते खुद गांव पहुंच गए और एक बैठक कर सभी ग्रामीणों से बात की। और आखिरकार 28 नवंबर, 2013 को एक आधिकारिक राजपत्र के माध्यम से गांव को ग्रामदान अधिसूचित कर दिया गया। लेकिन ग्रामदान कानून में प्रावधान था कि अधिसूचना जारी होते ही ग्रामदानी गांव को स्वतंत्र पंचायत घोषित कर दिया जाएगा, लेकिन मेंढा को लेखा पंचायत से अलग नहीं किया गया। यह काम राज्य सरकार के राजस्व और पंचायत विभागों ने करना था, लेकिन आज तक ऐसा नहीं हुआ।

तब आखिर मेंढा गांव के लोग अपनी निजी जमीन सामूहिक स्वामित्व वाली ग्राम सभा को सौंपकर दशकों पुराना अधिनियम को क्यों लागू करना चाहता है, जबकि इस युग में निजी जमीन की कीमतें और महत्व काफी बढ़ रहा है?

दरअसल, मेंढा अपने काम करने के तरीके वाला एक अनूठा गांव है। अति व्यक्तिवाद की ओर बढ़ रहे समाज में यहां का समुदाय सामूहिक दृष्टिकोण अपना रहा है। गांव पूरी तरह से भोजन व पशु चारे के लिए खेती, वन उपज और इमारती लकड़ी पर निर्भर है। गांववासियों की आय का स्रोत बांस और अन्य गैर-काष्ठ वन उपज की बिक्री और दैनिक मजदूरी है। यहां के लोगों का मानना है कि भूमि कोई निजी संपत्ति नहीं है, बल्कि एक सामूहिक संसाधन है जो भोजन और आजीविका प्रदान करती है और इसे बचाया जाना चाहिए और अगली पीढ़ी को दिया जाना चाहिए। लोग कहते हैं, “आदिवासियों की परम्परा में जमीन किसी एक व्यक्ति के नाम पर नहीं है। यहां तक कि मकान भी रहने के लिए हैं। उनका इस्तेमाल किया जा सकता है, लेकिन बेचा नहीं जा सकता है।”

ग्राम सभा ने एक सामूहिक अनाज प्रकोष्ठ भी बनाया है, जिसमें हर ग्रामीण कुल उपज का ढाई प्रतिशत अनाज जमा करता है। इसका उपयोग विवाह समारोहों या किसी परिवार के पास अनाज की कमी होने पर किया जाता है। ग्रामीणों को अपनी कुल आय का 20 प्रतिशत भी देना होता है, जिसका उपयोग बच्चों की शिक्षा या शादी के खर्च के लिए किया जाता है। यहां यह माना जाता है कि बच्चे गांव के होते हैं न कि किसी एक परिवार के। ग्रामीण हीरा लाल कहते हैं, “सामुदायिक वन अधिकार (सीएफआर) प्राप्त करने के बाद गांव में इस बात पर चर्चा हुई कि ग्राम सभा को मजबूत करने और गांव के स्व-शासन के विचार को अधिक मजबूत करने की आवश्यकता है। इसके बाद गांववासियों के बीच ग्रामदान पर चर्चा शुरू हुई।”

गांव में सामूहिकता के सिद्धांत पहले से ही मौजूद थे। ऐसे में उनके सिद्धांतों से मेल खाने वाले कानून (ग्रामदान अधिनियम) की वजह से गांव के भूमि अधिग्रहण विरोधी एजेंडे को बल मिला। टोफा कहते हैं कि कृषि और वन भूमि के अधिग्रहण को लेकर उन पर दबाव रहता है, लेकिन ग्रामदान जल, जंगल, जमीन की सुरक्षा का काम करेगा। यदि ग्रामदान को लागू किया जाता है तो हमारी जमीन, अधिग्रहण के किसी भी पुराने या नए कानूनों से सुरक्षित रहेगी। वह पास के कुछ गांवों का उदाहरण देते हैं, जहां कृषि भूमि को हाल ही में महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ से जुड़े एक राजमार्ग के लिए अधिग्रहित किया गया है। वह कहते हैं, “प्रस्तावित राजमार्ग के कारण निजी डेवलपर्स ने अभी से रेस्तरां और होटल बनाने के लिए जमीन खरीदना शुरू कर दिया है।”

इस गांव की एक विशेषता इसका एक अध्ययन समूह है, जिसे वह अध्ययन मंडल कहते हैं। यह एक ऐसा मंच है, जहां गांव के लोग खुले मन से विभिन्न मुद्दों पर बातचीत करते हैं। कोई भी इस मंडली का हिस्सा हो सकता है और यह ग्राम सभा को निर्णय लेने में मदद करता है। गांव आम सहमति के सिद्धांत पर काम करता है और पूरा गांव एक परिवार की इकाई है। गांव में सभी निर्णय ग्राम सभा द्वारा सर्वसम्मति से लिए जाते हैं, जिसमें गांव के सभी वयस्क सदस्य (प्रत्येक परिवार से एक पुरुष और एक महिला) शामिल होते हैं। टोफा कहते हैं, “यहां हम तब तक कोई निर्णय नहीं लेते, जब तक कि गांव के सभी सदस्य अपनी सहमति नहीं दे देते। एक सदस्य के असहमत होने पर भी निर्णय को रोक दिया जाता है और समीक्षा की जाती है।” यही वजह है कि गांव को खुद को ग्रामदान घोषित करने में इतना समय लगा।

अधिनियम के अनुसार, 75 प्रतिशत भूस्वामियों को इसके कार्यान्वयन के लिए सहमत होना चाहिए, लेकिन मेंढा में इसे केवल तभी लागू करने का निर्णय लिया गया, जब सभी निवासी सहमत हो गए। ग्रामदान के विचार को 1990 के दशक की शुरुआत में अध्ययन मंडल में चर्चा के लिए रखा गया था और अधिनियम को लागू करने पर 2012 में गांव में पूर्ण सहमति बनने में लगभग 20 साल लग गए, लेकिन फिर यह तय किया गया कि अगले एक या दो साल में 18 साल के होने वाले नाबालिगों को भी शामिल किया जाए और उनकी भी राय ली जाए। यह एक और साल तक चला और आखिरकार 2013 में आम सहमति बन गई। टोफा कहते हैं कि कलेक्टर यह पता लगाने के लिए आए थे कि क्या गांव में रहने वाले अधिकांश लोग ग्रामदान में शामिल होने के लिए तैयार हैं। कलेक्टर हैरान थे कि गांव के सभी सदस्य इस अधिनियम को लागू करने के लिए कैसे सहमत हो गए। उन्होंने बैलेट वोटिंग भी कराई और तब भी नतीजा 100 फीसदी रहा। लेकिन प्रक्रिया वहीं अटक गई।

अनडाड गांव को देखकर पता चलता है कि आखिर मेंढा गांव के लोग ग्रामदानी गांव बनने के लिए इतना संघर्ष क्यों कर रहे हैं? महाराष्ट्र के थाणे जिले के गांव अनडाड को 28 अप्रैल, 1972 को ग्रामदान घोषित किया गया। गांव के 40 लोगों की 50 हेक्टेयर जमीन पर ग्राम सभा का स्वामित्व है। यह गांव समृद्धि महामार्ग (जिसे नागपुर-मुंबई एक्सप्रेस-वे के नाम से ज्यादा जाना जाता है) से लगभग एक किलोमीटर से भी कम दूरी पर है। अनडाड ग्राम मंडल के पूर्व महासचिव शिवराम राजी मोगरे 22 वर्ष के थे, जब उनके गांव में ग्रामदान लागू किया गया था। वह याद करते हैं कि 1980 के दशक से निजी बिल्डरों द्वारा भूमि अधिग्रहण का चलन था और उस समय आसपास के गांवों के किसानों ने अपनी जमीनें 5,000 रुपए से 6,000 रुपए प्रति एकड़ तक बेच दी थीं।

मोगरे जो ग्रामदान बोर्ड के सदस्य भी हैं। वह कहते हैं, “बिल्डर्स यहां भी आते थे, लेकिन उन्हें अधिनियम के बारे में पता नहीं था। कई लोग जिन्होंने उस दौरान अपनी कृषि भूमि बेच दी थी, अब दिहाड़ी मजदूर के रूप में काम करते हैं।” लेकिन ग्रामदान को लागू करने के उनके फैसले की बदौलत अनडाड के किसान आज बागवानी निर्यातक हैं। मोगरे कहते हैं कि करीब 30 साल पहले पास की भातसा नदी से गांव में लिफ्ट सिंचाई के जरिए पानी लाया गया और आज गांव के करीब 50 किसान भिंडी का निर्यात करते हैं। वर्तमान में गांव रोजाना औसतन 50 क्विंटल निर्यात करता है और 40 रुपए प्रति किलो की दर से भिंडी की कीमत मिलती है। साथ ही कई ग्रामीणों ने 3-4 लाख रुपए प्रति एकड़ के हिसाब से जमीन भी लीज पर दी है। मोगरे कहते हैं, “आज हम करोड़पति जैसा महसूस करते हैं।”

इसी तरह राजस्थान के उदयपुर शहर से लगभग 80 किलोमीटर की दूरी पर स्थित सीड़ गांव के लोग आज भी अपनी ग्रामदान पहचान को गर्व से अभिव्यक्त करते हैं और अंत तक उसी पहचान से जुड़े रहना चाहते हैं। 1980 में ग्रामदान घोषित और लगभग एक हजार लोगों की आबादी वाले इस गांव में हालांकि किसी भी परिवार का जमीन पर मालिकाना हक नहीं है, लेकिन गांव में ऐसा कोई परिवार नहीं है, जो भूमिहीन हो। यानी हर परिवार के पास इतनी जमीन है कि वह अपने परिवार के भरण-पोषण के लिए खेती कर रहा है। सीड़ गांव कानोड़ ग्राम पंचायत में शामिल है। कानोड़ पंचायत के सरपंच प्रकाश मीणा सीड़ गांव के ही हैं। मीणा बताते हैं कि जनवरी 1983 में राज्य सरकार ने पंचायतों को अधिकार दिए कि वे अपने क्षेत्र के अंतर्गत आने वाली जमीन का प्रबंधन करें और पेड़ों को काटने से रोकें, साथ ही वन्यजीवों का शिकार करने वालों को भी रोकें। सीड़ ग्राम सभा ने राजस्थान ग्रामदान अधिनियम की धारा 43 के तहत मिली शक्तियों का इस्तेमाल करते हुए अपने गांव में भी इसे लागू कर दिया। वो दिन है और आज का दिन है। गांव से लगता यह जंगल पूरी तरह से बचा हुआ है।

राजस्थान में ग्रामदान का एक गौरवशाली इतिहास है। 1954 में राजस्थान ने राजस्थान भूदान यज्ञन अधिनियम बना दिया था। जब विनोबा भावे ने ग्रामदान की पहल की तो 1960 में राजस्थान में राजस्थान ग्रामदान कानून पारित कर दिया गया। “राजस्थान में ग्राम दान ” के लेखक एवं कुमाराप्पा ग्राम स्वराज्य संस्थान के निदेशक अवध प्रसाद कहते हैं कि 1965 तक कुल 426 ग्रामों के ग्रामदान संबंधी संकल्प हुए। एक्ट के अनुसार ग्रामदानी गांवों की जिम्मेदारी भी भूदान बोर्ड पर आई, लेकिन अलग से ग्रामदान बोर्ड के गठन की कार्रवाई काफी धीमी गति से चली, जिस कारण ग्रामदान अभियान तेजी नहीं पकड़ पाया। परंतु 1971 में एक बार फिर राजस्थान में ग्रामदान अभियान ने तेजी पकड़ी, जिसके बाद पुराने अधिनियम को खारिज राजस्थान ग्रामदान अधिनियम 1971 लागू किया गया। राजस्थान का ग्रामदान अधिनियम देश के अन्य राज्यों के कानूनों के मुकाबले सबसे मजबूत बताया जाता था।

लेकिन मेंढा, सीड़ और अनडाड जैसे कुछ गांव अपवाद हैं। बाकी कई गांवों में ग्रामदान अपनी प्रासंगिकता खो रहा है। डाउन टू अर्थ ने कई ग्रामदान गांवों के लोगों के साथ बातचीत की और आज जिस तरह से ग्राम दान अधिनियम को लागू किया जा रहा है, उसमें कई बड़ी कमियां आ गई हैं, जिसने इन गांवों के सामने नई तरह की चुनौतियां खड़ी कर दी हैं।



क्यों समस्या बना ग्रामदान

मेंढ़ा गांव के तोफा की तरह महाराष्ट्र के अकोला जिले के तुलजापुर ग्राम मंडल के अध्यक्ष महेश आरे भी इन दिनों अदालती लड़ाई में व्यस्त हैं, लेकिन टोफा के विपरीत वह चाहते हैं कि उनके गांव की जो 6.47 हेक्टेयर जमीन ग्रामदान अधिनियम के अधीन है, उसे अधिनियम से हटा दिया जाए। यह गांव तुलजापुर कस्बे की एक व्यस्त मुख्य सड़क के बायीं ओर स्थित है और यहां के लोग आसपास हो रहे विकास का हिस्सा बनना चाहते हैं। पिछले कुछ वर्षों से कृषि लाभप्रद नहीं रही और ग्रामदानी होने के कारण गांव में समस्याएं बढ़ी हैं। महात्मा गांधी के सपने को हकीकत में बदलने की विनोबा भावे की कोशिशें लगभग छह दशक बाद कमजोर पड़ने की एक वजह जमीन की बढ़ती कीमतें भी है। जैसे- जयपुर में जिस तेजी से शहरीकरण बढ़ा और जमीन की कीमतें बढ़ने लगीं, उसके चलते लोगों का ग्रामदान के प्रति मोह भंग होने लगा। यही वजह है कि जयपुर जिले के ग्रामदानी गांव के लोगों ने मिलकर ग्रामदानी हटाओ संघर्ष समिति बनाई है। समिति के अध्यक्ष सोहन लाल सेपट खेजड़ावास ग्राम पंचायत के सरपंच भी हैं।

वह कहते हैं, “ग्रामदानी बहुत अच्छी योजना थी। लेकिन धीरे-धीरे में इसमें कमी आने लगी। चूंकि ग्रामसभा के अध्यक्ष तय करते हैं कि गांव की जमीन किसे अलॉट की जाएगी। इसके चलते ग्रामसभाओं में भ्रष्टाचार बढ़ गया। ग्रामसभा के पदाधिकारी बाहरी लोगों को अवैध तरीके से जमीन बेच रहे हैं और गांव के लोगों को उनके हिस्से की जमीन कम कर देते हैं। अध्यक्ष व समिति के सदस्य मिलकर ग्रामसभा में प्रस्ताव पारित कर देते हैं, जिसके बारे में ग्रामीणों की राय तक नहीं ली जाती।” सेपट जोशीवास ग्रामदानी गांव के रहने वाले हैं, जो खेजड़ावास ग्राम पंचायत के अधीन है।

खेजड़ावास ग्राम पंचायत के अधीन छह ग्रामदानी गांव हैं। सेपट कहते हैं कि ये सभी गांव अब ग्रामदानी से निकलना चाहते हैं। इसलिए हम लोगों ने मिलकर ग्रामदानी हटाओ संघर्ष समिति बनाई है। जयपुर जिले के ही ग्रामदानी गांव गोकुलपुरा ग्रामसभा के पूर्व प्रधान केसर सिंह कहते हैं कि उनकी गांव की बहुत सी जमीन बाहरी लोगों को बेच दी गई है। इसके लिए बकायदा बाहरी लोगों को ग्रामसभा का सदस्य बनाया गया, वोटर लिस्ट में गड़बड़ी की गई। वे लोग इसकी शिकायत भी कर चुके हैं। लेकिन कोई कार्रवाई नहीं हो रही है। सेपट कहते हैं कि हमारी मांग है कि हमें काश्तकार अधिनियम-1955 के तहत जमीन आवंटित कर दी जाए। क्योंकि कुछ लोग अपने बच्चों को उच्च शिक्षा दिलाना चाहते हैं वो कम से कम इस जमीन को बेच सकते हैं या गिरवी रखकर ऋण ले सकते हैं।

रूपेश नानामदाने का ही मामला लें। 2022 में उनकी 5.6 हेक्टेयर सोयाबीन भारी बारिश से नष्ट हो गई और उन्हें 1 लाख रुपए का नुकसान हुआ। जब उन्होंने सरकार की प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना के तहत फसल बीमा के माध्यम से राहत के लिए आवेदन किया, जिसके लिए उन्होंने 2021 में 6,000 रुपए का प्रीमियम चुकाया था, तो रिलायंस जनरल इंश्योरेंस ने उनके दावे को यह कहते हुए खारिज कर दिया कि कृषि भूमि उनके नाम पर नहीं है। इस गांव में भूमि के कानूनी दस्तावेज, जिसे 7/12 ( फॉर्म 7 और फॉर्म 12) कहा जाता है, में 'इतर अधिकार' खंड के तहत फॉर्म के दायीं ओर मूल मालिक का नाम होता है। इसमें मूल मालिकों को उनकी भूमि का तीसरा पक्ष बनाया गया है। फॉर्म पर पहला नाम ग्राम मंडल का होता है और आदर्श रूप से दूसरा नाम उस भूस्वामी का होना चाहिए, जिसने अपनी जमीन गांव को दान में दी हो। कुछ गांवों में ऐसा होता है लेकिन कई अन्य गांवों में यह दस्तावेज कैसे बनाया गया था, इस पर भारी विसंगति है।

आरे कहते हैं, “बीमा कंपनी ने प्रीमियम का पैसा स्वीकार करते समय इस बारे में कुछ नहीं बताया, लेकिन बाद में भुगतान करने से इनकार कर दिया। लेकिन समस्या वास्तव में हमारा 7/12 (फॉर्म) है। फॉर्म के दायीं ओर हमारे नाम रखने से ऐसा लगता है कि हमने ग्राम मंडल को जमीन नहीं दी है, बल्कि ग्राम मंडल ने हमें जमीन पट्टे पर दी है।” केवल फसल बीमा ही नहीं, ग्रामीणों को कुछ बुनियादी कृषि सब्सिडी प्राप्त करने में भी समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है। उदाहरण के लिए, ट्रैक्टरों पर सब्सिडी लेनी हो या कृषि ऋण लेना हो। इसके अलावा, वर्षों से खेती लाभकारी न रहने के कारण अच्छी कीमत मिलने पर गांव के किसान अपनी जमीन बेचना चाहते हैं, लेकिन ग्रामदान की वजह से ऐसा नहीं हो पाता।

कई गांव के निवासियों ने शिकायत की कि वे इस बात से निराश हैं कि सरकारी अधिकारियों और बैंकों, वित्तीय संस्थानों के अधिकारियों को ग्रामदान के बारे में कोई जानकारी नहीं है कि यह कैसे काम करता है। वे इसका खामियाजा भुगत रहे हैं। अकोला जिले के केली वेली गांव के दीपक तावरे कहते हैं, “जागरुकता” फैलाना सरकार का काम है, हमारा नहीं। लेकिन सरकार ने इस अधिनियम को पूरी तरह से भुला दिया है। हमारी समस्याएं अनसुनी हो रही हैं।”

ग्रामदान अभियान को कमजोर करने में ग्रामसभा के चुनाव की प्रक्रिया में बदलाव ने बड़ी भूमिका निभाई। राजस्थान ग्रामदान बोर्ड के सहायक सचिव रामबाबू शर्मा ने डाउन टू अर्थ को बताया कि ग्रामसभा का चुनाव कराने की जिम्मेवारी ग्रामदान बोर्ड के पास थी। बोर्ड के प्रतिनिधि हर तीन साल में गांव-गांव जाते थे और सभी गांव वासियों को इकट्ठा करके हाथ खड़े करवाकर प्रधान का चुनाव कराते थे। आमतौर पर आम सहमति से चुनाव होते थे और एक दिन में दो-दो गांव के चुनाव करा दिए जाते थे, लेकिन 2008 में राज्य सरकार ने ग्रामदान अधिनियम में संशोधन कर दिया कि ग्रामदानी गांवों में चुनाव बैलेट पेपर के आधार पर होंगे। ग्रामदान बोर्ड के पास इतनी क्षमता नहीं थी कि वे बैलेट पेपर के आधार पर एक साथ सभी गांवों का चुनाव करा दें, इसलिए बोर्ड ने हाथ खड़े कर दिए और प्रशासन की मदद से चुनाव होने लगे।

आखिरकार साल 2016 में सरकार ने एक और संशोधन कर ग्रामदानी गांवों में ग्राम सभा के चुनाव की जिम्मेवारी कलेक्टर को सौंप दी। इस सारी प्रक्रिया के चलते ग्रामसभाओं के चुनाव लगातार बाधित हो रहे हैं। सीड़ गांव में ग्राम सभा के आखिरी चुनाव 2003 में हुए, जिसमें बाबरू लाल को सर्वसम्मति से अध्यक्ष चुना गया। बाबरू लाल बताते हैं कि वे लोग जिला कलेक्टर से भी चुनाव कराने का अनुरोध कर चुके हैं, लेकिन चुनाव नहीं हो रहा है। बीस साल पहले सर्वोदयी कार्यकर्ता रामेश्वर प्रसाद ने सीड़ सहित चार गांवों के चुनाव एक ही दिन कराए थे। वह कहते हैं कि विनोबा भावे की यही सोच थी कि लोग मिल बैठकर अपना प्रधान चुनें, लेकिन राजनीतिक दलों को यह व्यवस्था पसंद नहीं आई।

उन्होंने इस व्यवस्था को समाप्त करने के लिए ग्राम सभा के चुनावों के प्रति निष्क्रियता दिखानी शुरू की और बार-बार सरकार व ग्रामदान बोर्ड से आग्रह के बावजूद चुनाव नहीं कराए गए। ग्रामदान अधिनियम के तहत ग्राम सभा अध्यक्ष के लिए मतदान खुलेआम और बिना मतपत्र के होता है। पीढ़ियों से चल रहा खुला मतदान अब लोगों के बीच रिश्तों में खटास पैदा कर रहा है। ठाणे के वाकी गांव के विलास पांडुरंग गावित कहते हैं “वो अलग युग था, जब यह अधिनियम लागू किया गया और लोग खुले तौर पर मतदान करने में असहज नहीं थे। पिछले साल जब मैंने एक शख्स को वोट नहीं दिया तो उसने मेरे खेत का रास्ता, जो उसके खेत से जाता था, एक साल के लिए रोक दिया। मुझे लंबा रास्ता तय करना पड़ा। इस प्रावधान के कारण लड़ाई-झगड़े भी होते हैं और माहौल भी खराब होता है।”

असम में भी स्थिति अलग नहीं है। असम एकमात्र ऐसा राज्य है, जहां ग्रामदान अधिनियम था, लेकिन 2022 में असम भूमि और राजस्व विनियमन (संशोधन) विधेयक पारित करके इसे निरस्त कर दिया गया। इसकी वजह बताई गई कि दान की गई भूमि पर अवैध कब्जे कर लिए गए हैं। धेमाजी जिले के एक ग्रामदान गांव मैचा चपोरी की अध्यक्ष हेमा भराली कहती हैं, “सभी ग्रामदान गांवों में ग्राम सभाएं अब लगभग निष्क्रिय हैं। नई पीढ़ी को ग्रामदान या भूदान के बारे में कुछ नहीं पता। संबंधित विभागों के अधिकारी भी सिस्टम को समझने में विफल रहते हैं और हमारी बात नहीं सुनते हैं।”

धेमाजी के ही एक और गांव मंगलाती के पूर्व अध्यक्ष पूरण कांता गोगोई कहते हैं कि यहां के निवासियों के जमीन के रिकॉर्ड भी अब नहीं रखे जाते हैं। उनके अनुसार, “गांव में 9 बीघा कृषि भूमि के दो भूखंड हैं (1 बीघा 0.2 हेक्टेयर के बराबर है)। कुछ परिवारों की सारी जमीन ग्रामदान में है, लेकिन वे व्यक्तिगत रूप से खेती करते हैं। समस्या यह है कि उनके पास जमीन के कोई दस्तावेज नहीं हैं।” ग्रामदानी व्यवस्था को कमजोर करने के लिए राज्य सरकारों ने कई पैंतरों का इस्तेमाल किया है। इसमें सबसे अहम था, ग्रामदान के कानूनी ढांचे को कमजोर करना।



कमजोर कानूनी ढांचा

राज्य सरकारों ने ग्रामदान आंदोलन को कमजोर करने के लिए ग्राम दान अधिनिमय में कई बदलाव किए हैं। जैसे कि राजस्थान का उदाहरण लें तो राजस्थान ग्रामदान अधिनियम 1971 की धारा 43 को हटा दिया गया। (अंत में पढ़ें, क्या थी धारा 43) इस धारा के तहत ग्रामदानी ग्राम सभा को पंचायत के समान शक्तियां दी गई थी। यह शक्तियां खत्म होते ही सीड़ गांव को कामोड़ ग्राम पंचायत के अधीन कर दिया गया। इस ग्राम पंचायत के अधीन आठ गांव आते हैं, जिनमें सीड़ भी शामिल है। इसका सीधा सा मतलब है कि जहां सीड़ को एक पंचायत के बराबर दर्जा मिला हुआ था, जब वह आठ गांवों में बराबर बंट गया। बाबरू राम कहते हैं कि अब तो हम केवल राजस्व विभाग की तरह केवल रिकॉर्ड कीपर का काम कर रहे हैं। गांव की जमीन सारा लेखा-जोखा हमारे पास है, लेकिन हम इसके अलावा कोई काम नहीं कर सकते। हमारी इस जमीन का ऑनलाइन पंजीकरण भी नहीं किया जा रहा है।

राज्य में पहले 216 ग्रामदानी गांव थे, लेकिन इनकी संख्या घटकर 190 रह गई है। धारा 43 हटने के बाद ग्रामदानी गांवों के पंचायत में शामिल होने का असर यह हुआ कि अगर ग्राम पंचायत में सरपंच ग्रामदानी गांव के पक्ष में नहीं है तो ग्रामदानी गांव का विकास ही रुक जाता है। जयपुर जिले के चकासू ब्लॉक के ग्रामदानी गांव जयप्रकाशपुरा, टिगरिया पंचायत के अधीन आता है। गांव के धर्मेंद्र बैरवा बताते हैं कि पंचायत की ओर से उनके गांव में कोई खास काम नहीं कराया गया है। यहां तक कि गांव में मनरेगा (महात्मा गांधी राष्ट्रीय रोजगार गारंटी योजना) का भी काम उनके गांव के लोगों से नहीं कराया जाता, जिसकारण लोगों को मजदूरी करने बाहर जाना पड़ता है।

दशकों से मेंढा लेखा की ग्राम सभा के कामकाज में सहायता करने वाले मोहन हीराबाई हीरालाल कहते हैं, “साल-दर-साल जितनी भी सरकारें आई, इस अधिनियम को कमजोर करने का प्रयास करती रहीं, क्योंकि इस अधिनियम के तहत भूमि का अधिग्रहण नहीं किया जा सकता है।” वह कहते हैं कि सरकार अब इस अधिनियम को मान्यता नहीं देना चाहती। हमने इस मुद्दे पर राज्य सरकार के विभिन्न विभागों के साथ बैठकें की हैं, लेकिन हमें कभी भी उचित प्रतिक्रिया नहीं मिली। कुछ मौकों पर गांव वालों से यहां तक कहा गया कि यह अधिनियम अब अस्तित्व में नहीं है। इससे आप सरकार के ज्ञान या रुचि के बारे में अंदाजा लगा सकते हैं।

महाराष्ट्र ग्रामदान बोर्ड के सचिव 80 वर्षीय खेरकर, अधिनियम के खराब कार्यान्वयन और लगातार सरकारों द्वारा देखी गई उपेक्षा पर अफसोस जताते हैं। वह डाउन टू अर्थ को बताते हैं कि बोर्ड को 20 गांवों के लिए प्रति वर्ष केवल 4 लाख रुपए मिलते हैं, जो उनके विकास के लिए पर्याप्त नहीं हैं। हमने बार-बार सरकार से गुहार लगाई, लेकिन सब व्यर्थ रहा। ग्रामदान कानून की प्रक्रियाएं न केवल जटिल और समय खर्च करने वाली थीं, बल्कि कई अनावश्यक भी थी। इतना साहसिक कदम उठाने वाले ग्रामीणों को प्रोत्साहित करने के बजाय, उनकी भावना को आहत करने का काम किया गया। चोलकर कहते हैं कि कई प्रावधानों ने राज्य सरकार को अंतिम नियंत्रण देने का काम किया।

गांधी के सपने को हकीकत में बदलने की भावे की कोशिश करीब छह दशक बाद फीकी पड़ गई है। 2018 में राजीव गांधी इंस्टीट्यूट फॉर कंटेम्परेरी स्टडीज द्वारा प्रकाशित एक पेपर में लिखते हुए संस्थान के तत्कालीन निदेशक, लेखक विजय महाजन कहते हैं कि पोचमपल्ली में युवा लड़के रामचंद्र रेड्डी ने अपने पिता की 100 एकड़ जमीन भूमिहीनों को देने का फैसला किया हो या मगरोथ (उत्तर प्रदेश में ग्रामदान घोषित करने वाला पहला गांव) के ग्रामीणों ने अपनी सारी जमीन सामूहिक रूप से देने का फैसला किया हो, लेकिन इसका मतलब यह नहीं था कि अधिकांश भारतीय ऐसा ही करना चाहते थे। परंतु विनोबा की साधुता के सम्मान में और दूसरे गांव वालों की देखादेखी कई और जमींदारों ने भूदान में अपनी जमीन का हिस्सा देने का फैसला किया। वह भी तब, जब सरकार भूमि के स्वामित्व पर सीलिंग लगाने की सोच रही थी, ताकि बड़े जमींदारों को बेदखल किया जा सके। उनके इस पेपर में बाकी राज्यों में ग्रामदान अधिनियम के खराब प्रदर्शन के बारे में भी बात की गई है। 2014 में विदर्भ भूदान-ग्रामदान सहयोग समिति, नागपुर द्वारा पश्चिम असम के बोको और कामरूप जिलों के छह गांवों में किए गए एक अध्ययन में पाया गया कि ग्रामदान गांवों में पंचायत की शक्तियों का अभाव है, इससे उनकी भलाई और विकास बुरी तरह प्रभावित हुआ है।

आरे कहते हैं, “मेरे दादाजी हमारी जमीन को ग्रामदान के तहत शामिल करने के लिए सहमत हुए, क्योंकि उनका मानना था कि इससे गांव को लाभ होगा, यह स्वतंत्र होगा और अपने विकास से संबंधित निर्णय लेगा। लेकिन अब अधिनियम कमजोर है। किसी भी अधिनियम को मजबूत करने और वर्तमान समय के साथ इसे और अधिक यथार्थवादी बनाने के लिए सुधार और संशोधन की आवश्यकता है। ग्रामदानी गांव आदर्श गांव बन सकते थे, लेकिन सरकार ने रुचि नहीं ली। अगर हमारे विकास के लिए हमें बोर्ड से अलग से फंड देने का कोई इरादा नहीं था और अगर हमें केवल जिला पंचायत द्वारा शासित होना था, तो इस अधिनियम की क्या जरूरत थी।”

हीरालाल निष्कर्ष निकालते हुए कहते हैं, “यह एक क्रांतिकारी काम था। ऐसा आज के समय में कल्पना करना भी असंभव है।” इसीलिए मेंढा एक अनूठी केस स्टडी है। यहां ग्रामदान करने की चर्चा का विनोबा भावे द्वारा शुरू किए गए आंदोलन से ज्यादा लेना-देना नहीं है, बल्कि लोगों की मान्यता है कि यह अधिनियम गांव के विकास में सहायक होगा। इसके लोग अब अदालत में और अभी भी इस अधिनियम को पूरी शक्तियों के साथ लागू कराना चाहते हैं। ग्राम स्वराज्य की मिसाल माने जाने वाले ग्रामदानी गांव अब कई तरह की चुनौतियों का सामना कर रहे हैं। ग्रामदानी गांवों की न केवल शक्तियां छीन ली गई हैं, बल्कि इसकी मूल भावनाओं को ही इतना कमजोर कर दिया है कि कई ग्रामदानी गांव के लोग चाहते हैं कि उनके गांवों को आम गांव घोषित कर दिया जाए।

सीड़ सहित चार गांव को अपने दम पर ग्रामदानी ग्राम घोषित कराने वाले रामेश्वर प्रसाद कहते हैं, “ग्राम स्वराज की मिसाल देखने के लिए दुिनया भर से लोग सीड़ आते हैं, लेकिन जाते-जाते मुझसे सवाल करते हैं कि क्या गांधी का ग्राम स्वराज का सपना पूरा हो पाएगा? समझ नहीं आता कि उन लोगों को क्या जवाब दूं?”

शक्तिपुंज थी धारा 43

राजस्थान ग्रामदान अधिनियम 1971 की धारा 43 में प्रावधान किया गया था कि ग्राम सभा को पंचायत के रूप में कार्य करने के लिए सशक्त किया जाएगा-

(1) राज्य सरकार आधिकारिक राजपत्र जारी कर गांव को ग्रामदान अधिसूचित करेगी। उस अधिसूचना में ग्रामदानी गांव की ग्रामसभा को पंचायत की सभी शक्तियों का प्रयोग, सभी कर्तव्यों और कार्यों का निर्वहन करने की भी इजाजत दी जाएगी।

(2) उप-धारा (1) के तहत अधिसूचना जारी होने पर -
  • पंचायत, जो ग्रामदान की अधिसूचना की तारीख से ठीक पहले कार्य करती थी, उसमें कार्य करना बंद कर देगी:
  • राजस्थान पंचायत अधिनियम -1953 या राज्य के किसी भी कानून के तहत पंचायतों को जो भी शक्तियां, कर्तव्य और कार्य आवंटित किए गए हैं, ग्रामदान गांव के संबंध में ग्राम सभा में समाहित हो जाएंगी। इसके बाद ग्राम सभा इन सभी शक्तियों का प्रयोग, कर्तव्यों और कार्यों का निर्वहन करेगी। राजस्थान पंचायत अधिनियम, 1953 के प्रावधानों के अधीन काम करने वाले अधिकारी और पंचायत के सेवक ग्राम सभा के अधिकारी और सेवक बन जाएंगे। यानी, ग्राम सभा के अधीन काम करेंगे:
  • राजस्थान पंचायत अधिनियम, 1953 के तहत न्याय पंचायत का गठन करने के लिए पंचायत जिस भी व्यक्ति को निर्वाचित करती है। वह व्यक्ति तब तक ग्राम सभा द्वारा निर्वाचित व्यक्ति माना जाएगा, जब तक कि ग्राम सभा, ग्रामदान अधिनियम के अनुसार किसी अन्य व्यक्ति का चुनाव करती है:
  • राज्य सरकार द्वारा राजस्थान पंचायत अधिनियम, 1953 के प्रावधान के मुताबिक यदि कोई प्रतिबंध या संशोधन किया गया है तो वे प्रतिबंध या संशोधन ग्रामदानी गांवों पर भी लागू रहेंगे।
  • अधिसूचना की तारीख तक पंचायत की जितनी भी संपत्तियां थी, ग्राम सभा उन सभी संपत्तियों की हकदार होगी, बल्कि सभी दायित्वों का भी निर्वहन करना होगा। इनमें पंचायत द्वारा किए गए गए अनुबंध के तहत मिले अधिकार व देनदारियां भी शामिल होंगी।
  • अधिसूचना की तारीख से ठीक पहले तक राज्य में किसी भी अदालत या अधिकरण में कानूनी कार्यवाही के लिए यदि पंचायत एक पार्टी थी तो ग्राम सभा को भी पार्टी के तौर पर अदालत को जवाब देना होगा। मामला चाहे जैसा भी हो। अदालती कार्यवाही जारी रहेगी।

(3) उप-धारा (1) के तहत जारी की गई किसी भी अधिसूचना में ऐसे प्रावधान शामिल हो सकते हैं, जिसे राज्य सरकार आवश्यक समझती हो। सरकार निर्देश दे सकती है- (i) पंचायत पर बकाया कोई भी कर, शुल्क या अन्य राशि ग्राम सभा को देनी होगी; (ii) अधिसूचना की तारीख तक पंचायत पर बकाया कर, शुल्क या राशि के संदर्भ में कोई अपील, याचिका या आवेदन लंबित हैं तो उन्हें ग्राम सभा द्वारा निपटाया जाएगा।

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