कोयला खदानों की नीलामी: राष्ट्रीय संपदा के केन्द्रीकरण की कोशिश!

18 जून 2020 को देश में पहली बार, अपनी तरह की पहली वाणिज्यिक कोयला नीलामी का आयोजन किया जा रहा है

By Satyam Shrivastava
Published: Tuesday 16 June 2020
फोटो: विकास चौधरी

11 जून 2020 को देश के कोयला मंत्री प्रहलाद जोशी ने एक ट्वीट के माध्यम से यह जानकारी दी कि ‘18 जून 2020 को देश में पहली बार, अपनी तरह की पहली वाणिज्यिक कोयला नीलामी का आयोजन किया जा रहा है। इस अवसर पर देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी मौजूद रहेंगे’।

इसी ट्वीट में उन्होंने यह भी बताया कि ‘यह नीलामी देश के प्रधानमंत्री के मार्गदर्शन में कोयले के क्षेत्र में ‘आत्मनिर्भर भारत’ बनाने की दिशा में उम्मीद की एक नयी किरण होगी’। उनके इसी ट्वीट में एक प्रचारनुमा पोस्टर भी चस्पा है जिसमें अंग्रेजी में लिखा है- अनलीजिंग कोल- न्यू होप फॉर आत्मनिर्भर भारत। 

हालांकि इस ट्वीट से केवल किसी आयोजन की खबर मिलती है। उसका ब्यौरा पीआईबी (पत्र सूचना कार्यालय) के सौजन्य से छपी खबर में दिये गए हैं। इसमें पूरी तफसील व इतमीनान से इस नीलामी की ऐतिहासिकता और इसमें निहित रोमांच के ब्यौरे मिलते हैं जो इस प्रकार हैं- 

ऐतिहासिक बताई जा रही नीलामी प्रक्रिया की आकर्षण - पीआईबी की विज्ञप्ति में बताया गया है यह नीलामी इसलिए ऐतिहासिक कही जा रही है क्योंकि इसके माध्यम से ‘देश का कोयला क्षेत्र बाधाओं की बेड़ियों से मुक्त होगा और प्रगति के नए अध्याय रचेगा’। 

‘जब से स्वनदर्शी और निर्णायक छवि के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ‘आत्मनिर्भर भारत’ का उद्घोष किया है तब से देश के कोयला क्षेत्र ने भी संरचनात्मक सुधारों के माध्यम से बड़े अभियान के लिए अपनी कमर कस ली है’। 

सवाल है कि इस नीलामी प्रक्रिया को किसी उत्सव की तरह क्यों मनाया या पेश किया जा रहा है? पहले भी तो कोयला खदानों की नीलामियां होती आयी हैं? इसके जवाब में बताया जा रहा है कि यह पहले की सरकारों में आयोजित हुई नीलामियों की तुलना में बिलकुल अलग होगी।

कैसे? इस सहज प्रश्न का जबाव भी इस विज्ञप्ति में दिया गया है कि

  • ‘पहले की सरकारें इस क्षेत्र को बहुत बांध कर रखती थीं, उनका अंतिम उपयोग और कीमतें बहुत संकीर्ण थीं। अब ऐसे कोई प्रतिबंध नहीं होंगे।
  • इस प्रस्तावित नीलामी में जो शर्तें लागू की जा रही हैं वो बहुत लचीली हैं ताकि नयी कंपनियां भी इस नीलामी में भागीदारी कर सकें। 
  • नीलामी के समय जमा होने वाली राशि की को घटाया गया है साथ ही रॉयल्टी के एवज में पेशगी की राशि का एडजस्टमेंट किया जाएगा।
  • कार्य क्षमताओं के पैमानों को उदार बनाया गया है, ताकि कोयला खदान के संचालन में लचीलेपन को प्रोत्साहित किया जा सके। नीलामी की प्रक्रिया पारदर्शी होगी। 
  • नेशनल कोल इंडेक्स के आधार पर ऑटोमैटिक रूट और रीजनेबल वित्तीय शर्तों व राजस्व साझेदारी मॉडल के माध्यम से 100% विदेशी प्रत्यक्ष निवेश को मंजूरी होगी। 
  • नीलामी में बोली लगाने वाली जिन कंपनियों को कोयला खदानें आबंटित होती हैं उन्हें कोयले के उत्पादन में लचीलापन दिया जाएगा और अगर वो कोयले का उत्पादन और उसका गैसीफिकेशन जल्दी शुरू कर पाते हैं तो उन्हें प्रोत्साहन देने के प्रावधान भी हैं। पिछली सरकारों में ऐसा कतई नहीं था।

यह नीलामी प्रक्रिया आत्मनिर्भर भारत के महान स्वप्न को पूरा करने के लिए नई उम्मीद कैसे है? इसके जवाब में पीआईबी की विज्ञप्ति में लिखा है कि –कोयला खदानों की इस नीलामी प्रक्रिया से देश में ऊर्जा सुरक्षा की मजबूत नींव रखी जाएगी। अतिरिक्त कोयला उत्पादन से बड़े पैमाने पर रोजगार पैदा होंगे और कोयला क्षेत्र में व्यापक निवेश होगा। इन प्रयासों से 1 बिलियन टन का कोयला उत्पादन होगा जिससे 2023-24 में अनुमानित घरेलू थर्मल कोल की आवश्यकता को पूरा किया जाएगा। 

बेहद आकर्षक और बाज़ार के किसी दूसरे उत्पाद की बिक्री बढ़ाने जैसे इस सस्ते विज्ञापन से कई सवाल पैदा होते हैं जिनके उत्तर सरकार को देना चाहिए। मसलन एक बुनियादी सवाल है कि अपने देश की प्राकृतिक संपदा और धरोहर को बेच कर कोई देश कैसे आत्मनिर्भर बनेगा? इसका कोई तर्क हमें नहीं दिखलाई नहीं पड़ता। 

इसी से जुड़ा सवाल यह भी है कि इस सेक्टर में 100 प्रतिशत प्रत्यक्ष विदेशी निवेश को मंजूरी देने से किसका राजस्व बढ़ेगा? विदेशी निवेश से भारत की आत्म-निर्भरता के लक्ष्य को पाने की अविवेकी ललक कोई संप्रभु सरकार कैसे पाल सकती है? 

कमर्शियल कोल माइनिंग यानी कोयले का वाणिज्यिक इस्तेमाल- हालांकि भाजपा सरकार ने सत्ता में आते ही कोयला अध्यादेश के मार्फत कोयले के वाणिज्यिक इस्तेमाल के लिए खोल दिया था लेकिन तब भी इसके लिए सरकारी कंपनियों को ही योग्य माना गया था। अब कोयले के वाणिज्यिक इस्तेमाल और दोहन की छूट निजी उद्यमियों और कंपनियों को भी दी जा रही है जिससे कोयले पर जो राष्ट्रीयकरण की संरक्षणवाद की नीति का अंकुश था वो पूरी तरह से खारिज हो गया है और बाज़ार के अन्य उत्पादों की तरह खरीद –बिक्री के लिए एक माल की तरह बना दिया गया है। 

कोल का उन्मुक्तिकरण और बंधनों से मुक्ति का मतलब - हिंदुस्तान के इतिहास में अभी तक कोयले का उत्पादन केवल देश की ऊर्जा जरूरतों की पूर्ति के लिए ही किया जाता रहा है और इसलिए इसका अंतिम उपयोग अनिवार्यता बिजली संयंत्रों, इस्पात बनाने या अन्य किसी उद्योग के लिए ऊर्जा की ज़रूरत को मद्देनजर रखते ही सीमित किया गया था ताकि कोयले का अपना कोई स्वतंत्र बाज़ार न हो और कोयले को केवल एक सहायक उत्पाद के तौर पर देखा गया था। अगर ऐसा नहीं होता और कोयले का ही व्यावसायिक उपयोग इन बीते 70 वर्षों में किया जाता यानी कोई कोयला निकालकर उसे कहीं भी बेचने के लिए स्वतंत्र होता तो हमारे देश के उद्योगों के लिए ज़रूरी कोयले की आपूर्ति मुश्किल हो जाती या इन उद्योगों में निर्मित होने वाले उत्पादों की कीमतें बहुत ज़्यादा होतीं। 

कोयले को अंतिम उत्पाद के रूप में देखने और उसके व्यावसायिक उपयोग के लिए मुक्त कर देने से भले ही इस नीलामी में कुछ खरीददार आकर्षित होंगे लेकिन इसके दूरगामी परिणाम ज़रूरी उत्पादों के निर्माण में लागत बढ़ने में होगा जो न तो देश हित में है और न ही इससे आत्म-निर्भर भारत बनाने का लक्ष्य ही पूरा होगा। 

नीलामी की शर्तों में लचीलापन – 

खबर है कि अब इस नीलामी को सफल बनाने की मंशा से इसे कम प्रतिस्पर्द्धी बनाया गया है यानी जहां कम से कम तीन या चार बोलीदारों(बिडर्स) का होना अनिवार्य था अब महज़ दो बोलीदार होने से भी नीलामी की प्रक्रिया को संचालित किया जा सकेगा। 

यहाँ उल्लेखनीय है कि मोदी के नेतृत्व में भाजपा नीत सरकार ने अपने पहले कार्यकाल में भी इसी तरह की नीलामियां की थीं और जिन्हें घनघोर रूप से असफल माना जा सकता है। पिछले कार्यकाल में इस सरकार ने 65 कोल ब्लॉक्स के लिए 72 बार नीलामी के प्रयास किए जिनमें महज़ 31 खदानों को ही आबंटित किया जा सका। 

फरवरी 2015 से लेकर जुलाई 2017 तक कुल पाँच चरणों में संचालित नीलामी प्रक्रियाओं में अंतिम दो प्रयासों को निरस्त ही करना पड़ा क्योंकि कोई बोली लगाने वाली योग्य कंपनियां ही सामने नहीं आयीं। बाद में 2018 में भी कुल 8 चरणों में नीलामी प्रक्रिया संचालित की गयी जिसमें अंतिम पाँच चरणों की प्रक्रिया निरस्त करना पड़ी क्योंकि कोई खरीददार ही नहीं आया। 

गौर तलब है कि 2017 तक अपनाई गयी नीलामी प्रक्रिया में कम से कम 3 बोलीदारों की अनिवार्यता थी, एक ही निजी समूह कई -कई कंपनियों के नाम से बोली लगाने के प्रयास कर रहे थे जिसके बारे में भारत के महालेखा नियंत्रक ने 2017  की अपनी रिपोर्ट में दर्ज़ किया। 

इन तजुर्बों को ध्यान में रखकर 18 जून को होने वाली नीलामी प्रक्रिया में लचीलापन बरतने की बात की जा रही है लेकिन इस लचीलेपन की इंतिहां क्या होगी? ऐसा लग  सकता है कि इस बहाने यह सरकार कोयला की आपूर्ति सुनिश्चित करने जा रही है लेकिन जब देश में कोयले की मांग या खपत ही नहीं होगी तो इसका क्या सकारात्मक प्रभाव होगा? 

इसमें भी खदान लेने वाली कंपनी की कार्यक्षमताओं में ढिलाई दी जा रही है जिसका सीधा तात्पर्य यह है कि कोयला खदानें ले लेने के बाद भी कोयले का उत्खनन कब और कैसे करना है इस पर कोई नियंत्रण नहीं रहेगा। यानी आपूर्ति को लेकर भी कोई स्पष्ट नीति नहीं है। 

अर्थवव्यवस्था की डूबती नैया को पार लगाने के लिए जो फौरी राजस्व वृद्धि दरकार है वो इस नीलामी प्रक्रिया से हासिल होने वाली नहीं है। 

संघीय ढांचे पर आघात - जो सबसे बड़ा सवाल इस प्रक्रिया पर उठ रहे हैं वो हैं देश की प्राकृतिक संपदा में संघीय सरकार के अलावा दो अन्य सरकारों यानी विभिन्न राज्यों की सरकारों व स्थानीय सरकारों की भूमिका को खारिज किया जाने को लेकर हैं। इससे देश की राष्ट्रीय संपदा को लेकर संघीय ढांचे की परिकल्पना पर बहुत गहरा आघात किया जा रहा है। अपने छह साल के कार्यकाल में भाजपा सरकार ने कई ऐसे कदम उठाए हैं जिनमें राज्यों की स्वायत्तता व उनको प्रदत्त शक्तियों को नज़रअंदाज़ किया गया है। हाल ही में कोरोना से निपटने की रणनीति में हमने देखा है कि सब कुछ केंद्रीय बल्कि एक व्यक्ति के अधीन कर दिया गया। आज पूरा देश इस जिद के परिणाम भुगत रहा है। 

पहले की सरकारों में राज्यों के पास ये अधिकार थे कि अपने भौगोलिक क्षेत्र में मौजूद खदानों पर निर्णय ले सकती हैं और जिसके बारे में सुप्रीम कोर्ट ने 2014 के अपने आदेश में स्पष्ट रूप से कहा है कि-खदान आवंटन की मूल ज़िम्मेदारी राज्य सरकारों की है”।  

इसके अलावा में ग्राम सभाओं की भूमिका को लेकर भी बड़े सांवैधानिक सवाल हैं। जिन्हें पांचवीं अनुसूची के क्षेत्रों में पेसा कानून व शेष भारत में वन अधिकार मान्यता कानून 2006 के माध्यम से प्रकृतिक संसाधनाओं पर स्वामित्व जताने के लिए विधि का बल प्राप्त है। उल्लेखनीय है कि ग्राम सभाएं 2015 से ही प्रधानमंत्री को इस आशय के पत्र लिख रही हैं कि उनके अधीन आने वाले कोल ब्लॉक्स की नीलामी न की जाये क्योंकि वो इन्हें सहमति नहीं देंगीं। 

यह प्रत्यक्ष तौर पर राज्यों की शक्तियों की की उपेक्षा है और जिससे राज्य सरकारों के राजस्व में व्यापक कटौती होगी। ग्राम सभाओं की संविधान प्रदत्त भूमिकाओं की उपेक्षा होगी। गौरतलब है कि इस नीलामी के विरोध में झारखंड की सरकार ने अपनी मंशा ज़ाहिर कर दी है। हेमंत सोरेन ने पत्र लिखकर इस पर विरोध जताया है। संभव है कुछ और राज्य सरकारें इस तरह के कदम उठाएँ।

संपदा व शक्तियों के केन्द्रीकरण की कोशिश- हमें याद रखना चाहिए कि इसी तरह की एक दुराग्रहपूर्ण केन्द्रीकरण की कोशिश वस्तु एवं सेवा करों (जीएसटी) के थोपे जाने से भी हुई थी और जिसके परिणाम महज़ तीन साल बाद देश की अर्थव्यवस्था को भुगतने पड़ रहे हैं। 

ऐसा ही लोक लुभावन कार्यक्रम जीएसटी को लागू किए जाते समय किया गया था और कर-सुधार की एक मामूली सी घटना को देश की आज़ादी की तरह मनाया गया था। 30 जून 2017 को संसद का विशेष सत्र अर्ध रात्रि को बुलाया गया था जो देश के इतिहास में चौथी बार हो रहा था। इससे पहले तीन बार ऐसा आयोजन हुआ है जो क्रमश: 15 अगस्त 1947, 15 अगस्त 1972 और 15 अगस्त 1997 यानी आज़ादी के दिन, आज़ादी की पच्चीसवीं वर्षगांठ पर और आज़ादी की पचासवीं वर्षगांठ पर। 

आज जीएसटी की असफलता के पीछे यही केन्द्रीकरण की दुराग्रही नीति है। तमाम राज्य सरकारें कर-संग्रहण की शक्तियों से विहीन होकर केंद्र सरकार की मोहताज हो गयी हैं। इसका सीधा प्रभाव विभिन्न राज्यों के नागरिकों को बुनियादी जरूरतों की कमी से जूझना पड़ रहा है। हमें नहीं भूलना चाहिए कि राष्ट्रीय हित राज्यों को शक्तिविहीन और स्थानीय सरकारों को खारिज करके नहीं साधे जा सकते। उम्मीद है अपनी नसर्गिक धरोहर को बेचने के इस विज्ञापन की आड़ में देश में कॉलगेट 2.0 की उत्सवी शुरूआत न हो बल्कि कोयले को राष्ट्रीय संपदा और धरोहर मानते हुए इसका किफ़ायती और जन हितैषी उपयोग सुनिश्चित हो।

(लेखक भारत सरकार के आदिवासी मंत्रालय के मामलों द्वारा गठित हैबिटेट राइट्स व सामुदायिक अधिकारों से संबन्धित समितियों में नामित विषय विशेषज्ञ के तौर पर सदस्य हैं)

 

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