मनरेगा में आधी से ज्यादा है आधी आबादी की हिस्सेदारी

2018-19 में मनरेगा के तहत काम करने वालों में महिलाअेां की हिस्सेदारी 54 फीसदी रही, जो पिछले कुछ सालों से लगभग इतनी ही है 

By Richard Mahapatra, Raju Sajwan
Published: Thursday 22 August 2019
Photo: Creative commons

महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (मनरेगा) अभी भी महिलाओं के रोजगार का बड़ा साधन साबित हो रहा है। वित्त वर्ष 2018-19 में भी मनरेगा के तहत रोजगार पहने वाली आधी आबादी की संख्या आधी से ज्यादा है। इस साल कुल रोजगार पाने वालों में महिलाएं 54 फीसदी से अधिक रहा। यह ट्रेंड पिछले कई सालों से लगभग बरकरार है।

दिलचस्प बात यह है कि अब तक जितने भी रोजगार के ऐसे सरकारी कार्यक्रम चले हैं, उनमें महिलाओं की भागीदारी अधिक नहीं रही है, जैसा कि मनरेगा में देखने को मिल रहा है। 1970 से लेकर 2005 के बीच भारत में 17 बड़े कार्यक्रम चलाए गए, जो रोजगार व स्वरोजगार पर केंद्रित थे। जैसे कि राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार कार्यक्रम, ग्रामीण भूमिहीन रोजगार गारंटी कार्यक्रम, जवाहर रोजगार योजना और रोजगार एश्योरेंस कार्यक्रम में महिलाओं की हिस्सेदारी एक चौथाई के आसपास रही।

स्वरोजगार कार्यक्रम में समेकित ग्रामीण विकास कार्यक्रम और ग्रामीण युवकों के लिए ट्रेनिंग कार्यक्रमों में महिलाओं की भागीदारी अच्छी रही है। जैसे कि- 2000 में 45 फीसदी महिलाओं को इन योजनाओं का लाभ मिला।

मनरेगा में महिलाओं की हिस्सेदारी को लेकर कई रोचक तथ्य हैं। जैसे कि राज्यों में चल रही मनरेगा परियोजनाओं में महिलाओं की हिस्सेदारी अलग ही कहानी कह रही है। केरला को ही लें, जहां कुल काम करने वालों (वर्क फोर्स) में महिलाओं की संख्या 15 फीसदी के आसपास है, लेकिन जब मनरेगा की शुरुआत हुई तो इस राज्य में 79 फीसदी महिलाओं ने मनरेगा के तहत काम किया, जो लगातार बढ़ रहा है और 2017-18 में 96 फीसदी तक पहुंच गया।

हालांकि 2018-19 में यह थोड़ा सा घटा है। इस साल 90.43 फीसदी महिलाओं ने मनरेगा के तहत काम किया। ग्रामीण विकास मंत्रालय की वार्षिक रिपोर्ट के मुताबिक केरल में मनरेगा के तहत साल भर 9 करोड़ 75 लाख दिन कुल काम किया गया। इसमें से महिलाओं ने 8 करोड़ 81 लाख दिन काम किया।

केरल के बाद तमिलनाडु ऐसा राज्य है, जहां महिलाओं ने अधिक काम किया। तमिलनाडु में 2018-19 में कुल 25.76 करोड़ दिन काम किया गया, जिसमें से महिलाओं की हिस्सेदारी कुल 22 करोड़ दिन काम किया। यानी कि महिलाओं की हिस्सेदारी 85 फीसदी रही। इसी तरह राजस्थान में भी यही ट्रेंड बरकरार है। जबकि इन तीनों राज्यों में वर्कफोर्स के मामले में महिलाओं की भागीदारी कम है।

वहीं, गरीब व घनी आबादी वाले राज्यों में चल रही मनरेगा परियोजनाओं में महिलाओं की हिस्सेदारी काफी कम है। 2018-19 में उत्तर प्रदेश में मनरेगा में महिलाओं की हिस्सेदारी केवल 35 फीसदी रही। हालांकि पिछले सालों के मुकाबले यह हिस्सेदारी बढ़ी है। वर्ष 2014-15 में उत्तर प्रदेश में महिलाओं की हिस्सेदारी केवल 24.41 फीसदी थी। बिहार में 2018-19 में महिलाओं की हिस्सेदारी 51 फीसदी रही, जो  पिछले सालों में बढ़ी है। ओडिशा में महिलाओं की हिस्सेदारी 41 है। यहां भी शुरू के सालों में महिलाओं की हिस्सेदारी 30 फीसदी से कम रही थी। इससे यह पता चलता है कि जरूरी नहीं कि गरीबी के दबाव के चलते महिलाओं को काम करने के लिए बाहर निकलना पड़ता है।

इसके अलावा यह भी साफ है कि जब मनरेगा में श्रमिकों की जरूरत होती है, उस समय धान की खेती का समय भी होता है तो ऐसे राज्य जहां धान की खेती अधिक होती है, वहां मनरेगा में महिलाओं की हिस्सेदारी अधिक नहीं रहती। ऐसे राज्यों में ओडिशा और पश्चिम बंगाल शामिल हैं।

2017 में जारी अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (आईएलओ) की रिपोर्ट में भी कहा गया है कि मनरेगा के तहत चल रही परियोजनाओं में बेशक जो पुरुष काम रहे थे, वे गरीब परिवार से थे, लेकिन महिलाओं के बारे में ऐसा नहीं कहा जा सकता।

इतना ही नहीं, आईएलओ के सर्वेक्षण में सामने आया कि जिस परिवार में मनरेगा में पुरुष काम कर रहे हैं, उस घर की आमदनी 65901 रुपए सालाना थी, जबकि जिस परिवार में महिला मनरेगा में काम करती है, उस घर की आमदनी 76734 रुपए सालाना रही। इसके साथ ही कामकाजी उम्र की केवल 13.4 फीसदी महिलाएं को काम के बदले पैसा मिलता है। यह स्पष्ट है कि ग्रामीण इलाकों में महिलाओं के रोजगार की संभावनाएं काफी कम हे, ऐसे में यदि उन्हें रोजगार उपलब्ध कराया जाता है तो इसका पूरा फायदा उठाती हैं। 

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