प्रकृति से ऊपर नहीं इंसान, स्वयं को प्रकृति के हिस्से के रूप में देखने की है जरूरत

पर्यावरण की बहाली और वन्यजीवों की रक्षा के लिए इंसान को प्रकृति के साथ अपने बिगड़ते रिश्तों को सुधारने की जरूरत है

By Lalit Maurya
Published: Tuesday 11 April 2023
एन्थ्रोपोसीन: प्रकृति से दूर होता इंसान; ग्राफिक: सोरित/ सीएसई

पर्यावरण की बहाली और वन्यजीवों की रक्षा के लिए इंसान को प्रकृति के साथ अपने बिगड़ते रिश्तों को सुधारने की जरूरत है। यह बात यूरोपीय पर्यावरण एजेंसी द्वारा इस सप्ताह प्रकाशित खास रिपोर्ट “एक्सिटिंग द एन्थ्रोपोसीन? एक्सप्लोरिंग फंडामेंटल चेंज इन अवर रिलेशनशिप विद नेचर” में कही है।

इस रिपोर्ट में जो बड़ी बातें निकलकर सामने आई हैं उनके अनुसार पिछली सदी में बढ़ती पर्यावरणीय चुनौतियों के बारे में लोगों में जागरूकता बढ़ी है। हालांकि इसके बावजूद प्रकृति को बचाने के लिए हम मनुष्य पर्याप्त कार्रवाई नहीं कर रहे हैं। इसी तरह हमारी नीतियों में अभी भी इंसान और प्रकृति को अलग करके देखा गया है, लेकिन देखा जाए तो हम मनुष्य भी इसी प्रकृति का हिस्सा हैं।

रिपोर्ट के मुताबिक हम इंसान किसी भी अन्य जीव या शक्तियों की तुलना में धरती को सबसे ज्यादा प्रभावित कर रहे हैं, जिसने एक नए युग की शुरुआत कर दी है। इस युग को वैज्ञानिकों ने एंथ्रोपोसीन का नाम दिया है। ‘एन्थ्रोपोसीन’ यानी मनुष्य का युग, मुनष्य और प्रकृति के बीच बढ़ती दरार को प्रदर्शित करता है

रिपोर्ट के मुताबिक हाल के दशकों में प्राकृतिक पारिस्थितिक तंत्र पर इंसानी प्रभाव बढ़ता जा रहा है जो मानव समाज के लिए भी खतरा है।

प्रकृति से अलग नहीं अपितु उसका हिस्सा हैं इंसान

देखा जाए तो यह बढ़ती इंसानी महत्वाकांक्षा का ही नतीजा है कि धरती पर नौ टिप्पिंग पॉइंट सक्रिय हो चुके हैं। इनमें से कुछ तो विनाशकारी सीमा तक बढ़ चुके हैं। विशेषज्ञों की माने तो यह टिपिंग पॉइंटस विनाश की ड्योढ़ी हैं, जिसपर पहुंचने के बाद धरती पर विनाशकारी परिणाम सामने आएंगे।

जर्नल नेचर के मुताबिक अब तक नौ टिप्पिंग पॉइंट सक्रिय हो चुके हैं। इनमें अमेजन वर्षावन, आर्कटिक में जमा समुद्री बर्फ, अटलांटिक सर्कुलेशन, उत्तर के जंगल (बोरियल वन), कोरल रीफ्स, ग्रीनलैंड में जमा बर्फ की चादर, परमाफ्रॉस्ट, पश्चिम अंटार्कटिक बर्फ की चादर और विल्क्स बेसिन, शामिल हैं।

जलवायु में आता बदलाव ऐसा ही एक गंभीर मुद्दा है, जो आज एक बड़ी समस्या बन चुका है। वैज्ञानिकों ने भी माना है कि जलवायु टिपिंग प्वाइंट्स को पार करने की दुनिया को तीन गुणा कीमत चुकानी पड़ सकती है। रिसर्च से पता चला है कि यदि यह टिपिंग प्वाइंट्स अपनी सीमा को पार कर जाते हैं तो पिछले अनुमानों की तुलना में जलवायु परिवर्तन से होने वाले आर्थिक नुकसान में करीब 25 फीसदी का इजाफा हो सकता है।

वैश्विक तापमान में होती वृद्धि पहले ही 1.2 डिग्री सेल्सियस पर पहुंच चुकी है। ऐसे में एक बार यदि यह सीमा डेढ़ डिग्री सेल्सियस की सीमा को पार कर जाती है तो उसके कहीं ज्यादा गंभीर परिणाम चुकाने होंगे। वैज्ञानिकों ने आशंका व्यक्त की है कि जिस तरह से तापमान में वृद्धि हो रही है उसके चलते यह सीमा अगले कुछ वर्षों में पार हो जाएगी।

गौरतलब है कि शोधकर्ताओं ने इन टिपिंग प्वाइंट्स में भारतीय मानसून और उसमें आ रहे बदलावों को भी शामिल किया है जो वैश्विक स्तर पर नुकसान में होने वाली 1.3 फीसदी की वृद्धि के लिए जिम्मेवार हैं। संयुक्त राष्ट्र ने भी इस बात पर जोर दिया है कि जलवायु में आ रहे बदलावों से निपटने के लिए तुरंत कड़े कदम उठाने होंगे।

रिपोर्ट के मुताबिक बदलाव का पैमाना अभूतपूर्व है। वैज्ञानिकों ने पहले ही सामूहिक विलुप्ति की छठी घटना को लेकर आगाह कर दिया है जो सदी के अंत तक कई प्रजातियों के विलुप्त होने का कारण बन सकती है।

इंसानी हस्तक्षेप का दंश झेल रहा है धरती का 75 फीसदी हिस्सा

एक हालिया अनुमान के मुताबिक यदि जैव विविधता पर इंसानी प्रभाव को इसी से समझा जा सकता है कि धरती पर मौजूद कुल स्तनपायी जीवों में इंसान 36 फीसदी, मवेशी 60 फीसदी और जंगली स्तनधारी जीव केवल चार फीसदी ही हैं। इतना ही नहीं धरती पर मौजूद जैवविविधता भी बढ़ते इंसानी प्रभावों का दंश झेल रही है। रिपोर्ट के मुताबिक 75 फीसदी स्थलीय और 66 फीसदी समुद्री वातावरण आज बढ़ते इंसानी हस्तक्षेप के चलते गंभीर बदलावों का सामना कर रहा है।

ऐसे में रिपोर्ट ने सिफारिश की है कि इंसानों को प्रकृति के साथ अपने बिगड़ते रिश्तों में सुधार लाने की जरूरत है, जिससे हम भी इस प्रकृति का हिस्सा बन सकें।  इसकी मदद से हमारा भौतिक परिवेश और जैवविविधता फल-फूल सकेगी।

रिपोर्ट पर टिप्पणी करते हुए, प्रोफेसर टॉम ओलिवर का कहना है कि, "हमें यह पहचानने की तत्काल आवश्यकता है कि हम इस प्रकृति का अभिन्न हिस्सा हैं, और इससे अलग नहीं हैं। उनके अनुसार यदि हमें जलवायु परिवर्तन और पर्यावरण में आती गिरावट के दुष्परिणामों से बचना है तो हमें अपनी कार्यशैली में बदलाव लाना होगा। उनका कहना है कि यह समय साहसिक कार्रवाई के साथ प्रकृति के साथ बिगड़ते संबंधों में सुधार का है।

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