ग्रामीण भारत के लिए बाढ़ व सूखे से भी ज्यादा नुकसानदायक थी कोविड-19 की दूसरी लहर

दूसरी लहर में किसानों और खेतिहर मजदूरों के संक्रमित होने के कारण ग्रामीण सप्लाई चेन पर असर पड़ा, ऐसा पहली लहर के दौरान नहीं हुआ था

By Richard Mahapatra, Shagun
Published: Tuesday 03 August 2021
लीची के लिए मशहूर बिहार के मुजफ्फरपुर जिले में आवागमन पर लगे प्रतिबंध के कारण व्यापारियों की गतिविधियां ठप रहीं। लीची की खरीद न हाे पाने के कारण न केवल किसानों की आमदनी पर असर पड़ा बल्कि लीची को पैक करने के लिए लकड़ी के बॉक्स बनाने वाले हजारों कारीगरों का रोजगार भी प्रभावित हुआ (फोटो: मो. इमरान खान)

महामारी का कर्व गांवों में कभी समतल नहीं हुआ। कोरोनावायरस संक्रमण की दूसरी लहर के सुदूर इलाकों में पहुंचते ही विशेषज्ञ देश की लगभग 50 करोड़ से अधिक ग्रामीण आबादी के दुष्चक्र में फंसने की आशंका जता रहे हैं। पिछले एक साल से महामारी पूरी दुनिया को तबाह कर रही है और तब से ही ग्रामीण भारतीय, जो अधिकतर असंगठित मजदूर हैं और हर परिभाषा के हिसाब से गरीब हैं, को नियमित रोजगार नहीं मिला है। कोविड-19 की दूसरी लहर के दौरान जब ग्रामीण इलाकों में संक्रमण के मामले अधिक आ रहे हैं तो उनके लिए आर्थिक संकट और बढ़ गया है। साथ ही, बीमारी के इलाज पर हो रहे खर्च ने उनकी आमदनी व बचत को नुकसान पहुंचाया है।

एक स्वतंत्र रिसर्च संस्थान सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी (सीएमआईई) के अनुसार, इस बार ग्रामीण इलाकों से भी नौकरियों के जाने और बेरोजगारी बढ़ने की बात सामने आ रही है, जबकि पिछले साल ऐसा नहीं हुआ था। सीएमएआई के ताजा आंकड़े बताते हैं कि पिछले साल देशव्यापी लॉकडाउन के बाद जून 2020 में राष्ट्रीय बेरोजगारी दर ऐतिहासिक स्तर पर थी, जो पहले कभी नहीं देखी गई। कोरोना की दूसरी लहर के चलते 16 मई 2021 को समाप्त सप्ताह के आंकड़े बताते हैं कि राष्ट्रीय बेरोजगारी दर जून 2020 के लगभग बराबर थी। लेकिन इस बार खास बात यह रही कि शहरी इलाकों में बेरोजगारी दर 14.71 फीसदी थी, जबकि ग्रामीण इलाकों में 14.34 फीसदी थी। मई में भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा जारी मासिक बुलेटिन में कहा गया, “महामारी की वजह से श्रम भागीदारी दर में गिरावट आई है। यह 2019-20 में 42.7 प्रतिशत थी। अब वह गिरकर 39.9 फीसदी पहुंच चुकी है।”

 बेरोजगारी दर के इस उच्च स्तर (खासकर ग्रामीण क्षेत्र में) को बड़ा परिवर्तन माना जा रहा है। जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय, दिल्ली के अर्थशास्त्र के पूर्व प्रोफेसर और यूनिवर्सिटी ऑफ बाथ के सेंटर फॉर डेवलपमेंट के विजिटिंग प्रोफेसर संतोष मेहरोत्रा कहते हैं, “2017-18 में बेरोजगारी दर पिछले 45 साल के मुकाबले सबसे अधिक थी, लेकिन कोविड-19 ने इसे और बढ़ा दिया है।” अलग-अलग अनुमान बताते हैं कि कोविड-19 की दूसरी लहर ने असंगठित क्षेत्र को सबसे अधिक प्रभावित किया है। मेहरोत्रा कहते हैं कि इस लहर में किसानों और खेतिहर मजदूरों के संक्रमित होने के कारण ग्रामीण सप्लाई चेन पर असर पड़ा, ऐसा पहली लहर के दौरान नहीं हुआ था। हालांकि इस बार देशव्यापी लॉकडाउन नहीं था, लेकिन सभी राज्यों ने आवागमन और गतिविधियों पर पाबंदी लगाई। पिछले साल की तरह सख्ती नहीं थी, लेकिन राज्यों ने अपने-अपने राज्य और जिलों की परिस्थितियों के हिसाब से पाबंदियां लगाईं।

गौर करने वाली बात है कि लगभग 50 प्रतिशत भारतीयों को रोजगार देने वाले कृषि क्षेत्र ने कोविड-19 की पहली लहर में 3.5 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज की थी, लेकिन कोविड की दूसरी लहर में इस पर बुरा असर देखने को मिल रहा है। जहां तक ग्रामीण क्षेत्र में रोजगार की बात है तो लगभग 60 फीसदी लोग अब भी कृषि क्षेत्र पर निर्भर हैं। लेकिन यह कार्य बल ग्रामीण क्षेत्र की कुल आमदनी का केवल एक चौथाई ही कमा पाता है। इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि कृषि क्षेत्र पर निर्भर आबादी की आमदनी काफी कम है। महामारी के इस दौर में रबी सीजन के दौरान ऐसा साफ तौर पर देखने में भी आ रहा है और आने वाले खरीफ सीजन में भी इसका असर देखा जा सकता है।

किसानों ने बड़े उत्साह से रबी सीजन के फसलों की बुवाई की थी, लेकिन जैसे ही अप्रैल 2021 में इन फसलों की कटाई और बिक्री का समय आया, एक बार फिर से कोरोनावायरस संक्रमण तेजी से फैला और राज्यों ने अपने स्तर पर लॉकडाउन की कार्रवाई शुरू कर दी, इसके चलते मंडियां और थोक बाजार बंद हो गए और किसान अपनी फसल नहीं बेच पाए। परिवहन की व्यवस्था न होने के कारण लगभग सभी इलाकों में किसान अपनी फसल मंडियों तक नहीं पहुंचा पाए।

पिछले साल देशव्यापी लॉकडाउन था और पाबंदियां भी काफी सख्त थी, इसके बावजूद गांव की स्थानीय मंडियों में किसी तरह की पाबंदी नहीं थी। इसका कारण यह था कि ग्रामीण इलाकों में संक्रमण की दर बहुत ही कम थी और ग्रामीण अपना काम पूरी मुस्तैदी से कर पा रहे थे। गेहूं की सबसे अधिक खरीद करने वाले पंजाब और हरियाणा में गेहूं के उठान का काम भी पूरी तरह से हो गया था। लगभग यही स्थिति गेहूं उत्पादक राज्य मध्य प्रदेश उत्तर प्रदेश और राजस्थान में भी देखने को मिली। लेकिन अगर 1 से 20 मई 2021 के गेहूं आवक के आंकड़ों की तुलना पिछले साल के इसी अवधि से की जाए तो निराशाजनक तस्वीर सामने आती है। सरकारी पोर्टल एग मार्केट के मुताबिक, मध्य प्रदेश में पिछले साल 1 से 20 मई की तुलना में इस साल लगभग 23 लाख टन (77 फीसदी) गेहूं की आवक कम हुई। उत्तर प्रदेश में यह कमी लगभग 36 प्रतिशत की है।

किसानों और किसान उत्पादक संगठनों के लिए वेयरहाउस और फाइनैंस उपलब्ध कराने वाले प्लेटफॉर्म आर्या के मुख्य कार्यकारी अधिकारी एवं को-फाउंडर प्रसन्ना राव कहते हैं कि राजस्थान, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र में लगभग 50 फीसदी गेहूं अलग-अलग जगह फंसा हुआ है। मध्य प्रदेश में लगभग 76 प्रतिशत सोयाबीन की आवक में कमी आई है। वह कहते हैं कि फसलों व जिंसों की भारी आवक की वजह से हमारे लिए मई माह बहुत व्यस्त रहता है, लेकिन इस बार ऐसा कुछ नहीं हुआ। इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि किसान इस बार अपनी फसल बेचने में सफल नहीं हो पाए जो उनकी आजीविका को प्रभावित करेगा।

महाराष्ट्र में प्याज रबी सीजन की फसल है, लेकिन किसान इसे बेच नहीं पा रहे हैं। यहां तक कि एशिया की सबसे बड़ी लासलगांव प्याज मंडी लगभग 25 दिन तक बंद रही। हालांकि प्याज लंबे समय तक रहने वाली फसल है, इसके बावजूद बेमौसम बारिश के कारण प्याज में फंगस लग गई, जिसने किसानों की चिंता बढ़ा दी। किसान एवं महाराष्ट्र राज्य प्याज उत्पादक संगठन के सदस्य भारत दिघोले कहते हैं कि राज्य के लगभग 40 फीसदी प्याज किसान अपनी फसल नहीं बेच पाए हैं। इसके चलते उनके पास अगली फसल के लिए न तो बीज का पैसा है और न ही खाद का। किसान अगली फसल के रूप में गन्ना, सोयाबीन और गोभी लगाएंगे, लेकिन इस समय किसानों के पास नगदी ही नहीं है। किसानों की दूसरी चिंता यह है कि जैसे ही मंडी खुलेगी तो आवक में एकदम से तेजी आएगी, जिससे कीमतें काफी कम हो जाएंगी।

यह सीजन बागवानी फसलों का भी है जैसे लीची और आम। पश्चिम बंगाल के मालदा इलाका आम के लिए जाना जाता है। यहां के आम के उत्पादक किसानों के लिए मौसम बहुत अच्छा रहा जिस वजह से इस बार आम का बंपर उत्पादन हुआ है। इस जिले में लगभग 33,000 हेक्टेयर क्षेत्र में आम लगाया जाता है और फजली, हिमसागर और लक्ष्मणभोग, आम्रपाली सहित आम की दर्जनों प्रजातियां बहुतायत में पाई जाती हैं। यहां से नजदीकी राज्य बिहार झारखंड, असम, त्रिपुरा में आम की आपूर्ति की जाती है। लेकिन जैसे ही आम तोड़ने का पीक सीजन आया, कोविड-19 की दूसरी लहर शुरू हो गई। कृषि विशेषज्ञों का कहना है कि जून में लगभग 3.50 लाख टन फल पककर तैयार हो गया।

मालदा मैंगों मर्चेंट्स एसोसिएशन के अध्यक्ष उज्ज्वल साहा कहते हैं कि जून में मालदा वैरायटी का कई प्रमुख मंडियों में इंतजार किया जाता है। उत्पादन के समय में किसानों को आमों का खास खयाल रखना पड़ता है और कीड़ों और फंगल के संक्रमण से बचाने के लिए कीटनाशकों का इस्तेमाल करना पड़ता है, लेकिन इस बार कोविड-19 के डर से प्रशिक्षित मजदूर बागानों में आने से इनकार करते रहे। आशंका है कि इससे आम की गुणवत्ता प्रभावित हुई और बिक्री पर असर पड़ा।

इंडियन काउंसिल ऑफ एग्रीकल्चर रिसर्च-सेंट्रल इंस्टीयूट फॉर सब-ट्रॉपिकल हॉर्टिकल्चर, मालदा से जुड़े दीपक मंडल कहते हैं कि कोविड-19 की वजह से अंतरराज्यीय परिवहन पर पूरी तरह पाबंदी लग गई। इसलिए दूसरे राज्यों में आम भेजने का काम पूरी तरह रुका रहा। उनका आकलन है कि पिछले साल की पाबंदियों और अंफान चक्रवात की वजह से मालदा के किसानों को लगभग 1,500 करोड़ रुपए का नुकसान हुआ था और कोविड-19 की दूसरी लहर ने यहां के किसानों की चिंता और बढ़ा दी है।

हालांकि कोविड-19 के मामले और मौतों के बढ़ने के बावजूद यह उम्मीद जताई जा रही है कि कृषि क्षेत्र बेहतर प्रदर्शन करेगा, क्योंकि भारतीय मौसम विज्ञान विभाग का अनुमान है कि साल 2021 में मॉनसून सामान्य रहेगा। मेहरोत्रा कहते हैं कि यह सही है कि इस बार मॉनसून अच्छा होगा, फिर भी कृषि क्षेत्र का प्रदर्शन उतना अच्छा नहीं होगा, जितना पिछले साल रहा था। यदि लोग बीमार हैं तो वे काम करने में सक्षम नहीं रहेंगे। इससे उनकी आमदनी पर असर पड़ेगा। पिछले साल लॉकडाउन की वजह से शहरों से लौटे मजदूर हालात सामान्य होने के बाद फिर से शहर चले गए थे। दूसरी लहर में शहरों में काम न होने पर ये मजदूर पिछले साल की तरह लौट तो आए हैं, लेकिन हालात पिछले साल से ज्यादा खराब हैं।

यह बात पंजाब-हरियाणा जैसे राज्य में सच दिखती है। पिछले साल जो खेतिहर मजदूर अपने गांव लौट गए थे, ठेकेदार खुद से ट्रांसपोर्ट का इंतजाम करके उन्हें वापस काम पर ले आए थे। लेकिन यह स्थिति तब ही संभव है, जब ये मजदूर कोविड-19 के संक्रमण से बचे हुए हों और सेहतमंद हों। यहां एक और बात गौर करने लायक है कि कोविड-19 खासकर दूसरी लहर के बाद खेती में महिलाओं की हिस्सेदारी कम दिख रही है। आंकड़े बताते हैं कि बुआई के वक्त खेतों में महिलाओ की हिस्सेदारी 80 फीसदी के आसपास रहती है। एक गैर लाभकारी औद्योगिक संगठन रूरल मार्केटिंग एसोसिएशन ऑफ इंडिया के संस्थापक प्रदीप कश्यप कहते हैं कि जैसे ही ग्रामीण भारत में कोरोनावायरस संक्रमण की दर बढ़ने लगी, हमने देखा कि खेती में महिलाओं की हिस्सेदारी कम होने लगी। या तो ये महिलाएं अपने परिवार के सदस्यों की देखभाल में जुट गईं या इसलिए काम पर नहीं आई, ताकि स्वस्थ रह कर वे अपने परिवार वालों की देखभाल कर सकें।

खाद्य सुरक्षा पर संकट

इंडियन काउंसिल ऑफ एग्रीकल्चरल रिसर्च (आईसीएआर) ने 20 मई को एक एडवाइजरी जारी की, जिसमें कहा गया कि कोविड-19 की दूसरी लहर की वजह से कृषि उत्पादन, राष्ट्रीय खाद्य एवं पोषण सुरक्षा पर असर पड़ सकता है। फिच समूह की कंपनी इंडियन रेटिंग्स एंड रिसर्च के प्रिंसिपल इकोनॉमिस्ट सुनील कुमार सिन्हा ने एक बयान में कहा कि ग्रामीण भारत के लिए यह समस्या बहुत बड़ी है, लेकिन नीतियों में सुधार न के बराबर है। हम लोग शहरों में ऑक्सीजन और आईसीयू के लिए संघर्ष कर रहे हैं। साथ ही, ग्रामीण भारत में वेतनभोगी लोगों की नौकरियां जाने से कई सेक्टरों पर असर पड़ेगा।

ग्रामीण अर्थव्यवस्था पर असर पड़ने से पूरी अर्थव्यवस्था प्रभावित होती है। क्रेडिट रेटिंग एजेंसी इंडिया रेटिंग्स एंड रिसर्च (आईएन-डीआरए) का कहना है कि ग्रामीण भारत में मांग में कमी आने के कारण कोरोना की दूसरी लहर का भारत की अर्थव्यवस्था पर बुरा असर पड़ सकता है, जिसके जल्दी पटरी पर आने की संभावना भी कम है। पहली लहर के दौरान ग्रामाणों द्वारा उपभोग पर किए गए खर्च की वजह से देश की अर्थव्यवस्था पर बहुत अधिक प्रभाव नहीं पड़ा, क्योंकि 2021 के शुरुआती महीनों तक ग्रामीण इलाकों में संक्रमण काफी कम था।

लेकिन दूसरी लहर के दौरान देश के आधे से अधिक ग्रामीण जिलों में पॉजिटिविटी रेट 10 फीसदी से अधिक होने के कारण ग्रामीण परिवारों द्वारा खर्च कम किए जाने के कारण हालात बिगड़ने लगे हैं। ऐसा तब है, जबकि कृषि उत्पादन और आमदनी पिछले साल जैसी ही है। इस तरह की प्रवृति देखने में आती रही है कि बीमारी के डर से लोग अपना खर्च कम कर देते हैं। एक इंटरनेशनल डेवलपमेंट कंसलटेंट अभिरूप भुनिया कहते हैं कि इस साल ग्रामीण क्षेत्रों में मांग और खपत कम होने के कारण हमें काफी नुकसान पहुंचा है, जबकि 2020 में ग्रामीण क्षेत्रों की मांग ने हमें बचाया था। इस बार हालात ऐसे हैं कि बीमारी के कारण इलाज पर खर्च काफी बढ़ गया, जिस वजह से ग्रामीणों को दूसरे खर्चों में कटौती करनी पड़ी।

भारत में स्वास्थ्य पर होने वाले कुल खर्च में सरकार की हिस्सेदारी 27.1 फीसदी है, जबकि 62.4 प्रतिशत खर्च लोगों की ओर से किया जाता है। भुनिया कहते हैं कि यही वजह है कि लोगों ने इलाज पर हो रहे भारी खर्च को देखते हुए उपभोग पर किए जाने वाले खर्च में कमी कर दी। इलाज पर हुए भारी खर्च की वजह से उन्हें कर्ज तक लेना पड़ा। इलाज के लिए लिया जाने वाला कर्ज दूसरे कर्जों से अलग होता है। आईएन-डीआरए का कहना है, “चूंकि यह कर्ज बीमार के इलाज के लिए लिया जाता है और बीमारी व्यक्ति के काम करने की क्षमता को भी सीमित कर देती है। इससे घरेलू बचत में कमी आती है और आर्थिक स्थिति पर बुरा प्रभाव पड़ता है।”

यह भारी भरकम खर्च लाखों लोगों को गरीबी की रेखा से नीचे (बीपीएल) की ओर पहुंचा सकता है। मेहरोत्रा कहते हैं कि एक दशक पहले ग्रामीण क्षेत्रों में गरीबों की जितनी संख्या थी, इसमें लगभग 10 फीसदी इजाफा हो सकता है। 2012 में भारत में कुल ग्रामीण आबादी में से 26 फीसदी गरीब थे। इस साल इसमें लगभग 10 फीसदी का इजाफा हो सकता है। जब गरीबी इस दर से बढ़ती है तो मांग में कमी होने की पूरी आशंका है। और अगर ऐसा होता है तो संगठित क्षेत्र भी प्रभावित होगा। उन्होंने कहा कि संगठित क्षेत्र अच्छा प्रदर्शन कर रहा है लेकिन अगर गरीबी बढ़ती है और मजदूरी कम होती है तो मांग पर असर पड़ता है।

यह संगठित क्षेत्र के लिए भी चिंता की बात हो सकती है। इसका मतलब यह है कि निवेश कम हो जाएगा और अगले 3 से 5 साल के दौरान जीडीपी 5 प्रतिशत से नीचे रह सकती है। कश्यप कहते हैं कि 2020 में लॉकडाउन के बाद शहरों में काम न होने के लोग प्रवासी अपने घर लौट गए थे। गांव पहुंचते ही उन्हें महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार अधिनियम (मनरेगा) का काम मिल गया। जबकि उनके पास कुछ बचत का पैसा था, लेकिन दुर्भाग्यवश इस बार ऐसा नहीं हुआ। लॉकडाउन खुलने के बाद प्रवासी शहरों में वापस तो आए, लेकिन उन्हें शहरों में भरपूर काम नहीं मिला। कोरोना की दूसरी लहर के कारण जब वे गांव लौटे तो उन्हें गांव में भी काम नहीं मिला।

केंद्र सरकार की स्वायत्तशासी संस्था इंस्टिट्यूट ऑफ इकोनामिक ग्रोथ (आईआईजी) के प्रोफेसर प्रभाकर साहू कहते हैं कि इस समय देश में लगभग 29 खरब रुपए सर्कुलेशन (चलन) में हैं। जो नोटबंदी के दौरान बंद हुई राशि के मुकाबले लगभग दोगुना है। जब नौकरियां और आमदनी कम हो रही है तो फिर इतने पैसे की क्या जरूरत है? साहू कहते हैं कि यह निराशा में निकाला गया पैसा है। वह कहते हैं कि लोग अब पैसा निकाल रहे हैं, क्योंकि उनकी आय कम हो रही है और वे अपनी बचत पर निर्भर रहने को मजबूर हैं। यह बुरा संकेत है। इससे उपभोग का स्तर नीचे जाएगा।

ग्रामीण अर्थव्यवस्था में सुस्ती

देश की जीडीपी में ग्रामीण अर्थव्यवस्था का कुल हिस्सा लगभग 30 प्रतिशत का है। ग्रामीण अर्थव्यवस्था में कृषि की भागीदारी एक तिहाई है, जबकि शेष हिस्सा गैर कृषि संबंधी कार्यों का है, जिसमें उद्योग और सेवा क्षेत्र भी शामिल है। विशेषज्ञों का कहना है कि गैर कृषि क्षेत्र लगभग बंद पड़ा है। खेतीबाड़ी में मजदूरों की संख्या भी काफी कम है। मनरेगा भी काम की सारी मांग को पूरा नहीं कर सकता। आईईजी के प्रोफेसर अरूप मित्रा कहते हैं कि इस बार कोविड-19 गांव में अपनी पूरी पैठ बना रहा है जिसकी वजह से ग्रामीण अर्थव्यवस्था को चलाने के लिए स्वस्थ श्रमिकों का अभाव देखने को मिल रहा है।

कोविड-19 का जो असर लोगों की आमदनी और अर्थव्यवस्था पर पड़ा है, वह किसी भी प्राकृतिक आपदा जैसे अलनीनो और सूखे से होने वाले नुकसान से कहीं ज्यादा है। ज्यादातर गैर कृषि कार्य, जैसे ऑटो रिक्शा, साइकिल, ट्रैक्टर आदि की रिपेयरिंग, भवन निर्माण, परिवहन और स्टोरेज जैसे कामों में ज्यादा से ज्यादा लोगों की जरूरत होती है। लेकिन इस बार ये काम लगभग ठप पड़े हैं। यही वजह है कि पिछले सालों के मुकाबले इस साल ग्रामीण क्षेत्र की आर्थिकी के दोनों कार्यों- कृषि व गैर कृषि गतिविधियों से होने वाली आमदनी में गिरावट आई है।

आईएन-डीआरए के मुताबिक, अप्रैल-अगस्त 2020 के दौरान औसत कृषि मजदूरी में 8.5 प्रतिशत हुई वृद्धि थी, जो नवंबर 2020 से मार्च 2021 के दौरान घटकर 2.9 प्रतिशत रह गई। इसी तरह गैर कृषि गतिविधियों से मिलने वाली मजदूरी में भी गिरावट आई। नवंबर 2020 से लेकर मार्च 2021 के दौरान गैर कृषि औसत मजदूरी में वृद्धि 5.2 प्रतिशत रही, जो अप्रैल-अगस्त 2020 के दौरान 9.1 प्रतिशत थी।

उल्लेखनीय है कि पिछले साल ग्रामीण क्षेत्र में महामारी का असर कम होने के बावजूद केंद्र सरकार ने कई तरह की घोषणा की थी, लेकिन इस साल इस तरह की कोई भी घोषणा नहीं की गई। साहू कहते हैं कि बेशक पिछले साल की गई घोषणाएं पूरी तरह सही नहीं थी, फिर भी इसने कुछ तो सकारात्मक असर दिखाया था। यहां तक कि सूक्ष्म, लघु और मझोले दर्ज (एमएसएमई) की औद्योगिक इकाइयों को पिछले साल काफी राहत मिली थी और लॉकडाउन खुलने के बाद काम शुरू हो गया था, लेकिन इस साल अब तक कोई घोषणा नहीं की गई। वह कहते हैं कि पिछले साल भारतीय रिजर्व बैंक के माध्यम से एमएसएमई क्षेत्र को लोन सहित कई तरह की राहतें प्रदान की गई थी, लेकिन अब जब बाजार में मांग नहीं है और ये उद्योग चल नहीं पा रहे हैं तो सरकार की ओर से कोई राहत प्रदान नहीं की जा रही है।

अर्थशास्त्रियों का कहना है कि सरकार को ग्रामीण के साथ-साथ शहरी क्षेत्र में रह रहे कम आय वाले परिवारों के लिए व्यापक योजनाओं की घोषणा करनी चाहिए।

मित्रा कहते हैं कि शहरों में असंगठित क्षेत्र और ग्रामीण क्षेत्रों में गैर कृषि क्षेत्र में काम कर रहे लोगों को आजीविका प्रदान करने के लिए सरकार को विशेष ध्यान देना चाहिए। यदि ऐसा नहीं किया गया तो इसके गंभीर परिणाम हो सकते हैं। आने वाले समय में असमानता बढ़ेगी, जो भविष्य के लिए ठीक नहीं होगा। मेहरोत्रा कहते हैं कि मनरेगा की तरह शहरों में रोजगार गारंटी योजना के तहत काम दिन जाने की जरूरत है।

वह कहते हैं कि ऐसे समय में कमजोर आय वर्ग के लोगों को न्यूनतम आय की गारंटी और नकद हस्तांतरण की भी जरूरत है। मेहरोत्रा कहते हैं, “शहरों में यदि रोजगार गारंटी योजना शुरू की जाती है तो इससे मनरेगा का बोझ कम होगा और शहरी मजदूरों को शहरों में ही रोका जा सकेगा।”

“महामारी के दबाव में लोग पैसे निकाल रहे हैं, बचत घट रही है”

प्रवाकर साहू

ग्रामीण इलाकों में ज्यादातर लोग अपनी आमदनी और रोजगार खो चुके हैं। इस बार सरकार और नीति निर्धारक उलझे हुए हैं। अस्पताल के बिस्तर, ऑक्सीजन, और अन्य चीजों के अलावा दूसरी चीजों पर ध्यान ही नहीं केंद्रित कर सकते हैं। पिछले साल राजकोषीय प्रोत्साहन और अन्य उपायों के कारण सुधार बहुत तेज था। संभव है कि वे उपाय बहुत अच्छे न रहे हों, फिर भी उन्होंने कुछ हद तक काम जरूर किया था। पिछली बार आवंटन में ग्रामीण क्षेत्र को महत्व दिया गया था, और इसलिए ग्रामीण अर्थव्यवस्था किसी तरह से दुरुस्त हो गई थी। इस बार, घोषणाएं केवल पीडीएस के जरिए भोजन तक ही सीमित हैं। लेकिन वह जीवन जीने के लिए जरूरी है, न कि सुधार के लिए। सरकार ने आरबीआई के माध्यम से एमएसएमई को कर्ज संबंधी कुछ रियायतें दी हैं, लेकिन जब कोई मांग ही नहीं है और आपके उद्यम बंद हैं, तब इन सभी रियायतों से कोई लाभ नहीं मिल पाएगा।

आज प्रचलन में पैसा या जनता के पास पैसा 29 खरब (ट्रिलियन) रुपये है। यह नोटबंदी (डिमोनेटाइजेशन) से पहले की तुलना में 50 प्रतिशत से ज्यादा है। ऐसे समय में जब नौकरियां चली गई हैं, कोई आमदनी नहीं है, विकास कार्य हो नहीं रहे हैं, पैसे की मांग बहुत ज्यादा है। क्यों? ऐसा इसलिए है, क्योंकि लोग नकदी निकाल रहे हैं। इसका सीधा सा मतलब है कि यह पैसे के दबाव के चलते होने वाली निकासी है। लोग अपना पैसा निकाल रहे हैं, वे एक अनिश्चित स्थिति में हैं, उनकी आमदनी खत्म हो गई है और अब वे जिंदगी चलाने के लिए अपनी बचत के पैसे निकाल रहे हैं। यह बुरा संकेत है। इससे उपभोग का स्तर और घटेगा। (लेखक इंस्टीट्यूट ऑफ इकोनॉमिक ग्रोथ में प्रोफेसर हैं)

“ग्रामीण अर्थव्यवस्था में इस बार अतिरिक्त पैसा नहीं पहुंचा है”

प्रदीप कश्यप

इस बार प्रभाव बहुत ज्यादा बुरा होगा। पिछले साल जब ग्रामीण मजदूर घर लौटे थे, तो उनके पास शहरों से निकलने के पहले तक कम से कम काम था। इसलिए उनके पास कुछ बचत के पैसे भी थे। यह ग्रामीण भारत ही था, जिसने पिछले साल हमें बचा लिया था। मजदूरों के हाथ में नकदी थी और इस प्रकार ग्रामीण अर्थव्यवस्था में अतिरिक्त पैसा पहुंचा था। दुर्भाग्य से इस बार उनमें से कई तो अब भी बेरोजगार हैं और उनमें भी अधिकांश बगैर किसी बचत के वापस लौटे हैं, इसलिए ग्रामीण अर्थव्यवस्था में कोई अतिरिक्त पैसा नहीं आया है।

अर्थव्यवस्था बिखरी हुई है। नौकरियों को वापस पाने, आमदनी शुरू करने में एक लंबा वक्त लगने वाला है, इसलिए उपभोक्ता की ओर से मांग नहीं पैदा होने जा रही है। इस बार ग्रामीण अर्थव्यवस्था भी देश पर बहुत दबाव डालने वाली है। इसलिए, मुझे अर्थव्यवस्था को लेकर बहुत ज्यादा उम्मीदें नहीं दिखाई देती हैं। सीएमआईई के आंकड़े बताते हैं कि कृषि में रोजगार बढ़ा है। पिछले 10 वर्षों में यह लगातार 1-1.5 प्रतिशत की रफ्तार से घट रहा था। लेकिन अब यह अचानक 43 फीसदी से बढ़कर 46 फीसदी हो गया है। इसकी वजह यह है कि ग्रामीण क्षेत्रों में छिपी हुई बेरोजगारी का स्तर ऊंचा है। जो भी लोग गांव वापस लौटे हैं, उनके पास कोई काम नहीं है और वे अपने परिवार के साथ हैं। इसलिए वे अपनी पहचान किसान या कृषि मजदूरों के रूप में करते हैं, लेकिन वास्तव में वे उत्पादक नहीं हैं या वे बहुत ज्यादा प्रभाव भी नहीं डालते हैं।

(लेखक रूरल मार्केटिंग एसोसिएशन ऑफ इंडिया के संस्थापक हैं)

“महामारी ग्रामीण क्षेत्रों को नुकसान पहुंचाने वाली आपदाओं से ज्यादा बुरी”

अरूप मित्रा

ग्रामीण आजीविका के क्षेत्र में जो कुछ हो रहा है, वह सूखे जैसी आपदाओं से कहीं ज्यादा बुरा है। इस बार, पिछले साल की तरह मांग को शुरू करने के लिए कोई योजना या घोषणा नहीं हुई है। बीमारी को नियंत्रित करने और लोगों को घरों के अंदर रखने पर ज्यादा ध्यान दिया जा रहा है, ताकि यह बीमारी ज्यादा न फैले। हम नहीं जानते कि लॉकडाउन जैसी स्थितियां कब तक जारी रहेंगी। लेकिन इससे कोई इनकार नहीं कर सकता कि ग्रामीण क्षेत्रों में स्वास्थ्य का बुनियादी ढांचा वाकई नाजुक स्थिति में है। इस स्थिति को देखते हुए मैं सच में नहीं जानता कि मनरेगा कैसे अधिकतम स्तर तक बचाव के काम आ सकती है। विशेष रूप से, जब बीमारी ने गहरी जड़ें जमा ली हैं, तब मुझे नहीं पता है कि कैसे मनरेगा के तहत गतिविधियों को, विशेष रूप से निर्माण और बुनियादी ढांचे, जो बहुत जरूरी नहीं हैं और इंतजार कर सकती हैं, इजाजत दी जाएगी। रोजगार और आय में भारी गिरावट आएगी, जिसका अर्थव्यवस्था पर काफी गहरा असर पड़ने वाला है।

समस्या बहुत तेजी से विकराल होने वाली है। पिछली बार ग्रामीण क्षेत्रों में मांग के कारण गिरावट का दायरा काफी हद तक सीमित हो गया था। लेकिन इस बार मंदी को रोक पाना बहुत मुश्किल लग रहा है। पिछले साल की तुलना में इस साल कमाई का नुकसान बहुत ज्यादा है। गांवों का गैर-कृषि क्षेत्र भी बेरंग है। उम्मीद की किरणों को देख पाना बहुत मुश्किल है। कम से कम पिछले साल गांवों के गैर-कृषि क्षेत्र का कुछ हिस्सा काम कर रहा था, लेकिन वे संभावनाएं अब तो लगभग न के बराबर हैं। अगर अर्थव्यवस्था खुल भी जाती है, तो भी यह मजबूत तरीके से प्रदर्शन नहीं करने जा रही है, यह बहुत सीमित रहने वाली है, क्योंकि लोग अभी बहुत डरे हुए हैं। तो उस नजरिए से, यह स्वास्थ्य और रोजगार दोनों पहलुओं से अर्थव्यवस्था के लिए बड़ा धक्का है।

(लेखक इंस्टीट्यूट ऑफ इकोनॉमिक ग्रोथ में प्रोफेसर हैं)

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